करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
आपराधिक कानून
वयस्क ईसाई पुत्री को भरणपोषण
07-Nov-2025
|
वर्गीस कुरुविला उर्फ़ सनी कुरुविला बनाम एनी वर्गीस और अन्य “एक वयस्क अविवाहित ईसाई पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के अधीन अपने पिता से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है, जब तक कि वह शारीरिक या मानसिक असमर्थता के कारण स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ न हो।” डॉ. न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, डॉ. न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने निर्णय दिया कि एक वयस्क ईसाई पुत्री दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के अधीन भरणपोषण का दावा नहीं कर सकती है, जब तक कि वह शारीरिक या मानसिक असामन्यता के कारण स्वयं को बनाए रखने में असमर्थ न हो, जबकि पत्नी के लिये भरणपोषण और उसके शैक्षिक व्यय के दावे को बरकरार रखा।
- केरल उच्च न्यायालय ने वर्गीस कुरुविला उर्फ़ सनी कुरुविला बनाम एनी वर्गीस एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
वर्गीस कुरुविला उर्फ़ सनी कुरुविला बनाम सनी वर्गीस और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ता, वर्गीस कुरुविला उर्फ सनी कुरुविला, उम्र 65 वर्ष, प्रथम प्रत्यर्थी, एनी वर्गीस, उम्र 50 वर्ष, के पति और द्वितीय प्रत्यर्थी, संजना सारा वर्गीस, उम्र 27 वर्ष, के पिता हैं। सभी पक्षकार ईसाई हैं और रॉयल कोरोनेट, करकमुरी क्रॉस रोड, एर्नाकुलम साउथ, कोच्चि में रहते हैं।
- प्रत्यर्थियों (पत्नी और पुत्री) ने 2017 के M.C. No. 306 में कुटुंब न्यायालय, एर्नाकुलम के समक्ष याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध भरणपोषण की कार्यवाही शुरू की। प्रथम प्रत्यर्थी ने 30,000 रुपए की दर से मासिक भरणपोषण का दावा किया, जबकि द्वितीय प्रत्यर्थी ने 15,000 रुपए प्रति माह की मांग की।
- सुनवाई के बाद, कुटुंब न्यायालय ने दिनांक 09.03.2021 के आदेश के अधीन प्रथम प्रत्यर्थी (पत्नी) को 20,000/- रुपए और द्वितीय प्रत्यर्थी (पुत्री) को 10,000/- रुपए मासिक भरणपोषण प्रदान किया। इसके अतिरिक्त, कुटुंब न्यायालय ने प्रथम प्रत्यर्थी को जनवरी 2017 से अप्रैल 2017 तक की अवधि के दौरान द्वितीय प्रत्यर्थी के शैक्षिक व्यय के लिये 30,000/- रुपए प्रदान करने का आदेश दिया।
- कुटुंब न्यायालय के आदेश से व्यथित होकर, याचिकाकर्त्ता ने मुख्य रूप से तीन आधारों पर, केरल उच्च न्यायालय, एर्नाकुलम के समक्ष वर्तमान पुनरीक्षण याचिका ((R.P.(F.C.) No. 157/2021) दायर की:
- (i) पुत्री के दावे की स्वीकार्यता: याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि चूँकि द्वितीय प्रत्यर्थी याचिका दायर करने की तिथि पर वयस्क थी, इसलिये वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के अधीन भरणपोषण का दावा करने की हकदार नहीं थी।
- (ii) पत्नी द्वारा परित्याग: याचिकाकर्त्ता ने प्रस्तुत किया कि प्रथम प्रत्यर्थी बिना पर्याप्त कारण के पृथक् रह रहा है, उसने उसे छोड़ दिया है, और इसलिये वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(4) (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144(4)) के अधीन भरणपोषण के लिये हकदार नहीं है।
- (iii) पत्नी के स्वतंत्र साधन: याचिकाकर्त्ता ने दावा किया कि प्रथम प्रत्यर्थी कार्यरत थी और उसके पास अपना भरणपोषण करने के लिये पर्याप्त साधन थे, जिससे वह भरणपोषण का दावा करने से वंचित हो गई।
- साक्ष्यों से पता चला कि प्रथम प्रत्यर्थी 2017 से याचिकाकर्त्ता से दूर मुंबई में रह रही थी। उसने बताया कि उसका छोटा पुत्र, जो बीमार था, मुंबई में पढ़ाई कर रहा था और वह उसकी पढ़ाई और इलाज के लिये वहाँ रह रही थी।
