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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430

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 07-Aug-2025

जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य 

"उच्च न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दण्ड के निलंबन के लिये दायर आवेदन पर सुनवाई करते समय इस बात की परीक्षा करे कि क्या प्रथम दृष्टया अभिलेख में ऐसा कुछ स्पष्ट है जो यह दर्शाता हो कि अभियुक्त के पास दोषसिद्धि को पलटने का उचित अवसर था।" 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और के.वी. विश्वनाथन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथनकी पीठ नेनिर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दोषसिद्धि के पश्चात् जमानत केवल उसी स्थिति में प्रदान की जा सकती है जब प्रथम दृष्टया ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हों जो यह संकेत करें कि अभियुक्त के दोषमुक्त होने की यथोचित संभावना विद्यमान है 

  • उच्चतम न्यायालय ने जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 13 जून, 2023 को, एक 14 वर्षीय लड़की के साथ अभियुक्त ने कथित तौर पर लैंगिक उत्पीड़न किया। पीड़िता ने परिसाक्ष्य में कहा कि जब वह शाम 4 बजे शौच के लिये खेत में गई थी, तो अभियुक्त बंदूक लेकर उसके पीछे से आया, उसका मुँह बंद कर दिया और उसे जबरन पास के एक घर में ले गया जहाँ उसने बलात्कार किया। 
  • पीड़िता घर लौटी और अपने परिवार को घटना की जानकारी दी। उसके पिता ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई और उसका मेडिकल परीक्षण कराया गया। पीड़िता का दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन कथन अभिलिखित किये गए, जिसमें उसने अपने अभिकथन को बरकरार रखा 
  • अभियुक्त के विरुद्ध 11 आपराधिक मामले दर्ज हैं - 5 में उसे दोषमुक्त कर दिया गया है तथा 6 मामले लंबित हैं जिनमें हमला, सेंधमारी, लूट और शस्त्र उल्लंघन सम्मिलित हैं। 
  • विचारण न्यायालय ने उसे लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) की धारा 3/4(2) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(3) के अधीन दोषी ठहराते हुए 20 वर्ष के कठोर कारावास और 50,000 रुपए के जुर्माने की दण्ड सुनाया। 1 वर्ष 3 महीने की दण्ड काटने के पश्चात्, राजस्थान उच्च न्यायालय ने उसके दण्ड को निलंबित कर दिया और ज़मानत दे दी, जिसके पश्चात् पीड़िता के पिता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय यह जांचने में विफल रहा कि क्या अभिलेख में ऐसा कुछ भी स्पष्ट था जो यह दर्शाता हो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के अधीन दण्ड के निलंबन पर विचार करते समय अभियुक्त के दोषमुक्त होने की उचित संभावना थी।  
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार दोषसिद्ध ठहराए जाने के बाद, निर्दोषता की उपधारणा समाप्त हो जाती है, तथा न्यायालयों को दण्ड के निलंबन को उचित ठहराने के लिये अभिलेख में कुछ स्पष्ट या गंभीर बातों पर ध्यान देना चाहिये, न कि अभियोजन पक्ष के मामले में छोटी-मोटी खामियों पर। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने दण्ड को निलंबित करते समय अभियुक्त के आपराधिक इतिहास सहित सुसंगत कारकों को नजरअंदाज कर दिया, जिससे निर्णय अनुचित हो गया। 
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय का तर्क त्रुटिपूर्ण था - चिकित्सकीय साक्ष्य में यह कहा गया था कि कोई निश्चायक राय नहीं दी जा सकती, तथा इससे पीड़िता के परिसाक्ष्य को नाकारा नहीं सकता था, तथा अभियोजन पक्ष ने फोरेंसिक रिपोर्ट की अनुपलब्धता का स्पष्टीकरण दिया था।  
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शौचालय उपलब्ध होते हुए भी पीड़िता के बाहर शौच के लिये जाने के बारे में उच्च न्यायालय का अनुमान अस्वीकार्य तर्क है। 
  • न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) के अधीन गंभीर अपराधों में न्यायालयों को आरोप की प्रकृति, अपराध की गंभीरता और दोषी व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने की वांछनीयता पर विचार करना चाहिये, जो उच्च न्यायालय करने में असफल रहा। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430/ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 क्या है? 

