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सिविल कानून
विधिक परिषद् की अनुशासनात्मक कार्यवाही और व्यावसायिक कदाचार
« »25-Sep-2025
बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला और अन्य "उच्चतम न्यायालय ने तुच्छ अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया, तथा इस बात पर बल दिया कि विधिक परिषद् की अनुशासनात्मक समितियों को परिवाद भेजने से पहले उचित कारण अभिलिखित करने चाहिये तथा परिवादकर्त्ता और अधिवक्ता के बीच वृत्तिक संबंध आवश्यक है।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता |
स्रोत:उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला और अन्य (2025) के मामले में अधिवक्ताओं के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिससे विधिक परिषद् की अधिकारिता और अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अधीन वैध अनुशासनात्मक परिवादों की आवश्यकताओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित हुए।
बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
प्रथम मामला - राजीव नरूला मामला:
- मेसर्स वोल्गा एंटरप्राइजेज से संबंधित एक संपत्ति विवाद के संबंध में खिमजी देवजी परमार द्वारा अधिवक्ता राजीव नरूला के विरुद्ध 2022 में परिवाद दर्ज किया गया था।
- परमार ने अभिकथित किया कि उनके दिवंगत पिता देवजी परमार, दारा नरीमन सरकारी के साथ मेसर्स वोल्गा एंटरप्राइजेज में भागीदार थे और कुछ भूमि संपत्ति पर उनका अधिकार था।
- संपत्ति विवाद का निपटारा बॉम्बे उच्च न्यायालय में मेसर्स यूनिक कंस्ट्रक्शन और नुस्ली रांडेलिया के बीच 1985 के वाद संख्या 2541 में सहमति शर्तों के माध्यम से किया गया था।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि मेसर्स यूनिक कंस्ट्रक्शन का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता राजीव नरूला ने महत्त्वपूर्ण तथ्यों को दबा दिया और दारा नरीमन सरकारी की जानकारी के बिना सम्मति डिक्री प्राप्त कर ली।
- बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा (BCMG) के न्यायाधीश-अधिवक्ता ने 6 जुलाई, 2023 को एक आदेश पारित किया, जिसमें परिवाद को जांच के लिये अनुशासन समिति को भेज दिया गया।
- अधिवक्ता नरूला ने इस आदेश को बॉम्बे उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने अनुशासनात्मक कार्यवाही पर रोक लगा दी।
द्वितीय मामला - गीता शास्त्री मामला:
- बंसीधर अन्नाजी भाकड़ ने अनुशासनात्मक मामला संख्या 264/2017 में अधिवक्ता गीता रामानुग्रह शास्त्री के विरुद्ध परिवाद दर्ज कराया।
- भाकड़ ने अभिकथित किया कि शास्त्री ने एक सिविल वाद में दायर चैंबर समन में शपथपत्र के साक्षी की पहचान की, जिससे शपथपत्र में मिथ्या कथनों के लिये उन्हें उत्तरदायी ठहराया गया।
- अगस्त 2023 में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आरोपों को पूरी तरह से बेतुका और अपुष्ट पाते हुए अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- वृत्तिक संबंध की आवश्यकताएँ:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि सामान्यतः, परिवादकर्त्ता और संबंधित अधिवक्ता के बीच न्यायिक (वृत्तिक) संबंध का अस्तित्व "वृत्तिक अवचार" के आधार पर अनुशासनात्मक अधिकारिता लागू करने के लिये एक पूर्व शर्त है।
- चूँकि राजीव नरूला ने कभी भी परिवादकर्त्ता या उसके पूर्ववर्ती का प्रतिनिधित्व नहीं किया, इसलिये अवचार के परिवाद में उनके विरुद्ध अभियोग चलाने का कोई औचित्य नहीं था।
- किसी अधिवक्ता पर केवल इसलिये अभियोजन चलाना क्योंकि वह विरोधी पक्ष का अधिवक्ता है, "अत्यधिक आपत्तिजनक, पूर्णतया अग्राह्य और पूर्णतया अनुचित" माना गया।
- धारा 35 की आवश्यकताएँ:
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अधीन, राज्य विधिक परिषद् को अनुशासन समिति को मामला भेजने से पहले विश्वास करने के कारण अभिलिखित करने होंगे कि कोई भी अधिवक्ता वृत्तिक अवचार का दोषी है।
- परिवाद संप्रेषित से पहले विश्वास करने के कारणों को अभिलिखित करना कि अधिवक्ता ने अवचार किया है, एक अनिवार्य शर्त है।
- न्यायालय ने नंदलाल खोडीदास बारोट बनाम बार काउंसिल ऑफ गुजरात (1980) का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि विधिक परिषद् को अपना विवेक प्रयोग करना चाहिये तथा प्रथम दृष्टया अवचार के संबंध में तर्कसंगत विश्वास रखना चाहिये।
- अपर्याप्त संदर्भ आदेश:
- न्यायालय ने 6 जुलाई, 2023 के आदेश को "पूर्णतया गूढ़ और संक्षिप्त" पाया, क्योंकि इसमें अवचार के संबंध में कोई संतुष्टि अभिलिखित नहीं की गई थी या अभिकथनों पर चर्चा नहीं की गई थी।
- "अभिकथनों पर न्यूनतम चर्चा" के बिना दिये गए ऐसे आदेश वैध संदर्भ आदेशों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं और किसी अधिवक्ता के वृत्तिक कैरियर पर गंभीर प्रभाव डाल सकते हैं।
- तुच्छ परिवाद:
- न्यायालय ने कहा कि केवल सम्मति पत्र या शपथपत्र में पक्षकारों की पहचान करना वृत्तिक अवचार नहीं माना जा सकता।
- गीता शास्त्री मामले में न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ता केवल शपथपत्र को सत्यापित करने से ही उसकी विषय-वस्तु से अवगत नहीं हो जाते।
- दोनों मामलों को विरोधी वादियों के इशारे पर "विद्वेषपूर्ण अभियोजन" के रूप में चिह्नित किया गया।
शपथपत्र
- परिभाषा:
- प्राधिकृत अधिकारी/मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञान के अधीन लिखित रूप में दिया गया शपथ कथन।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) में परिभाषित नहीं है।
- शपथ दिलाने वाले प्राधिकारी के समक्ष लिखित रूप में तथ्यों की घोषणा।
- विधिक ढाँचा:
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 19 शपथपत्र उपबंधों से संबंधित है।
- प्रक्रिया, विषय-वस्तु और ग्राह्यता को नियंत्रित करता है।
- आवश्यक तत्त्व
- किसी व्यक्ति द्वारा की गई उद्घोषणा।
- उद्घोषणा तथ्यों से संबंधित होनी चाहिये, अनुमान से नहीं।
- उद्घोषणा प्रथम पुरुष (First Person) में की जानी चाहिये।
- प्रथम पुरुष में होना चाहिये।
- उद्घोषणा मजिस्ट्रेट अथवा सक्षम प्राधिकृत अधिकारी के समक्ष शपथपूर्वक या सत्यापन सहित की जानी चाहिये।
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 क्या है?