- याचिकाकर्त्ता ने अपने शपथपत्र में स्वीकार किया कि वह ए.जी.एल. इंटरनेशनल रिक्रूटिंग एजेंसी का स्वामी है और रॉयल कोरोनेट में उसके दो फ्लैट हैं, जिनकी कुल कीमत 90,00,000 रुपए है। उसके बैंक खाते के विवरण से पता चला कि वह औसतन 60,000 रुपए मासिक निकालता है।
- प्रथम प्रत्यर्थी ने साक्ष्य में स्वीकार किया कि वह कभी-कभी अंशकालिक काम करती थी। अभिलेखों में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था जिससे यह सिद्ध होता हो कि उसके पास स्थायी नौकरी थी और उसकी आय स्थिर थी।
- साक्ष्यों से पता चला कि द्वितीय प्रत्यर्थी एक प्रैक्टिसिंग अधिवक्ता थी। ऐसा कोई मामला नहीं बना कि उसे कोई शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति हुई हो जिससे वह अपना भरणपोषण करने में असमर्थ हो।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) एक वयस्क अविवाहित पुत्री को भरण-पोषण तभी दे सकती है जब वह शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरणपोषण करने में असमर्थ हो। चूँकि द्वितीय प्रत्यर्थी एक अधिवक्ता थी और उसे ऐसी कोई असमर्थता नहीं थी, इसलिये वह भरणपोषण पाने की हकदार नहीं थी।
- न्यायालय ने कहा कि हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम और मुस्लिम पर्सनल लॉ के विपरीत, ईसाइयों पर लागू होने वाला कोई ऐसा पर्सनल लॉ नहीं है जो अविवाहित वयस्क पुत्री को अपने पिता से भरणपोषण का दावा करने का अधिकार देता हो। मैथ्यू वर्गीस बनाम रोसम्मा वर्गीस मामले में पूर्ण पीठ के निर्णय में केवल ईसाई पिताओं को ही अवयस्क बालकों का भरणपोषण करने का दायित्त्व दिया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि एक माता के माता-पिता होने के दायित्त्व को सामान्यत: उसके वैवाहिक दायित्त्व से कहीं अधिक व्यापक माना जाता है। जब एक पत्नी अपने बीमार पुत्र के बेहतर इलाज और शिक्षा के लिये अपने पति से पृथक् रहती है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(4) के अधीन भरणपोषण के अधिकार से वंचित करने के पर्याप्त कारण के बिना पृथक् रह रही है।
- न्यायालय ने कहा कि "स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ" होने का अर्थ यह नहीं है कि पत्नी निर्धन हो। भले ही पत्नी कमाने में सक्षम हो या कुछ कमा रही हो, यह उसे भरणपोषण का दावा करने से वंचित नहीं करता। कसौटी यह है कि क्या वह उस स्थिति में अपना भरण-पोषण कर सकती है जिसमें उसके पति ने उसका भरण-पोषण किया था।
- न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णयों पर विश्वास करते हुए कहा कि केवल इसलिये कि पत्नी स्थायी नियोजन और स्थिर आय के बिना अंशकालिक काम कर रही थी, उसके भरणपोषण के दावे को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता।
- न्यायालय ने कहा कि स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ पत्नी द्वारा किये गए भरणपोषण के दावे में आश्रित बालक की शिक्षा पर किये गए खर्च भी सम्मिलित हैं, भले ही बालक वयस्क हो। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 ऐसी स्थिति को नहीं रोकती है।
- भर्ती एजेंसी के स्वामी, 90,00,000 रुपए मूल्य के फ्लैटों के स्वामी तथा 60,000 रुपए की औसत मासिक निकासी के साथ याचिकाकर्त्ता की वित्तीय क्षमता को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने कहा कि पत्नी को 20,000 रुपए मासिक भरणपोषण तथा शिक्षा व्यय के लिये 30,000 रुपए देना बहुत ही उचित है तथा इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
वयस्क ईसाई पुत्री के भरणपोषण के विधिक उपबंध क्या हैं?
