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विवाह का अपूरणीय विघटन
«03-Oct-2025
परिचय
विवाह, जिसे पारंपरिक रूप से दो आत्माओं का पवित्र मिलन माना जाता है, आधुनिक समाज में एक संविदात्मक संबंध के रूप में विकसित हो गया है। जब यह संविदा टूट जाती है और रिश्ता इतना बिगड़ जाता है कि उसे सुधारा नहीं जा सकता, तो प्रश्न उठता है: क्या विधि दो अनिच्छुक पक्षकारों को विवाह बंधन में बंधे रहने के लिये बाध्य कर सकती है? यह लेख भारत में तलाक के आधार के रूप में "विवाह के अपूरणीय विघटन" की अवधारणा की पड़ताल करता है, इसकी विधिक स्थिति, न्यायिक निर्वचनों और इसकी औपचारिक मान्यता को लेकर चल रही बहस की पड़ताल करता है।
विवाह का अपूरणीय विघटन
अवधारणा को परिभाषित करना:
- भारत के 71वें और 217वें विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, विवाह के अपूरणीय विघटन को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
- "वैवाहिक संबंध में ऐसी असफलता या संबंध में ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियाँ कि पति-पत्नी के पुनः पति-पत्नी के रूप में साथ रहने की कोई उचित संभावना न बचे।"
- सरल शब्दों में, यह उस विवाह को संदर्भित करता है जो इतनी बुरी तरह टूट चुका है कि उसे न तो बचाया जा सकता है और न ही पुनः प्राप्त किया जा सकता है। यह उस समय को दर्शाता है जब विवाह, विधिक रूप से वैध होते हुए भी, व्यावहारिक और भावनात्मक रूप से प्रभावी रूप से समाप्त हो चुका होता है।
मूल:
- यह अवधारणा 1921 में न्यूजीलैंड में लॉडर बनाम लॉड्डे के ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से उत्पन्न हुई थी।
अपूरणीय (अपरिवर्तनीय) विघटन का सिद्धांत
- विवाह के अपूरणीय विघटन को वैवाहिक संबंध की असफलता के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ पति-पत्नी के एक साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कोई उचित संभावना नहीं बचती।
- वर्तमान में भारत में तलाक के इस सिद्धांत से संबंधित कोई स्पष्ट विधायी प्रावधान नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित कारकों पर विचार करते हुए, अपूरणीय विघटन के आधार पर तलाक देने के लिये आधार विकसित किये हैं:
- पति-पत्नी के सहवास (cohabitation) की अवधि
- अंतिम सहवास के पश्चात् व्यतीत समय
- पक्षकारों द्वारा परस्पर लगाए गए आरोप
- पक्षकारों के बीच विधिक कार्यवाही में पारित आदेश
- परिवार द्वारा विवाद निपटान के लिये किये गए प्रयास
- 6 वर्षों से अधिक की पृथक्करण अवधि।
- भारतीय विधि आयोग ने अपनी 71वीं रिपोर्ट (1978) और 2009 की रिपोर्ट में तलाक के लिये एक अतिरिक्त आधार के रूप में अपूरणीय विघटन को जोड़ने की सिफारिश की थी।
- न्यूजीलैंड ने 1920 में इस अवधारणा की शुरुआत की थी, जिसमें तीन वर्ष या उससे अधिक अवधि के पृथक्करण करार के आधार पर तलाक की याचिका को अनुमति दी गई थी।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) वर्तमान में अपूरणीय विवाह विच्छेद को तलाक के आधार के रूप में मान्यता नहीं देता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन, आपसी सहमति से तलाक के लिये संयुक्त याचिका, एक वर्ष की पृथकता अवधि, तथा दो प्रस्तावों के बीच अनिवार्य छह मास की प्रतीक्षा अवधि की आवश्यकता होती है।
- सिद्धांत यह मानता है कि जब वैवाहिक संबंध सुलह से परे बिगड़ जाए, तो विवाह को समाप्त कर देना चाहिये।
- यह सिद्धांत यह प्रतिपादित करता है कि जब कोई विवाह टिकाऊ नहीं रह जाता, तब संयुक्त अधिकारों एवं दायित्त्वों का निर्वहन करवाना अन्यायसंगत हो जाता है।
हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह का अपूरणीय (अपरिवर्तनीय) विघटन
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन विवाह के अपूरणीय विघटन को स्पष्ट रूप से तलाक के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
- इस अवधारणा को सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा, 1984 के मामले में स्वीकार किया था, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि जब विवाह इतना टूट चुका हो कि उसे सुधारा नहीं जा सकता, तब तलाक दिया जा सकता है।
- यद्यपि, अमरेन्द्र एन. चटर्जी बनाम श्रीमती कल्पना चटर्जी (2022) जैसे बाद के मामलों ने स्पष्ट किया कि सांविधिक प्रावधान की कमी के कारण न्यायालय केवल इस आधार पर तलाक नहीं दे सकता हैं।
- अपूर्व मोहन घोष बनाम मानषी घोष (1988) के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुतोष केवल धारा 23 के अनुसार अधिनियम में उल्लिखित सांविधिक आधार पर ही दिया जा सकता है।
- वी. भगत बनाम डी. भगत (1993) ने पुष्टि की कि केवल अपूरणीय विघटन तलाक का आधार नहीं है, किंतु सांविधिक आधार के लिये साक्ष्य की जांच करते समय इस पर विचार किया जा सकता है।
- विधि आयोग ने तलाक के लिये अपूरणीय विघटन को आधार बनाने का प्रस्ताव दिया है, किंतु विधानमंडल ने इस सिफारिश को स्वीकार नहीं किया है।
- सुश्री जॉर्डन डिएंगडेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने विवाह विधियों में व्यापक सुधार की सिफारिश की थी, जिसमें तलाक के आधार के रूप में अपूरणीय विघटन (विच्छेद) को शामिल करना भी सम्मिलित था।
- न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने इस अवधारणा को इस प्रकार समझाया कि जब असंगति अत्यंत कठिन हो जाती है, तो विवाह के वास्तविक विघटन को मान्यता दी जाती है।
- वर्तमान में, न्यायालय अपूरणीय विघटन को एक कारक के रूप में मान सकते हैं, किंतु अन्य सांविधिक आवश्यकताओं को पूरा किये बिना केवल इस आधार पर तलाक नहीं दे सकते।
विवाह के अपूरणीय विघटन का विधिक प्रावधान
- इस सिद्धांत को तलाक देने संबंधी कई न्यायिक निर्णयों में लागू किये जाने के कारण अनौपचारिक वैधता प्राप्त हो गई है।
- यद्यपि इसे अभी तक हिंदू विवाह अधिनियम में सम्मिलित नहीं किया गया है, फिर भी विभिन्न विधि आयोगों की रिपोर्टों में इसकी दृढ़तापूर्वक सिफारिश की गई है।
- विवाह विधि (संशोधन) विधेयक, 2010 संसद में प्रस्तुत किया गया, जिसका उद्देश्य तलाक के लिये इस आधार को औपचारिक रूप से लागू करना था।
- भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए इस आधार पर तलाक देने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 142 के अधीन, उच्चतम न्यायालय इस आधार पर तलाक देते समय पृथक्करण के कारण, पृथक्करण की अवधि और अन्य सुसंगत परिस्थितियों जैसे कारकों पर विचार कर सकता है।
- अनुच्छेद 142(1) उच्चतम न्यायालय को किसी भी मामले में 'पूर्ण न्याय' करने के लिये आवश्यक आदेश पारित करने या आदेश देने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 142(1) के अधीन शक्ति का प्रयोग मौलिक सामान्य और विशिष्ट सार्वजनिक नीतिगत विचारों पर आधारित होना चाहिये।
- इस सिद्धांत का अनुप्रयोग मौलिक अधिकारों, पंथनिरपेक्षता, संघवाद और संविधान की अन्य बुनियादी विशेषताओं के अनुरूप होना चाहिये।
- इस अवधारणा को तभी लागू किया जा सकता है, जब किसी भी मूल विधि में इसके विरुद्ध कोई स्पष्ट प्रतिषेध न हो।
- यद्यपि यह सांविधिक आधार नहीं है, फिर भी न्यायालयों ने कुछ मामलों में तलाक के लिये विद्यमान आधारों की व्याख्या अपूरणीय विघटन के आलोक में की है।