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सांविधानिक विधि

अर्ध-न्यायिक निकाय

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 21-Nov-2025

परिचय 

अर्ध-न्यायिक निकायगैर-न्यायिक संस्थाएँ हैं, जिनके पास विधि की व्याख्या करने का अधिकार होता है, जैसे माध्यस्थम्पैनल या अधिकरण बोर्ड, जिन्हें न्यायालय या न्यायाधीश के समान शक्तियां और प्रक्रियाएं प्रदान की गई हैं।  

  • ये निकाय वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के रूप में कार्य करते हैं तथा राज्य के कार्यकारी और न्यायिक कार्यों के बीच की खाई को पाटते हैं। 
  • उदाहरण के लिये, भारत निर्वाचन आयोग एक अर्ध-न्यायिक निकाय है, परंतु इसकी मूल कार्यप्रणाली एक विधि न्यायालय के रूप में नहीं है 

अर्ध-न्यायिक निकायों की विशेषताएँ 

भारत में अर्ध-न्यायिक निकायों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: 

  • विवाद समाधान:अर्ध-न्यायिक निकायों को मामलों में माध्यस्थम्करने और शास्ति अधिरोपित करने का अधिकार होता है। पक्षकार इन निकायों से न्याय की मांग कर सकते हैं, जिससे औपचारिक न्यायिक प्रणाली की जटिलताओं से बचा जा सकता है। 
  • सीमित न्यायिक शक्तियां:उनकी अधिकारिता सामान्यत: विशेषज्ञता के विशिष्ट क्षेत्रों तक ही सीमित होता है, जैसे वित्तीय बाज़ार, नियोजन विधि, लोक मानक, या नियामक मामले। उदाहरण के लिये, कंपनी विधि अपीलीय अधिकरण कॉर्पोरेट प्रशासन और कार्यप्रणाली से संबंधित विवाद्यकों पर विचार करता है। 
  • पूर्वनिर्धारित नियम:अर्ध-न्यायिक निकायों के निर्णय और निर्णय अक्सर स्थापित नियमों द्वारा निदेशित होते हैं और विद्यमान विधिक ढाँचे पर आधारित होते हैं। 
  • दण्ड प्राधिकरण:इन निकायों के पास अपनी अधिकारिता में उल्लंघनों के लिये शास्ति अधिरोपित करने का अधिकार होता है। उदाहरण के लिये, भारत में उपभोक्ता न्यायालय उपभोक्ता विवादों का निपटारा करते हैं और अवैध क्रियाकलापों में लिप्त कंपनियों को शास्ति देते हैं। 
  • न्यायिक पुनर्विलोकन:अर्ध-न्यायिक निकायों के निर्णयों के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकती है, जिसमें न्यायपालिका का निर्णय सर्वोपरि होगा। 
  • विशेषज्ञ नेतृत्व:न्यायपालिका के विपरीत, जिसकी अध्यक्षता न्यायाधीश करते हैं, अर्ध-न्यायिक निकायों का नेतृत्व सामान्यत: वित्त, अर्थशास्त्र और विधि जैसे सुसंगत क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। 

अर्ध-न्यायिक निकायों की शक्तियां 

अर्ध-न्यायिक निकाय निम्नलिखित शक्तियों का प्रयोग करते हैं: 

  • सुनवाई आयोजित करना:वे साक्ष्य एकत्र करने और साक्षियों के परिसाक्ष्य सुनने के लिये सुनवाई आयोजित कर सकते हैं। 
  • तथ्यात्मक अवधारण:अर्ध-न्यायिक प्राधिकारी सुनवाई में प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर सुसंगत तथ्यात्मक अवधारण कर सकते हैं। 
  • विधि लागू करना:वे अपने द्वारा अवधारित तथ्यों पर विधि लागू कर सकते हैं और संबंधित पक्षकारों के विधिक अधिकारों, कर्त्तव्यों या विशेषाधिकारों के संबंध में निर्णय ले सकते हैं। 
  • आदेश या निर्णय जारी करना:वे ऐसे आदेश या निर्णय जारी कर सकते हैं जिनका विधिक बल हो, जैसे किसी पक्षकार को क्षतिपूर्ति का संदाय करने या कुछ शर्तों का पालन करने की आवश्यकता बताना। 
  • निर्णयों को लागू करना:वे अपने निर्णयों को लागू करने के लिये कदम उठा सकते हैं, जैसे कि अनुपालन न करने पर जुर्माना या अन्य शास्ति अधिरोपित करना 

भारत में प्रमुख अर्ध-न्यायिक निकाय 

भारत में कार्यरत कुछ प्रमुख अर्ध-न्यायिक निकाय निम्नलिखित हैं: 

  • आयकर अपीलीय अधिकरण (ITAT) 
  • दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय अधिकरण (TDSAT) 
  • केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) 
  • लोक अदालत 
  • वित्त आयोग 
  • राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग 
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण 
  • रेलवे दावा अधिकरण 

न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के बीच प्रमुख अंतर 

निम्नलिखित तालिका न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के बीच प्रमुख अंतर दर्शाती है: 

आधार 

न्यायिक निकाय 

अर्ध-न्यायिक निकाय 

अधिकार 

यह एक न्यायालय है जिसके पास विधि की व्याख्या करने और उसे लागू करने, मामलों की सुनवाई करने और निर्णय देने तथा निर्णयों को लागू करने का अधिकार है। 

यह एक अभिकरण या अधिकरण है जो न्यायालय की तरह कार्य करता है, विवादों का निपटारा करता है और निर्णयों को लागू करता है। 

स्वतंत्रता 

यह सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं से स्वतंत्र है और विधि के शासन को बनाए रखने के लिये उत्तरदायी है। 

यह पूर्ण न्यायालय नहीं है और इसकी स्वतंत्रता कम है। सरकार की कार्यपालिका और विधायी शाखाओं का इस पर अधिक नियंत्रण है।  

अधिकारिता 

उनके पास सिविल और आपराधिक मामलों सहित विभिन्न प्रकार के मामलों की सुनवाई का अधिकार है। 

उनकी अधिकारिता सीमित है और वे केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई कर सकते हैं जो उनकी विशेषज्ञता या विषय-वस्तु के विशिष्ट क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। 

निर्णय लेने का आधार 

उनके पास नए विधिक पूर्व निर्णय स्थापित करने की शक्ति है जिनका उपयोग भविष्य के मामलों में किया जा सकता है। 

उनके निर्णय विशिष्ट मामले पर विद्यमान विधियों को लागू करने तक सीमित होते हैं। 

न्यायाधीशों 

इसमें सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश या न्यायिक मजिस्ट्रेट सम्मिलित होते हैं। 

इसमें सरकार या किसी विशेष अभिकरण द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों और विशेषज्ञों का संयोजन सम्मिलित हो सकता है। 

कठोरता 

ये सामान्यतः अधिक औपचारिक होते हैं तथा कठोर प्रक्रिया-नियमों का अनुपालन करते हैं। 

ये तुलनात्मक रूप से कम औपचारिक होते हैं, किंतु निर्धारित प्रक्रिया एवं साक्ष्य-नियमों का अनुपालन आवश्यक होता है। 

निष्कर्ष 

अर्ध-न्यायिक निकाय भारतीय न्याय व्यवस्था में विवादों के समाधान के लिये विशिष्ट मंच प्रदान करके और पारंपरिक न्यायालयों पर भार कम करके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यद्यपि उनके पास न्यायालयों के समान शक्तियां होती हैं, किंतु उनकी सीमित अधिकारिता और विषय-वस्तु विशेषज्ञता उन्हें प्रशासनिक न्याय के लिये प्रभावी साधन बनाती है। इन निकायों के निर्णय न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन रहते हैं, जिससे जवाबदेही और विधि के शासन का पालन सुनिश्चित होता है।