- सांविधिक प्रावधान: भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144(1)(ग) में उपबंध है कि किसी व्यक्ति को अपनी धर्मज या अधर्मज संतान (विवाहित पुत्री के सिवाय) जो वयस्क हो गई है, का भरण-पोषण तभी करना चाहिये, जब ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ हो।
- सशर्त अधिकार: यह उपबंध वयस्क संतान के लिये भरणपोषण का दावा करने का एक सशर्त अधिकार प्रदान करता है। यह शर्त शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति की उपस्थिति है जो स्वयं भरण-पोषण करने से रोकती है।
- वयस्क पुत्रियों के लिये सामान्य नियम: एक अविवाहित ईसाई पुत्री जो वयस्क हो गई है, वह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 के अधीन अपने पिता से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है, जब तक कि वह शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ न हो।
- ईसाई पर्सनल लॉ का अभाव: हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (धारा 20(3)) और मुस्लिम पर्सनल लॉ के विपरीत, जो पिता को वयस्क होने के बाद भी अविवाहित पुत्रियों का भरणपोषण करने के लिये आबद्ध करता है, ईसाइयों के लिये वयस्क पुत्रियों के भरणपोषण के लिये कोई समान पर्सनल लॉ लागू नहीं है।
- केरल उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ का पूर्व निर्णय: मैथ्यू वर्गीस बनाम रोसम्मा वर्गीस [2003 (3) के.एल.टी. 6 (एफ.बी.)] घोषित करती है कि एक ईसाई पिता केवल अपनी अवयस्क संतान का भरणपोषण करने के लिये आबद्ध है, वयस्क पुत्रियों का नहीं।
- सबूत का भार: वयस्क ईसाई पुत्री को यह साबित करना होगा कि वह शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति से पीड़ित है, जिसके कारण वह अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है। केवल अविवाहित होना या बेरोज़गारी होना पर्याप्त नहीं है।
- सक्षम वयस्क पुत्री - कोई अधिकार नहीं: जहाँ एक वयस्क ईसाई पुत्री किसी भी शारीरिक या मानसिक असमर्थता के बिना कार्यरत है या किसी वृत्ति (जैसे अधिवक्ता) कर रही है, वह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 के अधीन भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है।
- पत्नी के भरण-पोषण से भेद: धारा 144(1)(क) शारीरिक या मानसिक असामान्यता के सबूत की आवश्यकता के बिना स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करती है, जो वयस्क संतान के दावों के लिये कठोर शर्तों को प्रदर्शित करती है।
- विधायी आशय: इस उपबंध का उद्देश्य केवल उन वयस्क संतान की रक्षा करना है, जो शारीरिक या मानसिक असमर्थता के कारण माता-पिता पर निर्भर रहते हैं, न कि उन सक्षम वयस्क संतान की जो स्वयं का भरणपोषण करने में सक्षम हैं।
- न्यायिक विस्तार की अनुमति नहीं: न्यायालय धारा 144(1)(ग) के दायरे का विस्तार कर शारीरिक या मानसिक असामान्यता से रहित वयस्क अविवाहित पुत्रियों को भी इसमें सम्मिलित नहीं कर सकते, क्योंकि यह न्यायिक विधायन के समान होगा।
सांविधानिक विधि
ज्ञात भाषा में आधार बताए बिना की गई गिरफ्तारी अवैध है
07-Nov-2025
|
मिहिर राजेश शाह बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य " केवल अज्ञात भाषा में गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी देना अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन है, क्योंकि गिरफ्तार व्यक्ति को अपने सांविधानिक अधिकारों का प्रभावी ढंग से प्रयोग करने के लिये उन्हें उस भाषा में प्राप्त करना चाहिये जिसे वह समझता हो।" मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने निर्णय दिया कि गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा समझी जाने वाली भाषा में गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रदान करने में असफलता अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन करती है, जिससे गिरफ्तारी और रिमांड अवैध हो जाता है, और इस आदेश को भारतीय दण्ड संहिता/भारतीय न्याय संहिता के अधीन अधीन सभी अपराधों पर लागू किया जाता है।
