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सांविधानिक विधि
अनुच्छेद 200 के अधीन विधेयकों को रोकने की राज्यपाल की शक्ति
« »21-Nov-2025
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"अनुच्छेद 200 के प्रथम परंतुक में वर्णित संवादात्मक प्रक्रिया का पालन किये बिना राज्यपाल को विधेयक को रोकने की अनुमति देना संघवाद के सिद्धांत के विरुद्ध होगा तथा राज्य विधानमंडलों की शक्तियों का हनन होगा।" मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने राज्यपाल और भारत के राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर अनुमति, रोके रखना या आरक्षण (2025) के संबंध में निर्णय दिया कि राज्यपाल किसी विधेयक को राज्य विधानमंडल को वापस किये बिना उसे अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते, क्योंकि अनुच्छेद 200 के अधीन ऐसी शक्ति मौजूद नहीं है और यह संघवाद के सांविधानिक सिद्धांतों के विपरीत होगा।
भारत के राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर अनुमति, रोक या आरक्षण (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- राष्ट्रपति संदर्भ, राज्य विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों के संबंध में सांविधानिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिये बनाया गया था।
- ऐसे मामलों को लेकर विवाद्यक सामने आए जहाँ राज्यपालों ने न तो विधेयकों को मंजूरी दी और न ही उन्हें विधानमंडल को वापस भेजा, जिससे निष्क्रियता के कारण निर्माण प्रक्रिया प्रभावी रूप से अवरुद्ध हो रही थी।
- इस बात पर प्रश्न उठे कि क्या राज्यपालों के पास बिना कोई और कार्रवाई किये विधेयकों पर अनुमति को रोकने की "सरल" शक्ति है।
- अनुच्छेद 200 के सांविधानिक निर्वचन के लिये इस बात पर स्पष्टता की आवश्यकता थी कि क्या "अनुमति रोकना" तीन स्पष्ट रूप से उल्लिखित विकल्पों के सिवाय राज्यपाल के लिये उपलब्ध एक स्वतंत्र चौथा विकल्प था।
- राज्य विधानमंडल की शक्तियों और संघीय सिद्धांतों पर अनिश्चितकालीन रोक के प्रभाव के बारे में चिंताएँ व्यक्त की गईं।
- केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि विधेयक को विधानसभा में वापस भेजना राज्यपाल के लिये उपलब्ध एक अतिरिक्त चौथा विकल्प था, क्योंकि इस कदम का उल्लेख अनुच्छेद 200 के प्रथम परंतुक में ही किया गया था।
- इस बात को लेकर भी प्रश्न उठे कि क्या राज्यपालों/राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को अनुमति देने के लिये न्यायिक रूप से विहित समय-सीमा तय की जा सकती है और क्या " डीम्ड अनुमति" की कोई अवधारणा विद्यमान है।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
राज्यपाल के पास चार नहीं, केवल तीन विकल्प हैं:
- न्यायालय ने अनुच्छेद 200 की संरचना की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि जब कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल के पास केवल तीन सांविधानिक विकल्प होते हैं: अनुमति देना, इसे राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रखना, या विधेयक को टिप्पणियों के साथ विधानमंडल को वापस भेजकर अनुमति रोक लेना।
- पीठ ने केंद्र सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि विधेयक को विधानसभा में वापस भेजना चौथा विकल्प है, तथा इसके स्थान पर ऐसे निर्वचन को प्राथमिकता दी जो प्रथम परंतुक को अनुच्छेद 200 के मुख्य पाठ से बांधती है।
विधेयक को रोकने की कोई सरल शक्ति नहीं:
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से उस निर्वचन को नामंजूर कर दिया, जो "अनुमति रोकने" को एक स्वतंत्र शक्ति मानती है, जो राज्यपाल को किसी विधेयक को बिना कार्रवाई के पारित होने देने की अनुमति देती है।
- न्यायालय ने विधेयक को रोकने की सरल शक्ति के विरुद्ध महत्तवपूर्ण सांविधानिक तर्क का उल्लेख किया: "प्रथम परंतुक राज्यपाल को विधेयक को सदन में वापस भेजने से वंचित करता है, यदि वह धन विधेयक है। इसलिये, धन विधेयक के मामले में राज्यपाल का विकल्प विधेयक को अनुमति देने या उसे राष्ट्रपति के पास सुरक्षित रखने तक सीमित है। यद्यपि, यदि विधेयक को रोकने का विकल्प अनुच्छेद 200 के मूल भाग में पढ़ा जाता है, तो धन विधेयक को भी सरलता से रोका जा सकता है, जिसे पढ़कर, हमारी राय में, सांविधानिक तर्क का उल्लंघन होता है।"
अनिवार्य संवाद प्रक्रिया :
- न्यायालय के निर्वचन के अनुसार, यदि राज्यपाल अपनी सहमति वापस लेना चाहते हैं, तो उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिये टिप्पणियों के साथ विधानमंडल को वापस भेजना होगा।
