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आपराधिक कानून
रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में विलंब
« »23-Sep-2025
किम्ति लाल उर्फ़ किम्ति लाल भगत बनाम पंजाब राज्य और अन्य "यद्यपि यह निर्विवाद है कि विधायिका ने अपने विवेक से चालान/अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये अनिवार्य समय सीमा विहित करने से साशय परहेज किया है - इस प्रकार अन्वेषण अभिकरण को विवेकाधिकार की अनुमति दी है - यह विवेकाधिकार न तो पूर्ण है और न ही निरंकुश है।" न्यायमूर्ति सुमीत गोयल |
स्रोत: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुमीत गोयल ने 2007 के एक आपराधिक मामले में रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में 15 वर्ष के विलंब के लिये पंजाब पुलिस की खिंचाई की और इसे "अत्यधिक और अनुचित" करार दिया। न्यायालय ने पंजाब सरकार पर ₹1 लाख का जुर्माना अधिरोपित किया और बल देते हुए कहा कि इस तरह की निष्क्रियता विधि के शासन को कमज़ोर करती है और न्याय में जनता का विश्वास कम करती है।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने सतेन्द्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
किम्ति लाल उर्फ़ किम्ति लाल भगत बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- किम्ति लाल उर्फ किम्ति लाल भगत ने चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 के अधीन CRM-M- 43052-2025 दायर किया, जिस पर माननीय न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने 22 सितंबर 2025 को निर्णय सुनाया।
- याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध पुलिस स्टेशन डिवीजन नंबर 6, जालंधर में दिनांक 09 अगस्त 2007 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 281 दर्ज की गई थी, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 (स्वेच्छया उपहति कारित करने के लिये दण्ड), 341 (सदोष अवरोध के लिये दण्ड), 506 (आपराधिक अभित्रास के लिये दण्ड) और 34 (सामान्य आशय से कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कृत्य) के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- प्रतिद्वंद्वी निजी पक्षकारों के बीच गलतफहमी को परिवार के बुजुर्गों और इलाके के सम्मानित व्यक्तियों के हस्तक्षेप से 2007 में ही सुलझा लिया गया था, और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) परिवादकर्त्ता ने संबंधित पुलिस थाने में इस समझौते के बारे में एक शपथपत्र प्रस्तुत किया था।
- अन्वेषण अभिकरण ने पक्षकारों के बीच समझौते के बाद वर्ष 2007/2009 में एक निरस्तीकरण रिपोर्ट तैयार की, जिसमें स्वीकार किया गया कि आपराधिक विवाद सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया था।
- 2007/2009 में निरस्तीकरण रिपोर्ट तैयार होते हुए भी, उसे लगभग 18 वर्षों तक सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे याचिकाकर्त्ता को लंबे समय तक विधिक अनिश्चितता और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।
- याचिकाकर्त्ता ने जालंधर के पुलिस आयुक्त सहित संबंधित पुलिस अधिकारियों को निरस्तीकरण रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये विभिन्न अभ्यावेदन दिये, किंतु संबंधित अधिकारियों से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया या कार्रवाई नहीं मिली।
- पंजाब राज्य ने पुलिस महानिदेशक के माध्यम से इस चूक को स्वीकार किया तथा जवाब दाखिल किया, जिसमें कहा गया कि प्रमुख अन्वेषण अधिकारी 4 वर्ष से अधिक समय पहले सेवानिवृत्त हो चुके थे, सेवानिवृत्त अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई के लिये विधिक बाधाएँ विद्यमान थीं, तथा तत्कालीन पर्यवेक्षण अधिकारी को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था।
- पुलिस महानिदेशक (DGP) पंजाब ने 15 सितंबर 2025 को परिपत्र संख्या 30/2025 जारी किया, जिसमें रद्दीकरण रिपोर्टों को समय पर प्रस्तुत करने और अनुवर्ती कार्रवाई, केस फाइलों की उचित ट्रैकिंग और भविष्य में इसी तरह की घटनाओं को रोकने के लिये पुलिस थानों और न्यायालयों के बीच समन्वय सुनिश्चित करने के लिये सुधारात्मक उपायों को लागू किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि अभियोजन आरंभ करने और उसे आगे बढ़ाने का अधिकार राज्य की संप्रभु शक्ति का एक अंतर्निहित और अविभाज्य तत्त्व है, तथा इस बात पर बल दिया कि यह शक्ति मात्र एक विशेषाधिकार नहीं है, अपितु एक गंभीर लोक विश्वास है, जिसका प्रयोग विधि के शासन के आधारभूत सिद्धांतों को बनाए रखने के लिएव अत्यंत तत्परता और पारदर्शिता के साथ किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने कहा कि यद्यपि विधायिका ने अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये अनिवार्य समय-सीमा विहित करने से साशय परहेज किया है, जिससे अन्वेषण अभिकरणों को विवेकाधिकार की अनुमति मिल गई है, परंतु ऐसा विवेकाधिकार न तो पूर्ण है और न ही निरंकुश है, तथा इसमें तर्कसंगतता पर आधारित तथा न्याय के उद्देश्यों की ओर निदेशित तर्कसंगत और परिश्रमपूर्ण अभ्यास की आवश्यकता है।
