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व्यापारिक सन्नियम

वसीयत संपदा पर ऋण या ब्याज़ के भुगतान की पावती

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 09-Oct-2023

परिचय

पावती लेखक द्वारा यह स्वीकृति है कि उस पर या तो पत्र प्राप्त करने वाले का या किसी अन्य व्यक्ति का, जिसकी ओर से पत्र प्राप्त हुआ है, ऋण बकाया है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है कि वह किसी अन्य से देय ऋण का उल्लेख करता है।

पावती ऐसी होनी चाहिये जिससे भुगतान करने के पूर्ण वादे का अनुमान लगाया जा सके, या विशिष्ट ऋण का भुगतान करने का बिना शर्त वादा किया जा सके, या ऋण चुकाने का सशर्त वादा और सबूत होना चाहिये कि शर्त पूरी की गई है।

धारा 18 के अंतर्गत लिखित पावती का प्रभाव:

(1) जहाँ, किसी संपत्ति या अधिकार के संबंध में किसी मुकदमे या आवेदन के लिये निर्धारित अवधि की समाप्ति से पहले ऐसी संपत्ति या अधिकार के संबंध में दायित्व की स्वीकृति उस पक्ष द्वारा हस्ताक्षरित लिखित रूप में की गई है जिसके खिलाफ ऐसी संपत्ति या अधिकार का दावा किया गया है, या किसी भी व्यक्ति द्वारा जिसके माध्यम से वह अपना शीर्षक या दायित्व प्राप्त करता है, परिसीमा की एक नई अवधि की गणना उस समय से की जाएगी जब पावती पर हस्ताक्षर किये गए थे।

(2) जहाँ पावती वाला लेखन अदिनांकित है, उस समय का मौखिक साक्ष्य दिया जा सकता है जब उस पर हस्ताक्षर किये गए थे; लेकिन भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) के प्रावधानों के अधीन, इसकी सामग्री का मौखिक साक्ष्य प्राप्त नहीं किया जाएगा।

व्याख्या: धारा 18  के प्रयोजनों के लिये-

(a) एक पावती पर्याप्त हो सकती है, हालांकि यह संपत्ति या अधिकार की सटीक प्रकृति को निर्दिष्ट करने से चूक जाती है या इसका विरोध करती है कि भुगतान करने, वितरित करने, प्रदर्शन करने या आनंद लेने की अनुमति देने से इनकार या सेट-ऑफ का दावा किया गया है या संपत्ति या अधिकार के हकदार व्यक्ति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को संबोधित किया गया है;

(b) शब्द "हस्ताक्षरित" का अर्थ व्यक्तिगत रूप से या इस संबंध में विधिवत अधिकृत एजेंट द्वारा हस्ताक्षरित है; और

(c) किसी डिक्री या आदेश के निष्पादन के लिये आवेदन को किसी संपत्ति या अधिकार के संबंध में आवेदन नहीं माना जाएगा।

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 18 का सिद्धांत:

यह धारा इस सिद्धांत पर आधारित है कि वकालत के बंधन को उन मामलों में लागू करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये जिनमें किसी दावे के अस्तित्व को उन व्यक्तियों द्वारा स्वीकार किया जाता है जो दायित्व के अंतर्गत हैं। प्रत्येक स्वीकृति ऋण के अस्तित्व का एक नया प्रमाण देती है।

धारा 18 सीमा की अवधि को नहीं बढ़ाती है बल्कि पावती की तारीख से एक नई अवधि शुरू होती है। प्रतिवादी द्वारा दायित्व की स्वीकृति बाधा सीमा यानी सीमा अवधि के पहले से ही समाप्त हिस्से को रद्द कर देती है और इस तरह की रुकावट की तारीख से सीमा की एक नई अवधि की अनुमति देती है।

हालाँकि, इस तरह की पावती कार्रवाई के मूल कारण को समाप्त नहीं करती है और न ही कोई नया कारण बनाती है। एक पावती केवल ऋण की वसूली करती है।

वैध पावती की आवश्यकताएँ:

सीमा अवधि समाप्त होने से पहले पावती दी जानी चाहिये। इसे सीमा अवधि शुरू होने के बाद और वास्तव में चलने के दौरान बनाया जाना चाहिये।

उत्तरदायित्व की पावती लिखित रूप में होनी चाहिये। इसलियेमौखिक पावती पर्याप्त नहीं है.

पावती पर पावती देने वाले व्यक्ति या उसके विधिवत अधिकृत एजेंट द्वारा हस्ताक्षर किये जाने

पावती उस पक्ष द्वारा दी जानी चाहिये जिसके विरुद्ध किसी संपत्ति या अधिकार का दावा किया गया है या किसी व्यक्ति द्वारा जिसके माध्यम से उसे स्वामित्व या दायित्व प्राप्त हुआ है।

पावती मुकदमे या आवेदन में दावा की गई विशेष संपत्ति या अधिकार के संबंध में होनी चाहिये।

पावती को व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, यह आवश्यक निहितार्थ से हो सकता है।