- एक बार जब विधानमंडल विधेयक को संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के पुनः पारित कर देता है, तो राज्यपाल "उस पर अपनी अनुमति नहीं रोकेंगे।"
- अनुच्छेद 200 का प्रथम परंतुक राज्यपाल और विधानमंडल के बीच संवाद प्रक्रिया को अनिवार्य बनाता है, जो भारतीय संघवाद की सहयोगात्मक भावना को बनाए रखने के लिये आवश्यक है।
संघवाद के सिद्धांत:
- न्यायालय ने कहा: "अनुच्छेद 200 के प्रथम परंतुक में वर्णित संवादात्मक प्रक्रिया का पालन किये बिना राज्यपाल को विधेयक को रोकने की अनुमति देना संघवाद के सिद्धांत के विरुद्ध होगा तथा राज्य विधानमंडलों की शक्तियों का हनन होगा।"
- न्यायालय ने संघवाद को संविधान की मूल संरचना मानने वाले पूर्व निर्णयों का हवाला दिया।
अवरोधवाद पर संवाद:
- न्यायालय ने कहा कि यदि दो निर्वचन संभव हैं, तो ऐसे निर्वचन को प्राथमिकता दी जानी चाहिये जो सांविधानिक संस्थाओं के बीच संस्थागत सौहार्द और विचार-विमर्श को प्रोत्साहित करने वाली संवादात्मक प्रक्रिया का पक्षधर हो।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "बाधा नहीं, अपितु संवाद, सामंजस्य और संतुलन ही सांविधानिकता का सार है जिसका हम इस गणराज्य में पालन करते हैं।"
कोई समयसीमा या डीम्ड अनुमति नहीं:
- पीठ ने कहा कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को अनुच्छेद 200/201 के अधीन विधेयकों पर निर्णय लेने के लिये न्यायिक रूप से विहित समयसीमा के अधीन नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान के अनुसार विधेयकों की "डीम्ड अनुमति" की कोई अवधारणा नहीं है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 क्या है?
बारे में:
- अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों पर अनुमति से संबंधित है।
- जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल के पास उससे निपटने के लिये कुछ सांविधानिक विकल्प होते हैं।
- अनुच्छेद 200 एक महत्त्वपूर्ण उपबंध है जो विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल और राज्य विधानमंडल के बीच संबंधों को परिभाषित करता है।
- यह उपबंध संघीय सिद्धांतों को बनाए रखते हुए सांविधानिक ढाँचे में जांच और संतुलन की प्रणाली को दर्शाता है।
अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के पास उपलब्ध विकल्प:
- विधेयक पर अनुमति: राज्यपाल विधेयक पर अनुमति की घोषणा कर सकते हैं, जिससे वह अधिनियम बन जाएगा।
- अनुमति रोकना: राज्यपाल विधेयक पर अनुमति रोक सकता है, किंतु ऐसा पुनर्विचार के लिये टिप्पणियों के साथ उसे विधानमंडल को वापस भेजकर किया जाना चाहिये (धन विधेयक के मामले के सिवाय)।
- राष्ट्रपति के लिये आरक्षित: राज्यपाल विधेयक को भारत के राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रख सकता है।
धन विधेयकों के लिये विशेष उपबंध:
- धन विधेयक के मामले में राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिये सदन में वापस नहीं भेज सकते।
- धन विधेयक के लिये राज्यपाल का विकल्प या तो विधेयक पर अनुमति देने या उसे राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रखने तक सीमित है।
प्रथम परंतुक- संवाद प्रक्रिया:
- यदि राज्यपाल अपनी अनुमति वापस ले लेते हैं और विधेयक को टिप्पणियों के साथ वापस कर देते हैं, तो सदन को विधेयक पर पुनर्विचार करना होगा।
- विधानमंडल संशोधन के साथ या बिना संशोधन के विधेयक को पुनः पारित कर सकता है।
- जब विधेयक विधानमंडल द्वारा पुनः पारित कर दिया जाएगा और राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, तो "वह उस पर अपनी अनुमति देने से नहीं रोकेंगे।"
- इससे राज्यपाल और विधानमंडल के बीच एक अनिवार्य संवाद प्रक्रिया बनती है।
संवैधानिक महत्त्व:
- अनुच्छेद 200 भारतीय संघवाद की सहकारी भावना का उदाहरण है।
- यह अवरोधवाद के बजाय संवाद और सुलह पर बल देते हुए एक नियंत्रण और संतुलन मॉडल स्थापित करता है।
- यह उपबंध यह सुनिश्चित करता है कि राज्य विधानमंडल अपनी सांविधानिक शक्तियां बरकरार रखें, जबकि राज्यपाल को विधायी प्रक्रिया में भूमिका प्रदान की जाए।
- संवाद प्रक्रिया राज्यपाल या विधानमंडल द्वारा सत्ता के मनमाने प्रयोग को रोकती है।
अनुच्छेद 201 के साथ संबंध:
- अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयकों से संबंधित है।
- जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखता है, तो राष्ट्रपति या तो विधेयक पर अपनी अनुमति दे सकता है, अपनी अनुमति रोक सकता है, या राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिये विधानमंडल को वापस भेजने का निर्देश दे सकता है।
- अनुच्छेद 200 और 201 मिलकर राज्य विधान को अनुमति प्रदान करने के लिये सांविधानिक ढाँचा तैयार करते हैं।