होम / किशोर न्याय अधिनियम
आपराधिक कानून
सम्पूर्णा बेहुरा बनाम भारत संघ (2018)
«21-Nov-2025
परिचय
यह एक ऐतिहासिक जनहित याचिका निर्णय है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने भारत भर में किशोर न्याय विधियों को लागू करने में प्रणालीगत असफलता को संबोधित किया और बाल अधिकारों के प्रभावी संरक्षण और किशोर न्याय अधिनियम के अधीन संस्थानों के उचित संचालन को सुनिश्चित करने के लिये व्यापक निदेश जारी किये।
- यह निर्णय न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा दिया गया।
तथ्य
- समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त सम्पूर्णा बेहुरा ने 2005 में संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन एक रिट याचिका दायर की थी, जिसमें किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के गैर-कार्यान्वयन पर प्रकाश डाला गया था।
- याचिका में बालकों के बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा के लिये राज्य पर उत्तरदायित्त्व थोपने वाले सांविधानिक प्रावधानों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया तथा बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय का संदर्भ दिया गया।
- मुख्य चिंताओं में बाल कल्याण समितियां, किशोर न्याय बोर्ड, विशेष किशोर पुलिस इकाइयाँ, बालकों के लिये उपयुक्त गृह तथा अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाएँ स्थापित करने में राज्य सरकारों की असफलता शामिल थी।
- 2006 और 2016 के बीच, कई मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलनों ने राज्यों से आवश्यक संस्थान स्थापित करने का आग्रह करते हुए प्रस्ताव पारित किए, फिर भी अधिनियम लागू होने के एक दशक बाद भी अनुपालन कमज़ोर रहा।
- न्यायालय ने इन विवाद्यकों के समाधान में सहायता के लिये राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को भी इसमें सम्मिलित किया।
- किशोर न्याय अधिनियम, 2015 ने 2000 के अधिनियम का स्थान ले लिया, किंतु याचिका में उठाए गए मुख्य विवाद्यक सुसंगत बने रहे।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या राज्य सरकारों ने किशोर न्याय विधियों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये अपने सांविधानिक और सांविधिक दायित्त्वों को पूरा किया है?
- किशोर न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समितियों और संबंधित संस्थाओं की उचित स्थापना और कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिये क्या निदेश जारी किये जाने चाहिये?
- बाल देखभाल संस्थानों में रहने की स्थिति में सुधार लाने और बालकों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये कौन से उपाय आवश्यक हैं?
न्यायालय की टिप्पणियां
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायिक हस्तक्षेप के बिना आवाजहीन बालकों को अक्सर न्याय नहीं मिल पाता, जिससे न्यायिक सक्रियता के आरोपों के होते हुए भी सुधारात्मक न्यायिक कार्रवाई आवश्यक हो जाती है।
- न्यायालय ने नेल्सन मंडेला के उस वक्तव्य पर गौर किया जिसमें उन्होंने बालकों को समाज की सबसे बड़ी धरोहर बताया था और कहा था कि उनकी देखरेख करना एक सांविधानिक दायित्त्व है, न कि कोई उपकार।
- न्यायालय ने पाया कि अनेक प्रस्तावों के होते हुए भी, राज्य सरकारों ने संसद द्वारा पारित विधियों का पूर्णतः अनुपालन नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप बालकों के प्रति सरकारी उदासीनता बनी रही।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (SCPCR) महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं, जिनमें पर्याप्त स्टाफ होना चाहिये और उन्हें महत्त्व दिया जाना चाहिये, किंतु रिक्तियाँ अक्सर महीनों तक खाली रहती हैं।
- न्यायालय ने कहा कि कई जिलों में किशोर न्याय बोर्डों में दैनिक बैठकें नहीं होतीं, जिसके कारण बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं - अकेले उत्तर प्रदेश में 34,569 मामले लंबित हैं।
- न्यायालय ने कहा कि बाल कल्याण समितियों को अनियमित संदाय और खराब बुनियादी ढाँचे के साथ "द्वितीय श्रेणी के निकायों" के रूप में माना जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण केंद्रों में कंप्यूटर और प्रौद्योगिकी की भारी कमी है, जिससे गुमशुदा बालकों और तस्करी के मामलों का पता लगाने में बाधा आ रही है।
- न्यायालय ने पाया कि अनेक बाल देखरेख संस्थान दयनीय स्थिति में हैं, जिनमें से कुछ को "जेल से भी बदतर" बताया गया है, तथा उनमें पौष्टिक भोजन, पेयजल और उचित स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है।
- न्यायालय ने पाया कि कई राज्यों ने या तो किशोर न्याय कोष की स्थापना नहीं की है या फिर उन्हें बहुत कम धनराशि से वित्त पोषित किया है।
न्यायालय के निदेश
- उच्चतम न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये व्यापक निदेश जारी किये।
- न्यायालय ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR), राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (SCPCR), किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समितियों में सभी पदों को पर्याप्त स्टाफ और बुनियादी ढाँचे के साथ शीघ्रता से भरने का निदेश दिया।
- न्यायालय ने लंबित जांचों को न्यूनतम करने के लिये किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समितियों की नियमित बैठकें अनिवार्य कर दीं और आवश्यक परिवीक्षा अधिकारियों का अनुमान लगाने के लिये समयबद्ध अध्ययन करने का निदेश दिया।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्धारित कर्त्तव्यों के साथ विशेष किशोर पुलिस इकाइयों और बाल कल्याण पुलिस अधिकारियों की सार्थक स्थापना और पुलिस प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में बाल अधिकारों को सम्मिलित करने का निदेश दिया।
- न्यायालय ने सभी बाल देखरेख संस्थानों का रजिस्ट्रीकरण करने, उनकी निगरानी के लिये आगंतुकों की नियुक्ति करने तथा किशोर न्याय निधि में पर्याप्त आवंटन करने का निदेश दिया।
- न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) से व्यापक कार्यान्वयन रिपोर्ट तैयार करने तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से कार्यान्वयन की निगरानी के लिये स्वतः कार्यवाही दर्ज करने का अनुरोध किया।
- न्यायालय ने संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ कार्यवाही करने के लिये प्रत्येक जिले में बाल-अनुकूल न्यायालयों और संवेदनशील साक्षी न्यायालयों की स्थापना का आग्रह किया।
निष्कर्ष
यह ऐतिहासिक निर्णय पूरे भारत में किशोर न्याय विधि के प्रभावी कार्यान्वयन और बालकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिये व्यापक न्यायिक हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व करता है।