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आपराधिक कानून
समकालिक प्रकटीकरण कथनों की कठोरता से जांच की आवश्यकता है
«23-Sep-2025
नागम्मा उर्फ़ नागरत्ना एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य "निस्संदेह, यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य का है, जिसे तभी साबित माना जाता है जब परिस्थितियों की एक पूरी श्रृंखला हो, जिसमें ठोस और विश्वसनीय सामग्री सम्मिलित हो, जो एक अटूट कड़ी प्रदान करती हो, जो केवल अभियुक्त के दोषसिद्धि की ओर ले जाती हो।" न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की उच्चतम न्यायालय की पीठ ने नागम्मा उर्फ़ नागरत्ना एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2025) मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ धारा 302 के अधीन हत्या के लिये दोषी ठहराए गए तीन अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया, जिसमें भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के अधीन परिस्थितिजन्य साक्ष्य और बरामदगी को नियंत्रित करने वाले महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया।
नागम्मा बनाम कर्नाटक राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दो पुलिसकर्मियों के बीच कथित ऋण विवाद से उत्पन्न एक क्रूर हत्या से संबंधित था।
मामले के तथ्य:
- A1 (पुलिसकर्मी) ने कथित तौर पर मृतक (जो स्वयं भी पुलिसकर्मी था) से 1 लाख रुपए का ऋण लिया था।
- मृतक निरंतर ऋण चुकाने की मांग कर रहा था।
- A2 (A1 की पत्नी) ने कथित तौर पर मृतक को 10.03.2006 को कर्ज चुकाने के बहाने अपने घर बुलाया।
- 11.03.2006 को लगभग 2 बजे, पीड़ित को कथित तौर पर मिर्च पाउडर फेंककर स्थिर कर दिया गया और चाकू से काटकर उसकी हत्या कर दी गई।
- सूर्योदय के पश्चात् A2 पुलिस थाने गया और अपना अपराध संस्वीकृत कर लिया।
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि A3 और A4 (A1 के भाई और बहनोई) ने हत्या में सहायता की।
विचारण न्यायालय की कार्यवाही:
- अभियोजन पक्ष ने 24 साक्षियों की परीक्षा की तथा 33 दस्तावेज़ों और 16 भौतिक वस्तुओं को चिन्हित किया।
- A1 को पूर्णतया सही सबूत (दूसरे पुलिस थाने में रात्रि ड्यूटी) के कारण दोषमुक्त कर दिया गया।
- A2 से A4 को धारा 302 सहपठित धारा 34 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दोषसिद्ध ठहराया गया और आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।
- उच्च न्यायालय ने अपील में दोषसिद्धि की पुष्टि की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य को ठोस और विश्वसनीय सामग्री के साथ परिस्थितियों की एक पूरी श्रृंखला बनानी चाहिये, जो एक अटूट कड़ी प्रदान करे जो केवल अभियुक्त के अपराध की ओर ले जाए।
- प्रमुख सिद्धांत:
- अपराध को छोड़कर हर उचित परिकल्पना को बाहर रखा जाना चाहिये।
- प्रत्येक परिस्थिति को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित किया जाना चाहिये।
- परिस्थितियों की श्रृंखला पूर्ण एवं अटूट होनी चाहिये।
न्यायेतर संस्वीकृति पर:
महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष:
- सभी कथित न्यायेतर संस्वीकृति पुलिस थाने के भीतर की गई थीं और साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के अधीन अग्राह्य थीं।
न्यायालय का तर्क:
- धारा 25 के अधीन पुलिस अधिकारियों (PW-15, PW-17) के समक्ष संस्वीकृति वर्जित है।
- धारा 26 के अधीन मजिस्ट्रेट की उपस्थिति के बिना पुलिस अभिरक्षा में की गई संस्वीकृति पर रोक है।
- पुलिस थाने के भीतर स्थित होने के कारण सभी संस्वीकृति संदिग्ध हो गईं।
धारा 27 बरामदगी पर:
- न्यायालय ने कहा कि धारा 27 के अधीन बरामदगी में न केवल भौतिक वस्तु सम्मिलित है, अपितु छिपाने का स्थान और ज्ञान भी सम्मिलित है, जिसे स्पष्ट रूप से स्थापित किया जाना चाहिये।
अंतिम निर्णय:
दोषमुक्त करने का आदेश: न्यायालय ने दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया और सभी अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया, यह कहते हुए:
- हेतु स्थापित नहीं हुआ - मुख्य साक्षी अविश्वसनीय एवं विरोधाभासी।
- अभियुक्त के घर पर शव की उपस्थिति संदिग्ध – साक्षी अपने कथन से पक्षद्रोही गए या विरोधाभासी कथन दिये।
- न्यायेतर संस्वीकृति अग्राह्य- पुलिस थाने परिसर के भीतर की गई सभी संस्वीकृति।
- धारा 27 बरामदगी अविश्वसनीय - समकालिक प्रकटीकरण, पक्षद्रोही साक्षी, कोई फोरेंसिक लिंक नहीं।
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपूर्ण - केवल अपराध की ओर संकेत करने वाली अटूट श्रृंखला बनाने में असफल।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 क्या है?
बारे में:
- यह धारा इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी को साबित किया जा सकता है।
- इसमें कहा गया है कि परंतु जब किसी तथ्य के बारे में यह अभिसाक्ष्य दिया जाता है कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से, जो पुलिस आफिसर की अभिरक्षा में हो, प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप उसका पता चला है, तब ऐसी जानकारी में से, उतनी चाहे वह संस्वीकृति की कोटि में आती हो या नहीं, जितनी एतद्वारा पता चले हुए तथ्य में स्पष्टतया संबंधित है, साबित की जा सकेगी।
- धारा 27, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के परंतुक के रूप में कार्य करती है, तथा इस सामान्य नियम के लिये एक विशिष्ट अपवाद निर्मित करती है कि अभिरक्षा में रहते हुए पुलिस अधिकारियों के समक्ष की गई संस्वीकृति साक्ष्य के रूप में अग्राह्य हैं।
- यह धारा पश्चात्वर्ती घटनाओं द्वारा पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है - दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप वास्तव में एक तथ्य की खोज होती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की प्राप्ति होती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) में उपबंध:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) में इस धारा को धारा 23 के उपबंध के रूप में सम्मिलित किया गया है।
उद्देश्य:
- यह धारा दोहरा उद्देश्य पूरा करती है:
- यह पुलिस के कदाचार के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है, क्योंकि इसमें संस्वीकृति की तथ्यात्मक पुष्टि की आवश्यकता होती है, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि मूल्यवान साक्ष्य को केवल इसलिये खारिज न किया जाए क्योंकि वह अभिरक्षा में अभियुक्त द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के माध्यम से प्राप्त किया गया था।
निर्णय विधि:
- दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ अफसान गुरु (2005) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अर्थ में खोजा गया तथ्य कुछ ठोस तथ्य होना चाहिये जिससे वह जानकारी प्रत्यक्षत: संबंधित हो।
- राजेश एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि औपचारिक आरोप और औपचारिक पुलिस अभिरक्षा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं।