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सांविधानिक विधि

72वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992

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 07-Oct-2025

परिचय 

भारतीय संविधान का 72वाँ संशोधन, जो 1992 में अधिनियमित किया गया था, जातीय तनाव और उग्रवाद से जूझ रहे त्रिपुरा राज्य में शांति बहाल करने की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता से प्रेरित था। अगस्त 1988 में, भारत सरकार ने त्रिपुरा राष्ट्रीय स्वयंसेवकों के साथ एक ऐतिहासिक शांति करार पर हस्ताक्षर किये, जिसमें राज्य के शासन में आदिवासी समुदायों को अधिक अधिकार देने का वचन दिया गया था। यह संशोधन उस वचन को पूरा करने का सांविधानिक तंत्र था। 

मुख्य विवाद्यक  

इस संशोधन से पहले, राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिये सीट आरक्षण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 332 के अधीन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर निर्धारित किया जाता था । यद्यपि, त्रिपुरा की विशिष्ट जनसांख्यिकीय और राजनीतिक स्थिति के कारण एक विशेष व्यवस्था की आवश्यकता थी। जनजातीय आबादी, तथापि महत्त्वपूर्ण थी, राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करने और शांति करार का सम्मान करने के लिये मानक जनगणना-आधारित गणनाओं से परे प्रत्याभूत प्रतिनिधित्व की आवश्यकता थी। 

संशोधन क्या करता है? 

  • 72वें संशोधन द्वारासंविधान के अनुच्छेद 332में एक नया खण्ड (3ख) जोड़ा गया, जिससे एक अस्थायी किंतु महत्त्वपूर्ण सुरक्षा प्रावधान बना। 
  • इसमें यह अनिवार्य किया गया कि जब तक त्रिपुरा की विधानसभा में वर्ष 2000 के बाद पहली जनगणना के आधार पर सीटों का पुनः समायोजन नहीं हो जाता, तब तक अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या कम से कम उसी अनुपात में बनी रहेगी जो 1992 में संशोधन लागू होने के समय थी। 
  • व्यावहारिक रूप से, इसका अर्थ यह था कि यदि संशोधन के समय विधानसभा में 60 में से 20 सीटें (एक तिहाई) जनजातीय सदस्यों के पास थीं, तो यह एक तिहाई अनुपात न्यूनतम आरक्षण के रूप में तय हो जाएगा, चाहे जनसंख्या के आंकड़े कुछ भी बताएं। 

मुख्य विशेषताएँ और सुरक्षा 

  • गैर-विघटनकारी कार्यान्वयन: यह संशोधन वर्तमान विधान सभा को बाधित न करने के लिये सावधानीपूर्वक तैयार किया गया था। विद्यमान सदस्य विधान सभा के स्वाभाविक विघटन तक अपने पदों पर बने रहे, जिससे राजनीतिक उथल-पुथल को रोका जा सके। 
  • समयबद्ध उपबंध: स्थायी सांविधानिक प्रावधानों के विपरीत, यह स्पष्ट रूप से अस्थायी था—जिसका उद्देश्य 2000 के बाद की जनगणना-आधारित परिसीमन प्रक्रिया तक लागू रहना था। इस दृष्टिकोण ने तात्कालिक राजनीतिक  आवश्यकताओं को दीर्घकालिक सांविधानिक सिद्धांतों के साथ संतुलित किया। 
  • शांति करार का एकीकरण: इस संशोधन ने अंतर्राष्ट्रीय शांति करार को सीधे सांविधानिक विधि के रूप में क्रियान्वित किया, जिससे यह प्रदर्शित हुआ कि किस प्रकार भारत का संविधान संघीय ढाँचे को बनाए रखते हुए क्षेत्रीय संघर्षों को सुलझाने के लिये अनुकूलित हो सकता है। 

व्यापक महत्त्व 

  • 72वाँ संशोधन क्षेत्र-विशिष्ट चुनौतियों से निपटने में संविधान के लचीलेपन का प्रतिनिधित्व करता है। इसने स्वीकार किया कि प्रतिनिधित्व के गणितीय सूत्रों में कभी-कभी ऐतिहासिक परिस्थितियों, शांति-निर्माण आवश्यकताओं और स्वदेशी समुदायों की वैध आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए समायोजन की आवश्यकता होती है। 
  • त्रिपुरा की जनजातीय आबादी के लिये यह केवल विधायिका में संख्या बल का मामला नहीं था - यह राजनीतिक गरिमा, स्वशासन और वर्षों से चले आ रहे संघर्ष को समाप्त करने का मामला था। 
  • संशोधन ने एक शक्तिशाली संदेश दिया कि सांविधानिक लोकतंत्र राष्ट्रीय एकता से समझौता किये बिना विविध समुदायों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। 

निष्कर्ष 

72वाँ संशोधन, भले ही इसमें औपचारिक विधिक शब्दों का प्रयोग किया गया हो, मूलतः आदिवासी समुदायों की सुरक्षा, अधिकारों और शासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के बारे में था। इसने माना कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में समानता और समावेशन प्राप्त करने के लिये कुछ समूहों को विशेष संरक्षण की आवश्यकता हो सकती है। पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से आदिवासी स्वशासन के लिये एक सांविधानिक ढाँचा प्रदान करके, इसने आदिवासी लोगों को उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में आवाज़ दी। इस संशोधन ने ऐतिहासिक हाशिए पर पड़े लोगों की समस्या का समाधान करके संघर्षों को कम करने में भी सहायता की, यह दर्शाते हुए कि कैसे विधि समाज में समझ, निष्पक्षता और सद्भाव को बढ़ावा दे सकते हैं।