होम / दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता
वाणिज्यिक विधि
इंडिपेंडेंट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम गिरीश श्रीराम जुनेजा (2025)
30-Jul-2025
परिचय
उच्चतम न्यायालय के इस ऐतिहासिक मामले में दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (IBC) के अंतर्गत दिवाला कार्यवाही तथा प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 के अंतर्गत प्रतिस्पर्धा विधि की आवश्यकताओं के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर्संबंध की जाँच की गई। यह मामला भारत के ग्लास पैकेजिंग उद्योग में एक बड़े संयोजन से संबंधित समाधान योजना की स्वीकृति को चुनौती देने वाली सांविधिक अपीलों से उत्पन्न हुआ था। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस तथ्य पर खंडित निर्णय दिया कि संयोजनों से संबंधित दिवाला समाधान प्रक्रियाओं में ऋणदाताओं की समिति (CoC) की स्वीकृति से पहले भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) की स्वीकृति लेनी होगी या नहीं।
तथ्य
- वर्ष 1946 में स्थापित, हिंदुस्तान नेशनल ग्लास एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड (HNGIL) का भारत के ग्लास पैकेजिंग उद्योग में 60% बाजार हिस्सा था, जिसके देश भर में सात विनिर्माण संयंत्र हैं जो दवा, सौंदर्य प्रसाधन, खाद्य एवं पेय पदार्थ, और एल्को-बेवरेज क्षेत्रों में सेवाएँ प्रदान करते हैं। तेलंगाना में दो विनिर्माण संयंत्रों वाली ग्लास पैकेजिंग की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी, AGI ग्रीनपैक लिमिटेड, सफल समाधान आवेदक के रूप में उभरी। प्रस्तावित विलय से एक प्रमुख कंपनी का निर्माण होगा, जिसकी खाद्य एवं पेय पदार्थ क्षेत्र में 80-85% और एल्को-बेवरेज क्षेत्र में 45-50% बाजार हिस्सेदारी होगी।
- DBS बैंक ने IBC की धारा 7 के अंतर्गत HNGIL के विरुद्ध कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (CIRP) आरंभ की, जिसे राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण (NCLT) की कोलकाता पीठ ने 21 अक्टूबर, 2021 को स्वीकार कर लिया। समाधान पेशेवर ने 25 मार्च 2022 को हित पत्र (EOI) जारी किया, जिसमें अनिवार्य खंड 3.3 और 4.1.1 (k) के अंतर्गत किसी भी समाधान योजना के लिये CoC की स्वीकृति से पहले CCI की स्वीकृति की आवश्यकता है।
- इंडिपेंडेंट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (INSCO) और AGI ग्रीनपैक दोनों ने अप्रैल 2022 में समाधान योजनाएँ प्रस्तुत कीं तथा उन्हें अनंतिम पात्र सूची में रखा गया। AGI ग्रीनपैक ने आरंभ में 27 सितंबर, 2022 को CCI के पास फॉर्म I आवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें HNGIL की 100% शेयरधारिता और व्यवसाय का अधिग्रहण करने के अपने प्रस्ताव की सूचना दी गई थी।
- 28 अक्टूबर, 2022 को, CoC ने AGI ग्रीनपैक की समाधान योजना को 98% मतों से स्वीकृति दे दी, जबकि INSCO की योजना को 88% मत प्राप्त हुए, जबकि AGI ग्रीनपैक के पास मतदान के समय अपेक्षित CCI अनुमोदन नहीं था। INSCO ने तुरंत आपत्ति जताई, यह रेखांकित करते हुए कि CCI अनुमोदन की अनिवार्य शर्त पूरी नहीं हुई थी और प्रक्रिया में गंभीर विरोधाभासों की ओर इशारा किया।
- AGI ग्रीनपैक ने 3 नवंबर, 2022 को एक विस्तृत फॉर्म II आवेदन प्रस्तुत किया, तथा बाद में 10 मार्च, 2023 को एक स्वैच्छिक विनिवेश योजना प्रस्तुत की, जिसमें HNGIL के सात संयंत्रों (ऋषिकेश, उत्तराखंड) में से एक के विनिवेश का प्रस्ताव था। CCI ने 15 मार्च, 2023 को अनिवार्य विनिवेश सहित कुछ संशोधनों के अनुपालन के अधीन अनुमोदन प्रदान किया।
- NCLT, कोलकाता ने 28 अप्रैल, 2023 को INSCO की चुनौती को खारिज कर दिया तथा AGI ग्रीनपैक की समाधान योजना की स्वीकृति यथावत रखी। इसके बाद, NCLAT ने 18 सितंबर, 2023 को इस निर्णय को यथावत रखा तथा कहा कि CCI की स्वीकृति अनिवार्य है, लेकिन CoC के समक्ष उसकी पूर्व स्वीकृति केवल निर्देशात्मक है। INSCO ने इन दोनों निर्णयों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान अपीलें संस्थित की गईं।
न्यायिक टिप्पणी
न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की बहुमत राय (न्यायाधीश सुधांशु धूलिया द्वारा सहमति):
