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आपराधिक कानून
498-क की प्रथम सूचना रिपोर्ट में दो महीने में कोई गिरफ्तारी नहीं
«25-Sep-2025
शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल “भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग के संबंध में सुरक्षा उपायों के लिये कुटुंब कल्याण समितियों के गठन के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2022 के दाण्डिक पुनरीक्षण संख्या 1126 में दिनांक 13.06.2022 के विवादित निर्णय में पैरा 32 से 38 के अनुसार तैयार किये गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और उपयुक्त अधिकारियों द्वारा कार्यान्वित किये जाएंगे।” भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह ने वैवाहिक विवादों में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये कुटुंब कल्याण समितियों (FWC) के गठन हेतु इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2022 के दिशानिर्देशों को बरकरार रखा। न्यायालय ने निदेश दिया कि ये सुरक्षा उपाय लागू रहेंगे और प्राधिकारियों द्वारा इनका पालन किया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- शिवांगी बंसल और साहिब बंसल का विवाह 5 दिसंबर 2015 को उमराव फार्महाउस, दिल्ली में हुआ था और 23 दिसंबर 2016 को उनकी एक पुत्री रैना का जन्म हुआ।
- पक्षकारों और उनके परिवार के सदस्यों के बीच विवादों के कारण, दिल्ली के पीतमपुरा में विभिन्न स्थानों पर एक साथ रहने के बाद, दंपति 4 अक्टूबर, 2018 को पृथक् हो गए।
- पत्नी ने पति और उसके परिवार के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क (क्रूरता), 307 (हत्या का प्रयत्न), 376 (बलात्संग), 323, 504, 506, 120-ख, 377, 313, 342 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के साथ-साथ घरेलू हिंसा के मामले और भरण-पोषण याचिकाओं के अधीन गंभीर आपराधिक मामले दर्ज कराए।
- पति ने पत्नी के परिवार के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 365 (व्यपहरण), 323, 341, 506, 354, 385, 509 के अधीन आपराधिक मामले दर्ज कराए तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 500 और 501 के अधीन मानहानि के परिवाद के साथ-साथ तलाक और संरक्षकता याचिकाएँ भी दायर कीं।
- पत्नी के दाण्डिक मामलों के परिणामस्वरूप, पति को 109 दिन और उसके पिता को 103 दिन की जेल हुई, जिससे पूरे परिवार को शारीरिक और मानसिक आघात पहुँचा।
- दिल्ली और उत्तर प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में कई कार्यवाहियाँ लंबित रहीं, जिससे पक्षकारों के बीच लंबी विधिक लड़ाई चली।
- अंततः दोनों पक्षकारों ने सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने तथा भविष्य में मुकदमेबाजी से बचने और शांति बनाए रखने के लिये लंबित मुकदमों का निपटारा करने की इच्छा व्यक्त की।
- यह मामला स्थानांतरण याचिकाओं और विशेष अनुमति याचिकाओं के माध्यम से उच्चतम न्यायालय पहुँचा, जहाँ न्यायालय ने पूर्ण न्याय प्रदान करने और सभी आपराधिक मामलों को रद्द करते हुए विवाह को भंग करने के लिये अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- धारा 498-क के दुरुपयोग पर चिंता: न्यायालय ने यह गंभीर चिंता व्यक्त की कि वैवाहिक विवादों में वादकारियों द्वारा पति एवं उसके समस्त पारिवारिक सदस्यों को व्यापक एवं सर्वग्राही आरोपों के आधार पर संलिप्त करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क (क्रूरता संबंधी अपराध) के दुरुपयोग की प्रवृत्ति एक आवर्तक समस्या बन चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप निर्दोष पारिवारिक सदस्यों को अपूरणीय क्षति पहुँच रही है।
- अपूरणीय क्षति का आकलन: न्यायालय ने पाया कि पत्नी द्वारा दायर गंभीर आपराधिक मामलों के कारण पति को 109 दिन और उसके पिता को 103 दिन जेल में रहना पड़ा, तथा यह भी कहा कि पति के परिवार को जो शारीरिक और मानसिक आघात सहना पड़ा, उसकी भरपाई या क्षतिपूर्ति किसी भी तरह से नहीं की जा सकती।
