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आपराधिक कानून
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के अधीन मंजूरी
« »24-Nov-2025
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"किसी लोक सेवक पर अभियोजन चलाने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के अधीन दी गई मंजूरी में सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्पष्ट विवेक का प्रयोग प्रतिबिंबित होना चाहिये तथा यह अस्पष्ट या यांत्रिक कथनों पर आधारित नहीं होनी चाहिये।" न्यायमूर्ति संजय करोल और एन. कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
रॉबर्ट लालचुंगनुंगा चोंग्थू उर्फ़ आरएल चोंग्थू बनाम बिहार राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने एक IAS अधिकारी की अपील को स्वीकार कर लिया और पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया, जिसमें कहा गया कि मंजूरी आदेश उचित विचार-विमर्श के बिना पारित किया गया था, और पूरक आरोप पत्र अत्यधिक विलंब के पश्चात् दायर किया गया था।
रॉबर्ट लालचुंगनुंगा चोंगथु उर्फ़ आरएल चोंगथु बनाम बिहार राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध 2005 में सहरसा, बिहार में एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी, जो 2002-2005 के दौरान जिला मजिस्ट्रेट-सह-लाइसेंसिंग प्राधिकारी के रूप में कार्यरत था।
- आरोप यह था कि अपीलकर्त्ता ने उचित पुलिस सत्यापन के बिना ही मिथ्या और शारीरिक रूप से अयोग्य व्यक्तियों को आयुध लाइसेंस जारी कर दिये थे।
- 2006 में की गई प्रारंभिक अन्वेषण में अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त करार दिया गया तथा उसके विरुद्ध लगाए गए आरोपों को "मिथ्या" बताया गया।
- 2009 में, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मामले में आगे के अन्वेषण की अनुमति दी।
- 11 वर्षों के अंतराल के बाद, 2020 में, अन्वेषण अभिकरण ने अधिकारी को अभियुक्त के रूप में नामित करते हुए एक पूरक आरोपपत्र दायर किया।
- दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 197 के अधीन अभियोजन की मंजूरी 2022 में दी गई।
- अपीलकर्त्ता ने पटना उच्च न्यायालय में कार्यवाही को चुनौती दी, जिसने दोषपूर्ण मंजूरी आदेश के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने से इंकार कर दिया।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं ?
- न्यायालय ने कहा कि किसी लोक सेवक पर अभियोजन चलाने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 197 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 218) के अधीन मंजूरी अस्पष्ट या यांत्रिक कथनों पर आधारित नहीं हो सकती है और इसमें सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्पष्ट विवेक का प्रयोग प्रतिबिंबित होना चाहिये।
- पीठ ने कहा कि, "मंजूरी देने या अस्वीकार करने वाले प्राधिकारियों द्वारा विवेक का प्रयोग स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिये, जिसमें निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उनके समक्ष रखे गए साक्ष्य पर विचार करना भी सम्मिलित है।"
- न्यायालय ने कहा कि संज्ञान से पहले दी जाने वाली मंजूरी का घोषित उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपने लोक कर्त्तव्य का निर्वहन कर रहे अधिकारियों पर आपराधिक अभियोजन चलाने का खतरा न मंडराए।
- निर्णय में कहा गया कि यदि मंजूरी अस्पष्ट कथनों जैसे कि "उपलब्ध केस डायरी में उल्लिखित दस्तावेज़ों और साक्ष्यों के अवलोकन" पर आधारित है, तो यह संरक्षण समाप्त हो जाएगा।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि मंजूरी आदेश में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के सार को छुआ गया था और यह तथ्य भी कि अपीलकर्त्ता एक लोक सेवक है, जो इसके अंतर्गत आएगा, "तथापि मंजूरी देने वाले प्राधिकारी द्वारा इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया कि मंजूरी की आवश्यकता क्यों है।"
- पीठ ने मंजूरी आदेश को "विधि की दृष्टि से खराब तथा अपास्त किया जाना चाहिये" घोषित किया तथा इसके परिणामस्वरूप संज्ञान लेने के आदेश सहित सभी परिणामी कार्रवाइयों को रद्द कर दिया।
- न्यायालय ने आगे की अन्वेषण के लिये, लिये गए 11 वर्षों के "अनुचित रूप से लंबे समय" की निंदा करते हुए कहा कि अपीलकर्त्ता पर "इन सभी वर्षों से आपराधिक अन्वेषण का बादल मंडरा रहा था।"
- इस बात की पुष्टि करते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन त्वरित विचारण का अधिकार अन्वेषण प्रक्रम को भी शामिल करता है, न्यायालय ने कहा कि "अन्वेषण अंतहीन रूप से जारी नहीं रह सकता।"
- पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि अभियुक्त को "अन्वेषण जारी रखने की धमकी देकर अंतहीन रूप से पीड़ित नहीं किया जा सकता है" और कहा कि विलंब की कार्यवाही को रद्द करने के लिये पर्याप्त आधार है।
- न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया और अपील को मंजूरी दे दी।
भारती नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 218 क्या है?
धारा 218 - न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन
संरक्षण का दायरा:
- यह न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और सरकारी कर्मचारियों पर लागू होता है, जिन्हें सरकारी मंजूरी के बिना पद से हटाया नहीं जा सकता।
- संरक्षण में ऐसे अपराध सम्मिलित हैं जो कथित रूप से पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय या कार्य करने का दावा करते समय किये गए हों।
- न्यायालय पूर्व अनुमति के बिना ऐसे अपराधों का संज्ञान नहीं ले सकते।
मंजूरी की आवश्यकताएँ:
- संघ के मामलों के संबंध में नियोजित व्यक्तियों के लिये केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक है।
- राज्य के मामलों के संबंध में नियोजित व्यक्तियों के लिये राज्य सरकार की मंजूरी आवश्यक है।
- राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के दौरान, राज्य कर्मचारियों के लिये भी केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक थी।
मंजूरी निर्णय की समय सीमा:
- सरकार को मंजूरी अनुरोध पर प्राप्ति के 120 दिनों के भीतर निर्णय लेना होगा।
- यदि 120 दिनों के भीतर कोई निर्णय नहीं लिया जाता है तो मंजूरी स्वतः ही प्रदान कर दी गई मानी जाएगी।
अपवाद - किसी मंजूरी की आवश्यकता नहीं:
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की विशिष्ट धाराओं के अंतर्गत अपराधों के लिये: धारा 197, 198, 63, 66, 68, 70, 73, 74, 75, 76, 77, 141, या 351।
- लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के अंतर्गत भी अपवाद का प्रावधान है।
सशस्त्र बल सुरक्षा:
- सशस्त्र बलों के सदस्यों के लिये केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना कोई संज्ञान नहीं।
- राज्य सरकार अधिसूचना के माध्यम से लोक व्यवस्था बनाए रखने वाले बलों को यह संरक्षण प्रदान कर सकती है।
- राष्ट्रपति शासन के दौरान, राज्य बलों के लिये भी केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक होती है।
अभियोजन नियंत्रण:
- केंद्र/राज्य सरकार यह अवधारित कर सकती है कि अभियोजन कौन करेगा।
- सरकार अभियोजन के तरीके और अभियोजन किये जाने वाले विशिष्ट अपराधों को निर्दिष्ट कर सकती है।
- सरकार उस न्यायालय को नामित कर सकती है जहाँ विचारण चलाया जाएगा।