 बारे में 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 430 अपील न्यायालयों को दण्ड के निष्पादन को निलंबित करने और दोषसिद्ध व्यक्तियों को उनकी अपील लंबित रहने तक जमानत पर रिहा करने का अधिकार देती है। 
  • अपील न्यायालय दण्ड को निलंबित कर सकता है तथा दोषी को लिखित रूप में कारण अभिलिखित करके जमानत या व्यक्तिगत बंधपत्र पर छोड़ सकता है। 
  • मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष या उससे अधिक के कारावास का दण्ड पाए दोषियों के लिये, न्यायालय को लोक अभियोजक को ऐसे छोड़ने के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर प्रदान करना चाहिये 
  • लोक अभियोजक को जमानत मंजूर होने के पश्चात् भी उसे रद्द करने के लिये आवेदन दायर करने का अधिकार है। 
  • उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों में अपील के मामलों में इस शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। 
  • तीन वर्ष तक का दण्ड या जमानतीय अपराधों के लिये, दोषसिद्ध ठहराने वाले न्यायालय स्वयं अपील लंबित रहने तक जमानत दे सकते है, जब तक कि इंकार करने के लिये विशेष कारण विद्यमान न हों। 
  • यदि दोषी को अंततः कारावास का दण्ड दिया जाता है तो जमानत पर बिताया गया समय कुल दण्ड अवधि से बाहर कर दिया जाता है। 

दण्डादेश को निलंबित करने हेतु उच्च न्यायालय को यह परीक्षण करना चाहिये कि क्या दोषसिद्ध व्यक्ति के दोषमुक्त होने की यथोचित संभावना है 

  • न्यायालय को यह परीक्षण करना आवश्यक है कि क्या अभिलेख में ऐसा कोई ठोस और प्रत्यक्ष तथ्य उपलब्ध है, जो यह इंगित करता हो कि अभियुक्त को दोषसिद्धि पलटने की यथोचित संभावना प्राप्त है। 
  • मूल्यांकन अभियोजन पक्ष के मामले में अभिलेख पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाली कोई स्पष्ट अथवा गंभीर त्रुटियों पर केंद्रित होना चाहिये।  
  • न्यायालयों को निलंबन चरण में अभियोजन पक्ष के मामले में साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन या छोटी-मोटी कमियों की खोज नहीं करनी चाहिये 
  • मूल्यांकन प्रथम दृष्टया प्रकृति का होना चाहिए, जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि क्या स्पष्ट दोषों के आधार पर दोषसिद्धि टिकाऊ नहीं हो सकती है। 
  • एक बार दोषसिद्धि हो जाने पर, निर्दोषता की उपधारणा समाप्त हो जाती है, जिससे जमानत का मानक दोषसिद्धि-पूर्व जमानत की तुलना में अधिक कठोर हो जाता है। 
  • न्यायालयों को आरोप की प्रकृति, अपराध की गंभीरता, अपराध करने का तरीका तथा दोषी के आपराधिक पूर्ववृत्त पर विचार करना चाहिये 
  • यह परीक्षण आवश्यक है कि दोषसिद्ध व्यक्ति के अंततः दोषमुक्त होने की संभाव्यता इस सीमा तक हो कि अपील की दीर्घकालिक प्रक्रिया के दौरान उसकी रिहाई न्यायसंगत मानी जा सके 
  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) जैसे गंभीर अपराधों में न्यायालयों को दोषी व्यक्तियों को जमानत पर छोड़ने के मामले में विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिये 
  • निलंबन का कारण विधिक मानदंडों के अनुरूप होना चाहिये तथा यह अनुमान या साक्ष्य के सतही विश्लेषण पर आधारित नहीं होना चाहिये