- कुटुंब कल्याण समिति का पृष्ठांकन: न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये कुटुंब कल्याण समिति की स्थापना के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सुरक्षा उपायों का अनुमोदन किया तथा निदेश दिया कि ये दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे तथा उचित प्राधिकारियों द्वारा कार्यान्वित किये जाएंगे।
- पूर्ण न्याय के लिये अनुच्छेद 142 का आह्वान: न्यायालय ने पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 का आह्वान किया, जिसमें दोनों पक्षकारों के विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने की इच्छा को ध्यान में रखा गया, तथा दोनों पक्षकारों द्वारा दायर सभी लंबित आपराधिक और सिविल मुकदमों को रद्द करते हुए विवाह विच्छेद का आदेश दिया।
- संरक्षण और रोकथाम के उपाय: न्यायालय ने पति और उसके परिवार के लिये पुलिस सुरक्षा का निदेश दिया, आदेश दिया कि पत्नी कभी भी उनके विरुद्ध IPS अधिकारी के रूप में अपने पद का उपयोग नहीं करेगी, और दोनों पक्षकारों को इन वैवाहिक विवादों से उत्पन्न भविष्य में मुकदमा दायर करने से प्रतिबंधित कर दिया।
- बाल कल्याण प्राथमिकता: न्यायालय ने दोनों पक्षकारों द्वारा अवयस्क बच्चे के कल्याण के लिये अनुकूल आचरण करने की आवश्यकता पर बल दिया, तथा बच्चे की अभिरक्षा माता को प्रदान की तथा पिता और उसके परिवार को निगरानी में बच्चे से मिलने का अधिकार दिया।
- नैतिक क्षतिपूर्ति के लिये सार्वजनिक माफी: न्यायालय ने पत्नी और उसके माता-पिता को आदेश दिया कि वे मिथ्या अभिकथनों से हुई नैतिक क्षति को स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्रों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के माध्यम से पति के परिवार से बिना शर्त सार्वजनिक माफी मांगें।
- भविष्य में दुरुपयोग की रोकथाम: न्यायालय ने निदेश दिया कि पक्षकार एक-दूसरे के व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, आधिकारिक पदों के दुरुपयोग पर रोक लगाई, तथा चेतावनी दी कि शर्तों का कोई भी भंग उच्चतम न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।
भारतीय दण्ड संहिता और भारतीय न्याय संहिता के अधीन क्रूरता क्या है?
- वैवाहिक संदर्भ में क्रूरता को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-क और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 86 के अधीन परिभाषित किया गया है।
धारा 498-क दिशानिर्देशों का विकास कैसे हुआ?
- राजेश शर्मा दिशानिर्देश (2017): राजेश शर्मा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017) मामले में उच्चतम न्यायालय ने वैवाहिक विवादों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये वर्तमान कुटुंब कल्याण समिति ढाँचे के समान व्यापक दिशानिर्देश निर्धारित किये थे।
- सोशल एक्शन फोरम की वापसी (2018): 2018 में, मानव अधिकार के लिये सोशल एक्शन फोरम बनाम भारत संघ में उच्चतम न्यायालय ने राजेश शर्मा के निदेशों को वापस ले लिया, यह मानते हुए कि न्यायालय विधायी अंतराल को नहीं भर सकता है और ऐसे नीतिगत निर्णय विधायिका पर छोड़ दिये जाने चाहिये।
- न्यायिक संयम तर्क: न्यायालय ने कहा कि न्यायिक निदेशों के माध्यम से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय बनाना न्यायिक अतिक्रमण और विधायी क्षेत्र पर अतिक्रमण के समान है, जिसके लिये न्यायिक अधिदेश के बजाय विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- प्रभावी बहाली (2025): शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल में वर्तमान निर्णय ने कुटुंब कल्याण समितियों के लिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन का समर्थन और निदेश देकर राजेश शर्मा के निदेशों को काफी हद तक प्रभावी ढंग से बहाल कर दिया है।
क्रूरता के लिये न्यायालय द्वारा जारी निदेश क्या थे?
- प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद दर्ज होने के बाद दो महीने की " शांत अवधि (cooling period)" पूरी किये बिना, प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद दर्ज होने के बाद नामित अभियुक्तों के विरुद्ध कोई गिरफ्तारी या पुलिस कार्रवाई नहीं की जाएगी।
- कूलिंग पीरियड के दौरान, मामले को मध्यस्थता और समाधान के प्रयासों के लिये प्रत्येक जिले में कुटुंब कल्याण समिति को तुरंत भेजा जाएगा।
- केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क तथा अन्य धाराओं से संबंधित मामले, जिनमें कारावास 10 वर्ष से कम है (धारा 307 के सिवाय) कुटुंब कल्याण समिति को भेजे जाएंगे।
- प्रत्येक जिले में भौगोलिक आकार और जनसंख्या के आधार पर कम से कम एक या अधिक कुटुंब कल्याण समितियाँ होंगी, जिनका गठन जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अंतर्गत कम से कम तीन सदस्यों के साथ किया जाएगा।
- कुटुंब कल्याण समिति में युवा मध्यस्थ, पाँच वर्ष तक का अनुभव रखने वाले अधिवक्ता, स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्त्ता, सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी या वरिष्ठ न्यायिक/प्रशासनिक अधिकारियों की शिक्षित पत्नियाँ सम्मिलित होंगी।
- समिति, परिवादकर्त्ता पक्षकारों को उनके चार वरिष्ठ व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत बातचीत के लिये बुलाएगी तथा परिवाद दर्ज होने के दो मास के भीतर मामले को निपटाने का प्रयास करेगी।
- कुटुंब कल्याण समिति के सदस्यों को किसी भी बाद की विधिक कार्यवाही में साक्षी के रूप में कभी नहीं बुलाया जाएगा।
- समिति के समक्ष विचार-विमर्श के दौरान, पुलिस अधिकारी मेडिकल रिपोर्ट और साक्षियों के कथनों सहित परिधीय अन्वेषण जारी रखते हुए नामित अभियुक्तों के विरुद्ध किसी भी गिरफ्तारी या बलपूर्वक कार्रवाई से बचेंगे।
- समिति सभी तथ्यात्मक पहलुओं और अपनी राय के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी, तथा दो मास की अवधि समाप्त होने के बाद उसे संबंधित मजिस्ट्रेट/पुलिस प्राधिकारियों को भेजेगी।
- विधिक सेवा सहायता समिति, कुटुंब कल्याण समिति के सदस्यों को बुनियादी प्रशिक्षण प्रदान करेगी (एक सप्ताह से अधिक नहीं) तथा सदस्य निशुल्क आधार पर काम करेंगे या जिला एवं सेशन न्यायाधीश द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदेय प्राप्त करेंगे।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क से संबंधित ऐसी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का अन्वेषण गतिशील अन्वेषण अधिकारियों द्वारा किया जाएगा, जिनकी सत्यनिष्ठा कम से कम एक सप्ताह के विशेष प्रशिक्षण के बाद प्रमाणित की गई हो।
- जब पक्षकारों के बीच समझौता हो जाता है, तो जिला एवं सेशन न्यायाधीश तथा उनके द्वारा नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों को आपराधिक मामलों को बंद करने सहित कार्यवाही का निपटान करने का अधिकार होगा।
- कुटुंब कल्याण समितियों के गठन और कार्य की समीक्षा समय-समय पर जिला एवं सेशन न्यायाधीश/प्रधान न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय द्वारा की जाएगी, जो अध्यक्ष या सह-अध्यक्ष के रूप में कार्य करेंगे।
- संपूर्ण तंत्र का उद्देश्य आपराधिक अभियोजन से पहले, उग्र स्वभाव वाले प्रतियोगी पक्षकारों को शांत होने तथा संरचित मध्यस्थता के माध्यम से गलतफहमी और भ्रम को दूर करने की अनुमति देकर सामाजिक समस्याओं का समाधान करना है।
कुटुंब कल्याण समितियों (FWC) का उद्देश्य और कार्य क्या है?
- उद्देश्य और कार्य: कुटुंब कल्याण समितियाँ (FWC) विशिष्ट मध्यस्थता निकाय हैं, जो वैवाहिक विवादों में धारा 498-क भारतीय दण्ड संहिता (क्रूरता संबंधी अपराध) के दुरुपयोग को रोकने के लिये प्रत्येक जिले में स्थापित की जाती हैं। इसके अधीन दो मास की शांति अवधि प्रदान की जाती है, जिसके दौरान कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है, जबकि समिति संरचित बातचीत के माध्यम से अलग हुए दंपति के बीच विवादों को सुलझाने का प्रयास करती है।
- संरचना और प्रक्रिया: इन समितियों में तीन सदस्य होते हैं, जिनमें युवा अधिवक्ता, सामाजिक कार्यकर्त्ता, सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी या वरिष्ठ अधिकारियों के शिक्षित पति/पत्नी सम्मिलित होते हैं, जो आपराधिक अभियोजन शुरू होने से पहले वैवाहिक विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिये दोनों पक्षकारों को उनके बुजुर्ग परिवार के सदस्यों के साथ बुलाते हैं।
- विधिक ढाँचा: जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अधीन गठित और 2025 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुमोदित, कुटुंब कल्याण समितियाँ (FWC) धारा 498-क के मामलों (दहेज मृत्यु जैसे गंभीर अपराधों के सिवाय) के लिये अनिवार्य स्क्रीनिंग तंत्र के रूप में कार्य करते हैं, न्यायालयों के लिये विस्तृत रिपोर्ट तैयार करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि समिति के सदस्यों को बाद की कार्यवाही में साक्षी के रूप में नहीं बुलाया जा सकता है।