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सांविधानिक विधि

सांविधानिक सिद्धांत

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 31-Jul-2025

परिचय 

सांविधानिक सिद्धांत भारतीय संविधान की व्याख्या और अनुप्रयोग का मार्गदर्शन करने वाले मूलभूत सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं। ये सिद्धांत न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकसित हुए हैं और सांविधानिक विवादों के समाधान के लिये आवश्यक ढाँचा प्रदान करते हैं। 

प्रमुख सांविधानिक सिद्धांत 

मूल संरचना का सिद्धांत 

मूल संरचना सिद्धांत यह स्थापित करता है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, किंतु वह इसके मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। इसके घटकों में संसदीय लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, पंथनिरपेक्षता, संघवाद और न्यायिक पुनर्विलोकन सम्मिलित  हैं। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामलेमेंउच्चतम न्यायालय ने पहली बार निर्णय दिया कि संसद संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। 
  • इंदिरा नेहरू गाँधी बनाम राज नारायण (1975) मामलेमें इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की गई, जहाँ न्यायालय ने 39वें संशोधन अधिनियम के उन प्रावधानों को अमान्य कर दिया, जो प्रधानमंत्री से संबंधित चुनाव विवादों को न्यायिक अधिकारिता से बाहर रखते थे। 

संबंधित अनुच्छेद:यह सिद्धांत अनुच्छेद 368 (संशोधन शक्ति) पर एक विवक्षित परिसीमा के रूप में कार्य करता है। 

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत 

यह सिद्धांत कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन का प्रतीक है, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी एक अंग अन्य पर प्रभुत्व स्थापित न कर सके। यह सत्ता के संकेंद्रण को रोकता है और शासन में नियंत्रण और संतुलन बनाए रखता है। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • राम जवाया बनाम पंजाब राज्य (1955) मामलेमेंउच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि भारतीय संविधान में शक्तियों का पूर्ण पृथक्करण नहीं है, तथापि विभिन्न अंगों के कार्य स्पष्ट रूप से विभाजित हैं।  
  • इंदिरा नेहरू गाँधी बनाम राज नारायण (1975) मामलेमेंन्यायालय ने यह घोषित किया कि शक्तियों का पृथक्करण संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का एक अभिन्न अंग है, जिसे संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता। 

संबंधित अनुच्छेद:नीति निदेशक तत्त्व का अनुच्छेद 50 लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने का आदेश देता है। 

सार और तत्त्व का सिद्धांत 

यह सिद्धांत उस स्थिति में लागू होता है जब किसी विधिक उपबन्ध की वैधता पर प्रश्न उठता है कि वह संबंधित विधायिका (केंद्र अथवा राज्य) की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है या नहीं। इस सिद्धांत के अंतर्गत न्यायालय विधि के रूप की अपेक्षा उसके वास्तविक उद्देश्य और तत्त्व की जांच करता है जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि वह किस विधायी क्षेत्र के अंतर्गत आता है। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • प्रफुल्ल बनाम बैंक ऑफ कॉमर्स (1946) मामलेमें, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य की धन उधार संबंधी विधि वैध है, यद्यपि उसका आंशिक प्रभाव वचन पत्रों पर पड़ता है, क्योंकि विधि का मुख्य उद्देश्य धन उधार विनियमन है, न कि वचन पत्रों का विनियमन।      

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 246 (विधायी शक्तियां) और अनुच्छेद 254 (केंद्रीय और राज्य विधियों के बीच विरोधाभास) के अधीन लागू। 

आकस्मिक  या आनुषंगिक शक्तियों का सिद्धांत 

यह सिद्धांत विधायिकाओं को उनके प्राथमिक विधायी विषयों से संबंधित मामलों पर विधि बनाने की अनुमति देता है। यह संबंधित मामलों पर विधि बनाने की शक्ति प्रदान करके सार और तत्त्व के सिद्धांत का पूरक है। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • राजस्थान राज्य बनाम जी. चावला (1958) मामलेमेंउच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी विषय पर विधि बनाने की शक्ति में उचित रूप से सहायक मामलों पर विधि बनाने की शक्ति भी सम्मिलित है। 

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 4 और 169 आकस्मिक शक्तियों के विशिष्ट उदाहरण प्रदान करते हैं। 

पृथक्करणीयता का सिद्धांत 

पृथक्करण के सिद्धांत के रूप में भी जाना जाने वाला यह सिद्धांत, किसी विधि के केवल असांविधानिक भागों को अमान्य करके और वैध भागों को सुरक्षित रखकर मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। जब तक वैध और अवैध भाग अविभाज्य रूप से जुड़े न हों, तब तक पूरी विधि को रद्द नहीं किया जाता। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) मामलेमेंन्यायालय ने निर्णय दिया कि केवल विवादित प्रावधान ही शून्य होने चाहिये, संपूर्ण अधिनियम नहीं। 
  • बॉम्बे राज्य बनाम एफ.एन. बलसारा (1951) मामलेमेंबॉम्बे निषेध अधिनियम की आठ धाराओं को अवैध घोषित कर दिया गया, जबकि शेष धाराएँ प्रभावी रहीं। 

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 13(1) पर आधारित, जो मौलिक अधिकारों से असंगत विधियों को असंगतता की सीमा तक शून्य घोषित करता है। 

ग्रहण का सिद्धांत 

यह सिद्धांत तब लागू होता है जब विधि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं, जिससे वे अप्रवर्तनीय हो जाती हैं, किंतु आरंभ से ही शून्य नहीं होतीऐसी विधि नागरिकों के विरुद्ध निष्क्रिय रहती हैं, किंतु मौलिक अधिकारों के संरक्षण से वंचित गैर-नागरिकों के विरुद्ध लागू होते रहती हैं। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • पहली बार भीकाजी नारायण धाकरास बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1955)में पेश किया गया, जहाँ मोटर परिवहन व्यवसाय के सरकारी अधिग्रहण को सशक्त बनाने वाली विधि को अनुच्छेद 19(1)(छ) द्वारा ग्रहण किया गया था। 

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 13(1) में निहित है और केवल पूर्व-सांविधानिक विधियों पर लागू होता है। 

क्षेत्रीय संबंध का सिद्धांत 

यह सिद्धांत यह स्थापित करता है कि राज्य की विधि सामान्यतः राज्य की सीमाओं के भीतर ही लागू होती हैं, जब तक कि राज्य और विषय-वस्तु के बीच पर्याप्त संबंध न हो। यह राज्य की विधियों के मनमाने ढंग से राज्यक्षेत्र से बाहर लागू होने से रोकता है। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • एच. वाडिया बनाम आयकर आयुक्त (1948) मामलेमें, न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रादेशिकता का अभाव सर्वोच्च विधायी प्राधिकार की विधियों को अमान्य नहीं कर सकती बॉम्बे राज्य बनाम आरएमडीसी (1952) मामले में, कराधान को उचित ठहराने के लिये पर्याप्त प्रादेशिक संबंध पाया गया था। 

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 245 से शक्ति प्राप्त होती है, जो विधायी शक्ति की क्षेत्रीय सीमाओं को संबोधित करती है। 

छद्म विधान या आभासी का सिद्धांत 

"संविधान के साथ कपट" के नाम से जाना जाने वाला यह सिद्धांत विधायी क्षमता से बाहर के विषयों पर अप्रत्यक्ष विधि बनाने से रोकता है। यह सुनिश्चित करता है कि विधायिकाएँ अप्रत्यक्ष तरीकों से वह हासिल न कर सकें जो वे सामान्यतः नहीं कर सकतीं। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • एस. जोशी बनाम अजीत मिल्स (1977) मामलेमेंउच्चतम न्यायालय ने कहा कि छद्म विधान तब बनता है जब विधायिका में क्षमता का अभाव होता है, किंतु वह क्षमता का दिखावा करके विधि बनाने का प्रयत्न करती है। 

संबंधित अनुच्छेद:सामान्यतः अनुच्छेद 246 पर लागू होता है, जो तीन सूचियों के माध्यम से विधायी क्षमता का सीमांकन करता है। 

प्रसाद का सिद्धांत 

अंग्रेजी विधि से उत्पन्न यह सिद्धांत राष्ट्रपति या राज्यपाल को अपनी इच्छानुसार लोक सेवकों को बर्खास्त करने की अनुमति देता है। यद्यपि, सांविधानिक सुरक्षा उपाय मनमाने ढंग से बर्खास्तगी को रोकते हैं। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • बिहार राज्य बनाम अब्दुल मजीद (1954) मामलेमें, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अंग्रेजी सामान्य विधि को पूरी तरह से नहीं अपनाया गया था। 
  • भारत संघ बनाम तुलसीराम पटेल (1965) मामलेमें, इस सिद्धांत को सामंती अवधारणाओं के बजाय लोक नीति पर आधारित माना गया। 

संबंधित अनुच्छेद:अनुच्छेद 155 (राज्यपाल का कार्यकाल), अनुच्छेद 310 (सिविल सेवकों का कार्यकाल), और अनुच्छेद 311 (प्रतिबंध और सुरक्षा उपाय)। 

सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत 

इस सिद्धांत में विरोधाभासी प्रतीत होने वाले प्रावधानों की इस प्रकार व्याख्या करने की आवश्यकता है कि सभी प्रावधान बिना किसी अनावश्यकता के प्रभावी हों। यह सांविधानिक सद्भाव और सुसंगति को बढ़ावा देता है। 

ऐतिहासिक निर्णय: 

  • यह सिद्धांतशंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ, 1951के माध्यम से विकसित हुआ औरसी.आई.टी. बनाम हिंदुस्तान बल्क कैरियर (2003)में व्यवस्थित किया गया, जिसमें पाँच सिद्धांत निर्धारित किये गए। 
  • पुनः केरल शिक्षा विधेयक (1951)मेंन्यायालय ने मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्त्व के बीच सामंजस्यपूर्ण निर्माण लागू किया। 

संबंधित अनुच्छेद:स्पष्ट विवादों को सुलझाने के लिये सांविधानिक प्रावधानों में लागू। 

निष्कर्ष 

ये सांविधानिक सिद्धांत भारतीय सांविधानिक न्यायशास्त्र की आधारशिला हैं, जो सांविधानिक संतुलन बनाए रखने और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले व्याख्यात्मक उपकरण प्रदान करते हैं। न्यायिक विकास के माध्यम से, ये सिद्धांत संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को संरक्षित करते हुए समकालीन चुनौतियों के अनुकूल ढलते रहते हैं। ये सांविधानिक विधि की गतिशील प्रकृति और सांविधानिक सर्वोच्चता की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को प्रदर्शित करते हैं।