- न्यायमूर्ति रॉय ने कठोर शाब्दिक निर्वचन के सिद्धांत को लागू किया और कहा कि IBC की धारा 31(4) के प्रावधान की सांविधिक भाषा स्पष्ट रूप से यह अनिवार्य करती है कि जब किसी समाधान योजना में संयोजन शामिल हो, तो CoC की स्वीकृति से पहले CCI की स्वीकृति ली जाए। न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि इस आवश्यकता की केवल निर्देशात्मक निर्वचन करना विधायी मंशा के विपरीत होगा और प्रावधान की प्रभावशीलता को क्षीण करेगा।
- बहुमत की राय ने IBC की धारा 31(4) में प्रावधान डालने के पीछे विधायी मंशा की जाँच की तथा निष्कर्ष निकाला कि CCI की पूर्व स्वीकृति विशेष रूप से यह सुनिश्चित करने के लिये अनिवार्य थी कि CoC पूरी नियामक सूचना के साथ वाणिज्यिक विवेक का प्रयोग करे। न्यायालय ने कहा कि प्रतिस्पर्धा अधिनियम की धारा 31(3) और विनियमन 25(1)(A) के अंतर्गत CCI की भूमिका के लिये CoC द्वारा विचार करने से पहले संयोजनों की स्वीकृति, अस्वीकृति या संशोधन की आवश्यकता होती है।
- न्यायमूर्ति रॉय ने NCLAT के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अनिवार्य पूर्वानुमति CIRP की समयसीमा को बाधित करेगी, तथा इस तथ्य पर बल दिया कि सांविधिक प्रावधान अधीनस्थ विनियमों पर वरीयता प्राप्त करते हैं। न्यायालय ने कहा कि CCI आमतौर पर 21 कार्यदिवसों के अंदर संयोजन प्रस्तावों को स्वीकृति दे देता है, तथा ऐसा कोई भी मामला दर्ज नहीं है जिसमें 120 दिनों से अधिक का समय लगा हो, जिससे विलंब की चिंताएँ बहुत हद तक सैद्धांतिक हैं।
- बहुमत की राय ने महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक कमियों को प्रकटित किया, जिसमें प्रतिस्पर्धा अधिनियम की धारा 29(1) के अंतर्गत लक्षित कंपनी के रूप में HNGIL को अनिवार्य कारण बताओ नोटिस जारी करने में CCI की विफलता भी शामिल है। न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि विनियम 25(1A) के अंतर्गत विनिवेश जैसे स्वैच्छिक संशोधनों के लिये लक्षित कंपनी की स्वीकृति आवश्यक है, जो इस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी।
न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की असहमतिपूर्ण राय:
- न्यायमूर्ति भट्टी ने कठोर शाब्दिक निर्वचन की बजाय उद्देश्यपूर्ण निर्वचन की वकालत की। उन्होंने विक्टोरिया सिटी कॉर्पोरेशन बनाम वैंकूवर द्वीप के बिशप मामले का उदाहरण देते हुए इस तथ्य पर बल दिया कि सांविधिक निर्वचन से व्यावहारिकता सुनिश्चित होनी चाहिये और IBC के कुशल दिवाला समाधान के उद्देश्य में बाधा नहीं आनी चाहिये।
- असहमति जताने वाले मत में तर्क दिया गया कि प्रावधान में "पहले" वाक्यांश का निर्वचन लचीले ढंग से किया जाना चाहिये, जिससे CCI की स्वीकृति CoC चरण से पहले अनिवार्य रूप से लेने के बजाय, न्यायनिर्णयन प्राधिकरण की स्वीकृति से पहले प्राप्त की जा सके। न्यायमूर्ति भट्टी ने इस तथ्य पर बल दिया कि CoC मतदान से पहले CCI की स्वीकृति अनिवार्य करने से व्यवहार्य आवेदक बाहर हो सकते हैं और प्रतिस्पर्धा में बाधा आ सकती है।
- न्यायमूर्ति भट्टी ने आर्सेलरमित्तल और एस्सार स्टील मामलों सहित न्यायिक निर्णयों का उदाहरण देते हुए तर्क दिया कि CoC की व्यावसायिक विवेक को उन नियामक शर्तों से बाधित नहीं किया जाना चाहिये जिन्हें समाधान प्रक्रिया में बाद में संबोधित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि धारा 31(4) को अनिवार्य के बजाय निर्देशात्मक माना जाना चाहिये।
- असहमत न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि संयोजन अनुमोदन आवश्यकताओं के गैर-अनुपालन के परिणामों का आकलन अधिकरण स्तर पर किया जाना चाहिये, ताकि समाधान प्रक्रिया को बाधित किये बिना IBC और प्रतिस्पर्धा अधिनियम, दोनों का पालन सुनिश्चित किया जा सके।
निष्कर्ष
इस मामले में उच्चतम न्यायालय का खंडित निर्णय भारतीय दिवाला एवं प्रतिस्पर्धा विधि न्यायशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण विकास का प्रतिनिधित्व करता है। न्यायमूर्ति रॉय द्वारा बहुमत से लिया गया निर्णय, जिसमें CoC पर विचार करने से पहले CCI की पूर्व स्वीकृति की अनिवार्यता स्थापित की गई है, एक ऐसा उदाहरण स्थापित करता है जो संयोजनों से संबंधित दिवाला कार्यवाही में नियामक निगरानी को सशक्त करता है। हालाँकि, न्यायमूर्ति भट्टी की असहमतिपूर्ण राय व्यावहारिक कार्यान्वयन एवं कुशल दिवाला समाधान के साथ नियामक अनुपालन के संतुलन की आवश्यकता को लेकर महत्त्वपूर्ण चिंताएँ उठाता है। यह न्यायिक विमर्श दिवाला एवं प्रतिस्पर्धा विनियमन के अंतर्संबंध में विधि की विकसित होती प्रकृति को दर्शाता है, जो अंततः भारत में कॉर्पोरेट पुनर्गठन के लिये अधिक सशक्त विधिक ढाँचे के विकास में योगदान देता है।