परिसीमा अधिनियम,1963 की धारा 19 —

ऋण लेखे या वसीयत-सम्पदा का ब्याज लेखे संदाय का प्रभाव-

  • जहाँ कि ऋण या वसीयत-सम्पदा के संदाय के लियेदायी व्यक्ति द्वारा या उसके इस निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा कोई संदाय उस ऋण लेखे या उस वसीयत के ब्याज लेखे विहित काल के अवसान के पूर्व किया जाता है, वहा उस समय से, जब संदाय किया गया था, नया परिसीमा काल संगणित किया जाएगा;
  • परन्तु उस दशा के सिवाय, जिसमें ब्याज का संदाय वर्ष 1928 की जनवरी के प्रथम दिन के पूर्व किया गया था यह तब होगा जब उस संदाय की अभिस्वीकृति, संदाय करने वाले व्यक्ति के हस्तलेख में या उसके द्वारा हस्ताक्षरित लेख में हो।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये-
    (a) जहाँ कि बन्धकित भूमि, बन्धकदार के कब्जे में हो वहां ऐसी भूमि के भाटक या उपज की प्राप्ति संदाय मानी जाएगी:
    (b) “ऋण” के अन्तर्गत वह धन नहीं आता जो न्यायालय की डिक्री या आदेश के अधीन संदेय हो ।

धारा 19 की आवश्यक शर्तें:

  • भुगतान, निर्धारित सीमा अवधि के अंदर किया जाना चाहिये ।
  • इसे किसी न किसी रूप में या तो लिखावट में या उसके द्वारा हस्ताक्षरित कर स्वीकार किया जाना चाहिये । यदि आवश्यक प्रपत्र में कोई पावती नहीं है, तो भुगतान का कोई मतलब नहीं है।
  • "निर्धारित" शब्द का अर्थ पहली अनुसूची में निर्धारित अवधि है, न कि वह अवधि जिसके भीतर वादी अपना मुकदमा दायर कर सकता है।
  • 'कर्ज चुकाने के लियेउत्तरदायी व्यक्ति' शब्द में न केवल वह व्यक्ति शामिल है जो व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी है, बल्कि वह व्यक्ति भी शामिल है जो व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं है, लेकिन जिसकी पारिवारिक संपत्ति में रुचि निहित है।

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 20 :

किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अभिस्वीकृति या संदाय का प्रभाव--

  • धारा 18 या धारा 19 में “इस निमित्त सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता” पद के अन्तर्गत निर्योग्यता के अधीन व्यक्ति की दशा में उसका विधिपूर्ण संरक्षक, सुपुर्ददार या प्रबंधक या अभिस्वीकृति हस्ताक्षर करने अथवा संदाय करने के लिये ऐसे संरक्षक, सुपुर्ददार या प्रबन्धक द्वारा सम्यक् रूप से प्राधिकृत अभिकर्ता आता है ।
    (2) उक्त धाराओं में की गई कोई भी बात अनेक संयुक्त संविदाकर्ताओं, भागीदारों, निष्पादकों या बन्धकदारों में से किसी एक को उनमें से किसी अन्य या किसी अन्यों द्वारा या के अभिकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित लिखित अभिस्वीकृति या किसी किये गए संदाय के कारण ही प्रभार्य नहीं कर देती।
    (3) उक्त धाराओं के प्रयोजनों के लिये-
    (a) सम्पत्ति के किसी परिसीमित स्वामी द्वारा, जो हिन्दू विधि से शासित हो या उसके सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा किसी दायित्व की बाबत हस्ताक्षरित अभिस्वीकृति या किया गया संदाय ऐसे दायित्व को उत्तराधिकार में पाने वाले उत्तरभोगी के विरुद्ध, यथास्थिति, विधिमान्य या अभिस्वीकृति या संदाय होगा, तथा
    (b) वह अभिस्वीकृति या संदाय, जो उस अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब के तत्समय कर्ता या उसके सम्यक् प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा किया गया है उस समस्त कुटुम्ब की ओर से किया गया समझा जाएगा, यदि किसी अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब की उस हैसियत में उसके द्वारा या उसकी ओर से कोई दायित्व उपगत किया गया हो।

विधिक निर्णय:

  • भगवान बनाम माधव (1922):
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि पावती या दायित्व व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है; यह निहितार्थ से हो सकता है।
  • भारत संघ बनाम सेयाडू बीड़ी कंपनी (1970)::
    • मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि बकाया राशि के निपटान के लिये उच्च अधिकारियों को केवल पत्र भेजना ही पावती नहीं है। प्रतिवादी ने मुकदमा दायर करने की सूचना दी जिस पर अपीलकर्ताओं ने जवाब दिया कि मामले की जाँच चल रही है और यदि जाँच से पहले मुकदमा दायर किया जाता है तो प्रतिवादी लागत के लिये जिम्मेदार होंगे। अदालत ने माना कि अपीलकर्ताओं का उत्तर दायित्व की स्पष्ट स्वीकृति नहीं था, और तथ्य दायित्व की निहित स्वीकृति के लिये भी पर्याप्त नहीं थे। इसलिये, सीमा अवधि को नए सिरे से शुरू करने की अनुमति नहीं दी गई।
  • किशोरी इंजीनियरिंग वर्क्स बनाम बैंक ऑफ इंडिया (1991):
    • पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि जहाँ देनदार आंशिक भुगतान कर रहा है, वहाँ सीमा अंतिम आंशिक भुगतान से लागू होगी।