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आपराधिक कानून

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अधीन लैंगिक उत्पीड़न

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 22-Sep-2025

लक्ष्मण जांगड़े बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 

"अभिलेख में विद्यमान साक्ष्यों और अन्य सामग्रियों को पढ़ने से पता चलता है कि इन अभिकथनों से बना अपराध न तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 और न ही लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 3(ग) के उपबंधों को पूरा करता है। इसलिये, इस हद तक, दोषसिद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता।" 

न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जॉयमाल्या बागची 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची नेनिर्णय दिया कि बिना प्रवेशन के अवयस्क के गुप्तांगों को छूना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375/376 के कख अधीन बलात्संग या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 6 के अधीन प्रवेशन लैंगिक हमला नहीं माना जाएगा। इसके बजाय, यह लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण की धारा 9() के अधीन गुरुतर प्रवेशन लैंगिक और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन शीलभंग का मामला बनता है 

उच्चतम न्यायालय ने लक्ष्मण जांगड़े बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

लक्ष्मण जांगड़े बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • यह मामला लक्ष्मण जांगड़े के विरुद्ध बारह वर्ष से कम आयु की एक अवयस्क लड़की से जुड़े अभिकथनों से शुरू हुआ था। अपीलकर्त्ता पर शुरू में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376कख और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 6 के अधीन आरोप लगाया गया और विचारण न्यायालय ने उसे दोषसिद्ध ठहराया। विचारण न्यायालय ने उसे बीस वर्ष के कठोर कारावास और 50,000 रुपए के जुर्माने का दण्ड दिया, साथ ही जुर्माने के व्यतिक्रम पर एक वर्ष के अतिरिक्त कठोर कारावास का दण्ड भी दिया 
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन पीड़िता के कथन और विचारण में दिये गए उसके कथन में दर्ज विशिष्ट आरोप, पूरे मामले में एक जैसे थे। पीड़िता ने आरोप लगाया कि अपीलकर्त्ता ने उसके गुप्तांगों को छुआ और साथ ही अपने यौन अंगों पर हाथ रखा। उल्लेखनीय बात यह है कि इस स्पर्श के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के प्रवेशन संबंधी कृत्य का आरोप नहीं लगाया गया था। 
  • मामला न्यायिक पदानुक्रम के माध्यम से आगे बढ़ा, जिसमें छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय, बिलासपुर ने आपराधिक अपील संख्या 1434/2022 में दिनांक 28.01.2025 के अपने निर्णय के माध्यम से विचारण न्यायालय की दोषसिद्धि को बरकरार रखा। यद्यपि, लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 42, जो आनुकल्पिक दण्ड का उपबंध करती है, के अनुसार, उच्च न्यायालय ने केवल लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 6 के अधीन ही दण्ड को बरकरार रखाउच्चतम न्यायालय में अपील के समय, अपीलकर्त्ता पहले ही साढ़े पाँच वर्ष कारावास में भोग चुका था। 
  • यह मामला विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 10377/2025 के माध्यम से उच्चतम न्यायालय पहुँचा, जहाँ अपीलकर्त्ता के वरिष्ठ अधिवक्ता ने तर्क दिया कि कथित आचरण उन धाराओं के अंतर्गत अपराध नहीं बनता जिनके लिये उसे दोषी ठहराया गया था। बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि ये अभिकथन बलात्संग और लैंगिक उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोपों के बजाय, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 9(ङ) के अंतर्गत अपराध ही बनते हैं। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने अवयस्कों से संबंधित मामलों में आपराधिक विधि के प्रावधानों के विधिक निर्वचन और उचित अनुप्रयोग के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं। 
  • न्यायालय ने पाया कि अभिकथन भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 3(ग) के आवश्यक तत्त्वों को पूरा नहीं करते। सांविधिक प्रावधानों के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के माध्यम से, न्यायालय ने पाया कि भारतीय दण्ड संहिता के अधीन बलात्संग और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के अधीन प्रवेशन लैंगिक हमले, दोनों में ही प्रवेशन एक मूलभूत तत्त्व के रूप में आवश्यक है। न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 का पूरा पाठ पुनः प्रस्तुत किया, जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि बलात्संग में लिंग का प्रवेशन, किसी वस्तु या अंग का प्रवेशन, प्रवेशन के लिये हेरफेर, या शरीर के विशिष्ट अंगों के साथ मौखिक संपर्क सम्मिलित है। 
  • न्यायालय ने पाया कि विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय, दोनों द्वारा अपनाई गई प्रवेशन लैंगिक हमले की उपधारणा में साक्ष्यों का अभाव था। मेडिकल रिपोर्ट में प्रवेशन का कोई संकेत नहीं था, न ही पीड़िता के तीन अलग-अलग मौकों पर दर्ज कथनों ने इस निष्कर्ष का समर्थन किया। माता के परिसाक्ष्य ने भी केवल स्पर्श के आरोप की पुष्टि की, जिसमें प्रवेशन कृत्यों का कोई संदर्भ नहीं था। न्यायालय ने सभी कथनोंप्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), धारा 164 के कथन और विचारण न्यायालय में दिये गए कथन - में एकरूपता देखी, जिसमें समान रूप से केवल गुप्तांगों को छूने का आरोप लगाया गया था। 
  • न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ता का आचरण, जैसा कि साक्ष्यों से सिद्ध होता है, विभिन्न सांविधिक प्रावधानों के अंतर्गत आता है। किसी बालक के गुप्तांगों को छूना, लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत लैंगिक उत्पीड़न माना जाता है। यदि पीड़िता बारह वर्ष से कम आयु की है, तो ऐसा आचरण लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 9(ङ) के अंतर्गत गुरुतर लैंगिक हमला माना जाता है। इसके अतिरिक्त, ऐसा व्यवहार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अंतर्गत अपराध है, जो शील भंग करने के आशय से महिलाओं पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग करने से संबंधित है। 
  • न्यायालय ने कहा कि आपराधिक दोषसिद्धि उपधारणाओं के बजाय स्पष्ट विधिक परिभाषाओं पर आधारित होनी चाहियेलैंगिक हमले और प्रवेशन लैंगिक हमले के बीच का अंतर उचित आरोपों और दण्डों के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यद्यपि यह आचरण निश्चित रूप से आपराधिक था और दण्ड के योग्य था, फिर भी न्याय और उचित दण्ड सुनिश्चित करने के लिये इसे सही विधक प्रावधानों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि संशोधित दोषसिद्धि के कारण संशोधित दण्ड की आवश्यकता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम की धारा 10 के अधीन अपराधों के लिये उचित दण्ड क्रमशः पाँच वर्ष और सात वर्ष का कठोर कारावास होगा, जो एक साथ चलेगा। न्यायालय ने जुर्माने की राशि को पीड़ित के लिये प्रतिकर के रूप में बरकरार रखा, जो कि पुनर्स्थापनात्मक न्याय के सिद्धांतों को दर्शाता है और यह सुनिश्चित करता है कि दण्ड वास्तविक अपराध के अनुरूप हो। 

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम के कौन से प्रमुख प्रावधान प्रवेशन और गैर-प्रवेशन लैंगिक अपराधों में अंतर करते हैं? 

  • धारा 3 – प्रवेशनलैंगिक यौन हमला -इसमें बालक की योनि, मुंह, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग का वास्तविक प्रवेश, या वस्तुओं/शरीर के अंगों का प्रवेश, या प्रवेश के लिये हेरफेर की आवश्यकता होती है। 
  • धारा 6 – गुरुतर लैंगिक हमले के लिये दण्ड-न्यूनतम बीस वर्ष का कठोर कारावास, जो आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही पीड़ित पुनर्वास के लिये जुर्माना भी। 
  • धारा 7 – लैंगिक हमले मेंलैंगिक आशय से योनि, लिंग, गुदा या बालक के स्तन को छूना, या प्रवेशन के बिना कोई भी शारीरिक संपर्क सम्मिलित है। 
  • धारा 9() – गुरुतर लैंगिक हमलाबारह वर्ष से कम आयु के बालक पर लैंगिक हमला पीड़ित की कम आयु के कारण गुरुतर लैंगिक हमला माना जाता है। 
  • धारा 10 – गुरुतर लैंगिक हमले के लिये दण्डगुरुतर लैंगिक हमले के अपराधों के लिये पाँच से सात वर्ष का कारावास और जुर्माना। 
  • धारा 42 – आनुकल्पिक दण्डजब एक ही कृत्य भारतीय दण्ड संहिता और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम दोनों के अधीन अपराध बनता है तो दोहरी दण्ड को रोकता है। 

इस मामले में प्रमुख अंतर क्या हैं? 

  • प्रवेशन बनाम गैर-प्रवेशन कृत्य:धारा 3 के अधीन प्रवेशन लैंगिक हमले और धारा 7 के अधीन लैंगिक हमले के बीच मूलभूत अंतर प्रवेशन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में निहित है। धारा 3 में वास्तविक प्रवेशन की आवश्यकता होती है, जबकि धारा 7 में प्रवेशन के बिना स्पर्श और शारीरिक संपर्क सम्मिलित है। 
  • आयु-आधारित गुरुतर:धारा 9(ङ) विशेष रूप से बारह वर्ष से कम आयु के बालक पर लैंगिक हमले को एक गंभीर अपराध बनाती है, जिसमें बहुत छोटे बच्चों की बढ़ी हुई भेद्यता को मान्यता दी गई है और अधिक कठोर दण्ड का उपबंध किया गया है। 
  • दण्ड पदानुक्रम:दण्ड संरचना अपराधों की गंभीरता को दर्शाती है प्रवेशन लैंगिक हमले के लिये बीस वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक का दण्ड हो सकता है, जबकि गुरुतर लैंगिक हमले (गैर-प्रवेशये) के लिये पाँच से सात वर्ष तक का कारावास हो सकता है। 
  • साक्ष्य की आवश्यकताएँ:प्रत्येक प्रावधान में अपराध को स्थापित करने के लिये विशिष्ट प्रकार के साक्ष्य की आवश्यकता होती है। प्रवेशन लैंगिक हमले के लिये सामान्यत: प्रवेशन के चिकित्सीय साक्ष्य की आवश्यकता होती है, जबकि लैंगिक हमले को प्रवेशन के बिना अनुचित स्पर्श के बारे में परिसक्ष्य के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है।