बारे में:
- विधि व्यवसायियों से संबंधित विधि का संशोधित और समेकन करने तथा विधिक परिषदों और अखिल भारतीय भारतीय विधिक परिषद् का गठन करने हेतु उपबंध करने के लिये अधिनियम ।
- यह अधिनियम 19 मई 1961 को लागू हुआ ।
- यह अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू है ।
- इस अधिनियम में कुल 60 धाराएँ हैं जो 7 अध्यायों में विभाजित हैं।
अधिनियम की धारा 35:
- यह अवचार के लिये अधिवक्ताओं को दण्डित करने से संबंधित है।
कार्यवाही आरंभ करना [उपधारा (1)]:
- राज्य विधिक परिषद् के पास यह विश्वास करने का "कारण" होना चाहिये कि अधिवक्ता ने वृत्तिक या अन्य अवचार किया है।
- परिवाद प्राप्त होने पर या स्वप्रेरणा से मामले को निपटारे के लिये अनुशासन समिति को निर्दिष्ट किया जाना चाहिये।
- इसके लिये बुद्धि के प्रयोग और तर्कपूर्ण विश्वास की आवश्यकता होती है, न कि स्वतः संदर्भ की।
कार्यवाही का स्थानांतरण [उपधारा (1क)]:
- राज्य विधिक परिषद् एक अनुशासन समिति से लंबित कार्यवाही वापस ले सकती है।
- उसी राज्य विधिक परिषद् की किसी अन्य अनुशासनात्मक समिति द्वारा जांच का निदेश दिया जा सकता है।
- यह कार्य स्वप्रेरणा से अथवा इच्छुक व्यक्ति के आवेदन पर किया जा सकता है।
नोटिस और सुनवाई [उपधारा (2)]
- अनुशासन समिति को सुनवाई की तारीख नियत करनी होगी।
- अनिवार्य सूचना:
- संबंधित अधिवक्ता
- राज्य के महाधिवक्ता
अनुशासन समिति की शक्तियां [उपधारा (3)]:
- अधिवक्ता एवं महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर प्रदान करने के पश्चात् समिति निम्नलिखित कार्य कर सकती है:
- परिवाद को खारिज करें या कार्यवाही दर्ज करने का निदेश दें सकेगी।
- अधिवक्ता को धिग्दंड दे सकेगी ।
- अधिवक्ता को निर्दिष्ट अवधि के लिये व्यवसाय से निलंबित कर सकेगी ।
- राज्य नामावली से अधिवक्ता का नाम हटा सकेगी ।
निलंबन के परिणाम [उपधारा (4)]:
- निलंबित अधिवक्ता को भारत की किसी भी न्यायालय में व्यवसाय करने से विवर्जित किया जा जाएगा।
- निलंबन पूरे भारत में किसी भी प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष लागू होता है।
- निलंबन अवधि के दौरान पूर्ण प्रतिबंध।
महाधिवक्ता की भागीदारी [उपधारा (5)]:
- महाधिवक्ता अनुशासन समिति के समक्ष उपस्थित हो सकते हैं।
- वह व्यक्तिगत रूप से या किसी अधिवक्ता के माध्यम से अपनी ओर से उपस्थित हो सकता है।
- उपधारा (2) के अधीन सूचना प्राप्त होने पर भागीदारी।
दिल्ली के लिये विशेष प्रावधान [स्पष्टीकरण]:
- दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में:
- "महाधिवक्ता" का अर्थ है भारत के अपर सॉलिसिटर जनरल
- धारा 35, 37 और 38 पर लागू होता है।
प्रमुख प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ:
- तर्कसंगत विश्वास - संदर्भ से पूर्व अनिवार्य।
- प्राकृतिक न्याय - सुनवाई का अवसर प्रदान करना अनिवार्य।
- श्रेणीबद्ध दंड - धिग्दंड से लेकर नामावली से विलोपन तक ।
- अखिल भारतीय प्रभाव - निलंबन का प्रभाव संपूर्ण भारत में लागू होगा ।