- उच्चतम न्यायालय ने मिहिर राजेश शाह बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
मिहिर राजेश शाह बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 7 जुलाई, 2024 को, तेज़ गति से चल रही एक सफ़ेद BMW कार ने परिवादकर्त्ता के स्कूटर को पीछे से ज़ोरदार टक्कर मार दी। टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि परिवादकर्त्ता और उसकी पत्नी दोनों कार के बोनट पर जा गिरे। परिवादकर्त्ता जहाँ एक तरफ़ गिर गया, वहीं उसकी पत्नी गाड़ी के अगले बाएँ पहिये और बम्पर के बीच फँस गई।
- इस गंभीर स्थिति के होते हुए भी, ड्राइवर, जिसका नाम मिहिर राजेश शाह (अपीलकर्त्ता) बताया जा रहा है, अपनी गाड़ी उतावलेपन से चलाता रहा और पीड़ित को घसीटता रहा। इसके बाद, ड्राइवर पीड़ितों की कोई सहायता किये बिना या अधिकारियों को घटना की सूचना दिये बिना ही घटनास्थल से फरार हो गया। पीड़ित की टक्कर में हुई गंभीर क्षति के कारण मृत्यु हो गई, जैसा कि चिकित्सकीय रूप से पुष्टि हो चुकी है, जबकि परिवादकर्त्ता को मामूली क्षति हुई।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करना
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS, 2023) और मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के सुसंगत उपबंधों के अधीन वर्ली पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट ()FIR संख्या 378/2024 दर्ज की गई।
- प्रारंभिक अन्वेषण में CCTV फुटेज के ज़रिए अपराधी वाहन की पहचान शामिल थी। क्षतिग्रस्त BMW कार कलानगर जंक्शन फ्लाईओवर के पास राजर्षि राजेंद्र सिंह बिंदावत और राजेश शाह, जो मिहिर राजेश शाह के पिता हैं, के साथ मिली।
- सह-अभियुक्त राजर्षि राजेंद्र सिंह बिंदावत को उसी दिन अभिरक्षा में ले लिया गया था। मिहिर राजेश शाह को 9 जुलाई, 2024 को गिरफ्तार किया गया।
- अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य
- एकत्रित साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अपीलकर्त्ता उस समय चालक था, जिसमें सम्मिलित हैं:
- CCTV फुटेज में उसकी मौजूदगी दर्ज है।
- घटना से कुछ समय पहले शराब पीने का साक्ष्य।
- उसकी उपस्थिति को बदलने का प्रयास।
- अपने नाम पर रजिस्ट्रीकृत फास्टैग का उपयोग।
- अन्य आपत्तिजनक विवरण।
- अपीलकर्त्ता को प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया। प्रारंभिक पुलिस अभिरक्षा प्रदान की गई, जो बाद में न्यायिक अभिरक्षा में बढ़ा दी गई।
- अपीलकर्त्ता ने इस आधार पर गिरफ्तारी का विरोध किया कि गिरफ्तारी के आधार उसे लिखित रूप में नहीं दिये गए थे, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS, 2023) की धारा 47 द्वारा अनिवार्य है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC,1973) की धारा 50 के समतुल्य है।
- गिरफ्तारी की वैधता के विरुद्ध अपीलकर्त्ता की चुनौती पर बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आपराधिक रिट याचिका संख्या 3533/2024 में विचार किया। 25 नवंबर, 2024 के अपने निर्णय के माध्यम से, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इस प्रक्रियात्मक चूक को स्वीकार किया। यद्यपि, अपीलकर्त्ता द्वारा अपराध की गंभीरता के प्रति सचेत जागरूकता, पर्याप्त साक्ष्यों द्वारा समर्थित और अपीलकर्त्ता द्वारा गिरफ्तारी से बचने के कारण, गिरफ्तारी की वैधता को बरकरार रखा, जिससे लिखित आधारों के अभाव के होते हुए भी अभिरक्षा को उचित ठहराया जा सका।
- उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 47 के अधीन गिरफ्तारी के आधार के बारे में उसे लिखित रूप में सूचित नहीं किया गया, जिससे उसके संवैसांविधानिकधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) में यह अनिवार्य किया गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी यथाशीघ्र दी जाए। यह केवल एक प्रक्रियात्मक औपचारिकता नहीं है, अपितु मौलिक अधिकारों के अंतर्गत एक अनिवार्य, बाध्यकारी सांविधानिक सुरक्षा है।
- न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार बताना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि गिरफ्तार व्यक्ति की मानसिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वह उन बातों को याद रख सके। सांविधानिक आदेश को प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिये आधार लिखित रूप में दिये जाने चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा न समझी जाने वाली भाषा में आधार प्रस्तुत करने मात्र से सांविधानिक दायित्त्व पूरा नहीं होता। आधार ऐसी भाषा में प्रस्तुत किये जाने चाहिये जो गिरफ्तार व्यक्ति समझ सके, जिससे वे आरोपों को समझ सकें और अपने अधिकारों का प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सकें।
- न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी बिना किसी अपवाद के प्रत्येक मामले में गिरफ्तार व्यक्ति को दी जानी चाहिये, और संसूचना का तरीका लिखित रूप में उनकी समझ में आने वाली भाषा में होना चाहिये। यह सभी विधियों के अंतर्गत आने वाले सभी अपराधों पर लागू होता है, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023) के अधीन आने वाले अपराध भी सम्मिलित हैं।
- न्यायालय ने उन असाधारण परिस्थितियों को मान्यता दी जहाँ तत्काल लिखित संसूचना अव्यावहारिक हो सकता है (जैसे कि खुलेआम अपराध)। ऐसे मामलों में, गिरफ्तारी के समय मौखिक संसूचना अनुमेय है, किंतु लिखित आधार उचित समय के भीतर और किसी भी स्थिति में रिमांड कार्यवाही के लिये मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी से दो घंटे पहले प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा समझी जाने वाली भाषा में गिरफ्तारी के लिखित आधार उपलब्ध न कराने पर गिरफ्तारी और उसके बाद रिमांड अवैध हो जाता है, जिससे गिरफ्तार व्यक्ति को रिहा करने का अधिकार मिल जाता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के आधार बताने का लाभकारी उद्देश्य व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार को समझने, विधिक सलाह लेने, गिरफ्तारी और रिमांड को चुनौती देने और ज़मानत पाने में सक्षम बनाना है। दैहिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिये विधिक सहायता तक शीघ्र पहुँच आवश्यक है।
- न्यायालय ने कहा कि यह प्रक्रिया अब से गिरफ्तारियों को नियंत्रित करेगी, जिससे भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के अधीन सांविधानिक अधिकारों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित होगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के अधीन गिरफ्तारी और दैहिक स्वतंत्रता से संबंधित सांविधानिक उपबंध क्या हैं?
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में उपबंध है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। 'दैहिक स्वतंत्रता' शब्द में राज्य अभिकरणों द्वारा शक्ति के दुरुपयोग और राज्य के कार्यों की जांच से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय सम्मिलित हैं।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) में यह उपबंध है कि किसी व्यक्ति को जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा, या अपनी रुची के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(2) में यह उपबंध है कि प्रत्येक व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी से चौबीस घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि के लिये अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(5) में यह उपबंध है कि निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन किये गए आदेश के अनुसरण मे जब किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है तब आदेश करने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति के यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिये उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा।