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आपराधिक कानून
आत्म-अभिसंशय का अधिकार
«19-Sep-2025
मोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य “अन्वेषण अधिकारी आवेदक की औपचारिक गिरफ्तारी करेगा और उसे भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 (2) के अधीन निहित शर्तों और प्रावधानों के अनुसार उसकी संतुष्टि के लिये समतुल्य राशि के एक जमानत के साथ व्यक्तिगत बंधपत्र प्रस्तुत करने के अधीन तुरंत छोड़ देगा, यदि ऐसा पहले से नहीं किया गया है” न्यायमूर्ति अरुण मोंगा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने कहा कि अन्वेषण के दौरान किसी अभियुक्त द्वारा संस्वीकृति से इंकार करना या आपत्तिजनक उत्तर देना "असहयोग" नहीं माना जा सकता। उद्दापन के एक मामले में अग्रिम ज़मानत देते हुए, न्यायालय ने कहा कि टालमटोल वाले उत्तर विचारण का विषय हैं और कहा कि परिवादकर्त्ता का जमानत का विरोध विधिक आधार के बजाय अहंकार से प्रेरित प्रतीत होता है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने मोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
मोहम्मद कामरान बनाम दिल्ली राज्य एन.सी.टी. (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- परिवादकर्त्ता मोहम्मद आमिर, जो इरशाद हुसैन के साथ पाँच वर्षों से जुड़े एक भवन निर्माण ठेकेदार हैं, ने घटना से लगभग दस महीने पहले एक मकान के विध्वंस और पुनर्निर्माण के लिये अमानुद्दीन के साथ एक लिखित करार किया था।
- निर्माण प्रक्रिया के दौरान, अभियुक्त मोहम्मद कामरान ने सह-अभियुक्त हारून और बारिश के साथ मिलकर कथित तौर पर निर्माण कार्य रोकने के लिये दिल्ली नगर निगम में परिवाद और उच्च न्यायालय में रिट याचिका (सी.) संख्या 5607/2022 दायर करके परिवादकर्त्ता से 20 लाख रुपए का उद्दापन करने का प्रयत्न किया।
- परिवादकर्त्ता ने कथित तौर पर मौके पर ही 10,000 रुपए और दबाव में 06.02.2024 को 20,000 रुपए का संदाय किया, इन संव्यवहार की ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग की गई और बाद में सबूत के तौर पर पुलिस को प्रस्तुत किया गया।
- 03.02.2024 की एक घटना से संबंधित 11.02.2024 के परिवाद के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 384, 385, 120ख और 34 के अधीन 10.06.2024 को पुलिस थाने चांदनी महल में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 150/2024 दर्ज की गई थी।
- तीस हजारी स्थित अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश ने दिनांक 04.07.2024 के आदेश द्वारा आवेदक की पिछली अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया, जिसके बाद आवेदक को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41क और 41 के अधीन नोटिस जारी किया गया।
- आवेदक, जो एक रजिस्ट्रीकृत लोक कल्याण न्यास का अध्यक्ष और स्वच्छ पृष्ठभूमि वाला स्थायी निवासी है, ने स्वास्थ्य कारणों से छूट मांगी और वर्तमान अग्रिम जमानत आवेदन दायर किया, जबकि कथित तौर पर उक्त संपत्ति को अनधिकृत निर्माण के विरुद्ध उसकी जनहित याचिका में सम्मिलित किया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता को धमकी या भय दिये जाने के किसी भी आरोप पर पूरी तरह से चुप्पी साधी गई है, जो कि उद्दापन के अपराध का एक अनिवार्य तत्त्व है, तथा इसमें इस बारे में विशिष्ट विवरण देने में भी विफलता रही कि आवेदक को कथित संदाय कैसे, कब या किस तरीके से किया गया।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि केवल इसलिये कि आवेदक ने अन्वेषण अधिकारी के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया है या कोई संस्वीकृति नहीं की है या अपने विरुद्ध कोई दोषपूर्ण बात नहीं कही है, इसे असहयोग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आवेदक को अपना बचाव करने का मौलिक अधिकार है।
- न्यायालय ने कहा कि परिवादकर्त्ता वैध विधिक आधार पर नहीं अपितु केवल अपने अहंकार की संतुष्टि के लिये जमानत आवेदन का विरोध कर रहा था, तथा आवेदक के विरुद्ध लगाए गए आरोपों का निर्धारण विचारण कार्यवाही के दौरान किया जाना था, जहाँ दोष सिद्ध होने पर विधि अपना काम करेगी।
- न्यायालय ने पाया कि चूँकि आवेदक ने अन्वेषण में पूर्ण सहयोग दिया था, फोरेंसिक जांच के लिये आवाज के नमूने उपलब्ध कराए थे, तथा उससे और कुछ भी बरामद करने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिये यह निवारक अभिरक्षा का मामला नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि उद्दापन के अप्रत्यक्ष उद्देश्य से जनहित याचिकाएँ दायर करने के आरोपों के संबंध में, परिवादकर्त्ता को जनहित याचिका की कार्यवाही में उचित कार्रवाई करने की स्वतंत्रता है, तथा न्यायालय को जमानत आवेदन पर इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है।
- न्यायालय ने आवेदक की औपचारिक गिरफ्तारी के निदेश दिये तथा उसके बाद भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482(2) के अनुसार समतुल्य राशि की जमानत के साथ व्यक्तिगत बंधपत्र प्रस्तुत करने पर तत्काल रिहाई का निदेश दिया, जिससे दिनांक 12.07.2024 के आदेश द्वारा प्रदत्त अंतरिम संरक्षण पूर्ण हो गया।
आत्म- अभिसंशय का अधिकार क्या है?
- सांविधानिक आधार और दायरा
- आत्म- अभिसंशय के विरुद्ध अधिकार, भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत एक मौलिक संरक्षण प्रदान करता है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये आबद्ध नहीं किया जाएगा। यह सांविधानिक प्रत्याभूति अमेरिकी संविधान के पाँचवें संशोधन से प्रेरित है और " Nemo teneteur prodre accussare seipsum," नामक विधिक सिद्धांत पर आधारित है, जो यह स्थापित करता है कि व्यक्तियों को आत्म- अभिसंशय संबंधी कथन देने के लिये आबद्ध नहीं किया जा सकता।
- यह सुरक्षा अभियुक्तों से आगे बढ़कर आपराधिक कार्यवाही में साक्षियों को भी सम्मिलित करती है, जो दुर्व्यवहार, प्रपीड़न और अन्यायपूर्ण अभियोजन के विरुद्ध एक बाधा के रूप में कार्य करती है। यद्यपि व्यक्तियों को आत्म- अभिसंशय जानकारी देने के लिये आबद्ध नहीं किया जा सकता, यह मौलिक अधिकार अन्य वैध साक्ष्यों के आधार पर उनकी गिरफ्तारी या अभियोजन को नहीं रोकता, जिससे व्यक्तिगत संरक्षण और आपराधिक न्याय प्रशासन के बीच संतुलन बना रहता है।
- न्यायिक निर्वचन और विकास
- उच्चतम न्यायालय के विधिशास्त्र ने ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से आत्म- अभिसंशय अधिकारों की समझ को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया है। नंदिनी सत्पथी बनाम पीएल दानी (1978) मामले में, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किसी को भी किसी भी परिस्थिति में स्वयं को दोषी ठहराने के लिये विवश नहीं किया जा सकता। सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के निर्णय में कहा गया कि बिना सम्मति के किये गए नार्कोएनालिसिस परीक्षण, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ़ परीक्षण अनुच्छेद 20(3) के संरक्षण का उल्लंघन करते हैं।
- हाल के घटनाक्रमों में रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) सम्मिलित है, जहाँ न्यायालय ने सांविधानिक संरक्षण का उल्लंघन किये बिना हस्तलेखन के नमूनों के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आवाज़ के नमूने एकत्र करने की अनुमति दी। गौरतलब है कि चंदा दीपक कोचर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2023) में, न्यायालय ने कहा था कि सहयोग न करना या पूर्ण जानकारी न देना गिरफ्तारी का पर्याप्त आधार नहीं है।
- गिरफ्तारी प्रक्रिया और सांविधिक ढाँचा
- डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के दिशानिर्देशों ने गिरफ्तारी और निरोध के लिये व्यापक प्रोटोकॉल स्थापित किये, जिनमें उचित पहचान, गिरफ्तारी ज्ञापन और अधिसूचना अधिकार अनिवार्य किये गए। अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 और 41क की आवश्यकताओं को पूरा करना आवश्यक है, जबकि सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2022) ने इस बात पर बल दिया कि गिरफ्तारी के अधिकार का अर्थ गिरफ्तारी के लिये बाध्यता नहीं है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत, धारा 35 अनिवार्य सूचना प्रावधानों के साथ संरचित गिरफ्तारी शक्तियां प्रदान करती है। धारा 35(3) के नोटिसों का अनुपालन सहयोग माना जाता है, और बिना किसी औचित्य के अनुपालन न करने पर अभियुक्त को जमानत का अधिकार प्राप्त होता है। संवेदनशील व्यक्तियों के लिये विशेष सुरक्षा उपलब्ध है, जहाँ अभियुक्त के कमज़ोर या वृद्ध होने पर मामूली अपराधों से संबंधित गिरफ्तारी के लिये वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति आवश्यक होती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अन्वेषण संबंधी आवश्यकताओं को संतुलित करते हुए आत्म-अभिसंशय के अधिकार सुरक्षित रहें।