- न्यायालय ने लॉर्ड हेल्सबरी के स्थापित सिद्धांत का हवाला दिया कि विवेक का अर्थ है कि कोई कार्य तर्क और न्याय के नियमों के अनुसार किया जाए, न कि निजी राय के अनुसार, विधि के अनुसार किया जाए, न कि मनमाने ढंग से, न कि अस्पष्ट या काल्पनिक, अपितु विधिक और नियमित रूप से किया जाए, जिसका प्रयोग उन सीमाओं के भीतर किया जाए, जिनके भीतर एक ईमानदार व्यक्ति को अपने पद का निर्वहन करने के लिये स्वयं को सीमित रखना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष का विवेकाधिकार 15 वर्षों तक चलने वाले अनुचित और अत्यधिक विलंब में परिवर्तित हो जाता है, तो यह विधि के शासन के विपरीत होता है, तथा विवेक का प्रयोग न करना या तत्परता का अभाव, प्रभावी रूप से सांविधिक और सांविधानिक कर्त्तव्य का परित्याग करने के समान होता है, तथा प्रक्रियागत लचीलेपन को मनमानी के साधन में परिवर्तित कर देता है।
- न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने इस मामले को उचित तत्परता के अभाव का एक अप्रिय दृष्टांत बताया, जो एक उदासीन दृष्टिकोण को दर्शाता है, उन्होंने संबंधित पुलिस अधिकारियों के आचरण को शिथिल और उदासीन पाया, जिससे न्यायालय को लंबे समय से चली आ रही आधिकारिक सुस्ती और समय पर और कर्तव्यनिष्ठ तरीके से गंभीर उत्तरदायित्त्वों का निर्वहन करने की स्पष्ट अनिच्छा की निंदा करने के लिये बाध्य होना पड़ा।
- न्यायालय ने कहा कि इस तरह के सुस्त आचरण पर तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब पूरे तंत्र में न्यायालय एक संस्थागत दृष्टिकोण अपनाएँ, जो इस तरह के आचरण को दण्डित करे, तथा जुर्माना अधिरोपित करने को एक आवश्यक साधन के रूप में पहचाने, जिससे बेईमान आचरण को समाप्त किया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य के अधिकारी अपेक्षित तत्परता के साथ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करें।
- न्यायालय ने कहा कि पंजाब के पुलिस महानिदेशक ने संबंधित दोषी अधिकारियों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्रवाई शुरू की है और 2025 के परिपत्र संख्या 30 के माध्यम से सुधारात्मक उपाय लागू किये हैं। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसे परिपत्रों का ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिये और उन्हें केवल औपचारिकता या कागजी निदेश बनकर रह जाने के बजाय सही अर्थों में लागू किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति सुमीत गोयल ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन के अपने संप्रभु घटक का निर्वहन करते समय, राज्य और उसके तंत्रों को तत्परता और सावधानीपूर्वक परिश्रम के साथ कार्य करना चाहिये, तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय विलंब और अन्याय का साधन न बनें, विशेषकर तब जब प्रशासनिक निष्क्रियता लगभग दो दशकों तक जारी रहे और आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभावकारिता और निष्पक्षता में जनता के विश्वास को कमजोर करे।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 क्या है?
- अन्वेषण समाप्त होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट
- उपधारा (1): अन्वेषण अनावश्यक विलंब के बिना पूर्ण किया जाएगा। उपधारा (3)(i): अधिकारी अन्वेषण पूर्ण होते ही मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजेगा।
- रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में विलंब
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193(1) "अनावश्यक विलंब के बिना" अन्वषण समाप्त करने का आदेश देती है, जिससे समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना सांविधिक कर्त्तव्य बनता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193(3)(i) के अनुसार, "अन्वेषण पूर्ण होते ही" मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करना आवश्यक है, जिससे प्रशासनिक विलंब पर रोक लगती है।
- रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में 15 वर्ष का विलंब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अधीन शीघ्र निपटारे के मूल अधिदेश का उल्लंघन है।
- इस तरह का दीर्घ विलंब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अनिश्चितकालीन लंबित मामलों को रोकने के विधायी आशय को निष्प्रभावी कर देता है।
- रिपोर्ट तैयार होने होते हुए भी 15 वर्षों तक रिपोर्ट दाखिल न करना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के सांविधानिक कर्त्तव्य ढाँचे का उल्लंघन है।
- प्रशासनिक निष्क्रियता भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को विधिक उत्पीड़न के साधनों में परिवर्तित कर देती है।
- न्यायिक हस्तक्षेप भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अनुपालन को लागू करता है, जो प्रणालीगत पुलिस प्रशासन की विफलताओं को उजागर करता है।
- लागत अधिरोपण भविष्य में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 समयसीमा के उल्लंघन को रोकने के न्यायिक दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।