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आपराधिक कानून
संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट
«06-Aug-2025
नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य "किसी अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दर्ज कराई गई संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) उसके विरुद्ध साक्ष्य के रूप में अग्राह्य है, सिवाय इसके कि यह दर्शाया जाए कि उसने अपराध के तुरंत बाद एक कथन दिया था, जिसमें साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अधीन रिपोर्ट बनाने वाले के रूप में उसकी पहचान की गई थी।" न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने अपीलकर्त्ता को दोषमुक्त करते हुए एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया और संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), विशेषज्ञ साक्षी का साक्ष्य और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 300 के अधीन अपवादों के आवेदन के संबंध में महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णयों की स्थापना की।
नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
मामले की उत्पत्ति:
- अपीलकर्त्ता ने स्वयं 27 सितंबर, 2019 को कोरबा कोतवाली पुलिस थाने में राम बाबू शर्मा की हत्या की संस्वीकृति करते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी ।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में विस्तृत संस्वीकृति युक्त कथन सम्मिलित थे कि कैसे अपीलकर्त्ता ने अपनी प्रेमिका की तस्वीर दिखाने को लेकर हुए झगड़े के बाद मृतक की हत्या कर दी।
- विचारण न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 (हत्या) के अधीन दोषसिद्ध ठहराया और उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया।
- उच्च न्यायालय ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया, तथा धारा 302 से धारा 304 भाग I भारतीय दण्ड संहिता में दोषसिद्धि को परिवर्तित कर दिया, तथा धारा 300 में अपवाद 4 को लागू किया।
चिकित्सक साक्ष्य:
- पोस्टमार्टम परीक्षा में मृतक के शरीर पर छह घाव पाए गए, जिनमें छाती और सिर पर घातक चोटें भी शामिल थीं।
- मृत्यु का कारण छाती के दाहिने भाग से अत्यधिक रक्तस्राव और दाहिने फेफड़े के ऊपरी भाग में चोट के कारण उत्पन्न आघात निर्धारित किया गया ।
- आर.के. दिव्या (PW-10) ने पोस्टमार्टम किया तथा मृत्यु की प्रकृति के बारे में साक्ष्य दिया।
अन्वेषण विवरण:
- अन्वेषण अधिकारी ने मृतक के घर से अपराध में कथित तौर पर प्रयुक्त चाकू बरामद कर लिया।
- कपड़े और अन्य सामान एकत्र कर फोरेंसिक विश्लेषण के लिये भेज दिया गया।
- विचारण के दौरान अधिकांश साक्षी पक्षद्रोही साक्षी हो गए, जिससे अभियोजन पक्ष का मामला कमजोर हो गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
उच्चतम न्यायालय ने साक्ष्य मूल्यांकन के प्रति अधीनस्थ न्यायालयों के दृष्टिकोण में मूलभूत त्रुटियों को उजागर करते हुए कई महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं:
- संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की अग्राह्यता: उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को साक्ष्य के रूप में गलत तरीके से आधार बनाया, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 (IEA) की धारा 25 का उल्लंघन है, जो पुलिस अधिकारियों के समक्ष दिये गए संस्वीकृति युक्त कथनों को पूर्णत: अग्राह्य बनाती है। ऐसी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का उपयोग केवल धारा 8 के अधीन आचरण के साक्ष्य के रूप में या धारा 27 के अधीन खोजों के लिये किया जा सकता है।
- विशेषज्ञ साक्षी के साक्ष्य की परिसीमाएँ: न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि चिकित्सकीय विशेषज्ञ साक्ष्य मात्र सलाहात्मक प्रकृति का होता है और हत्या के दोषसिद्धि के लिये इसे अकेले आधार नहीं बनाया जा सकता। चिकित्सक तथ्यों के साक्षी नहीं होते, अपितु वे विशेषज्ञ राय प्रस्तुत करते हैं। अतः अभियुक्त को केवल चिकित्सकीय साक्ष्य के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उस साक्ष्य की पुष्टि प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के माध्यम से न की गई हो।
- अपवाद 4 का गलत अनुप्रयोग: उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 4 (आकस्मिक झगड़ा) का अनुचित रूप से प्रयोग किया गया। इस अपवाद के लिये समान स्तर पर पक्षकारों के बीच आपसी लड़ाई, बिना किसी पूर्व-योजना, अनुचित लाभ और क्रूर आचरण की आवश्यकता होती है। यहाँ, मृतक निहत्था और हानिरहित था, जिससे यह अनुचित हो जाता है। यदि कोई अपवाद लागू होता, तो वह अपवाद 1 (गंभीर और अचानक प्रकोपन) होना चाहिये था।
- धारा 27 और धारा 8 के विवद्यक: धारा 27 के अधीन कोई उचित खोज स्थापित नहीं हुई क्योंकि पंच गवाहों (panch witnesses) ने खोजों तक पहुँचने वाले सटीक कथन देने में असफल रहे। यद्यपि धारा 8 के अधीन आचरण सुसंगत था, किंतु केवल यही हत्या जैसे गंभीर आरोपों में दोषसिद्धि को उचित नहीं ठहरा सकता।
- समग्र साक्ष्य की विफलता: मामला "कोई विधिक साक्ष्य नहीं" पर आधारित था, क्योंकि इसमें संस्वीकृति युक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) (मुख्य साक्ष्य को छोड़कर) को स्वीकार नहीं किया गया था, अपर्याप्त चिकित्सकीय साक्ष्य, प्रतिकूल पंच गवाहों द्वारा कोई पुष्टि करने वाला परिसाक्ष्य नहीं दिया गया था, तथा अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा गलत विधिक आवेदन प्रस्तुत किये गए थे।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8/ भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 6 क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 6 विधिक कार्यवाही में हेतु, तैयारी और आचरण को दर्शाने वाले तथ्यों की सुसंगति स्थापित करती है।
- इससे पूर्व, यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत आता थी।
इस प्रावधान में दो प्रमुख पहलू सम्मिलित हैं:
- उपधारा (1) - हेतु और तैयारी
- कोई भी तथ्य, जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य का हेतु या तैयारी दर्शित या गठित करता है, सुसंगत है।
- उपधारा (2) - पूर्व या पश्चात् का आचरण
- किसी भी पक्षकार, अभिकर्त्ता या व्यक्ति का आचरण (आपराधिक कार्यवाही में) सुसंगत है यदि ऐसा आचरण किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य को प्रभावित करता है या उससे प्रभावित होता है, चाहे ऐसा आचरण विवाद्यक तथ्य से पूर्व का हो या पश्चात् का।
- प्रमुख सिद्धांत
- हेतु संबंधी साक्ष्य : ऐसे तथ्य जो यह दर्शाते हैं कि कोई व्यक्ति किसी कार्य को क्यों करेगा, अभियुक्त और अपराध के बीच संबंध स्थापित करने के लिये ग्राह्य हैं।
- तैयारी संबंधी साक्ष्य : अपराध करने के लिये व्यवस्थित योजना या तत्परता दिखाने वाले कार्य आशय और पूर्वचिंतन को साबित करने के लिये सुसंगत हैं।
- आचरण की सुसंगति : अपराध-पूर्व और अपराध-पश्चात् दोनों प्रकार का आचरण ग्राह्य है, यदि उसका संबंधित तथ्यों से तार्किक संबंध हो, जिसमें सम्मिलित हैं:
- अपराध करने के पश्चात् फरार होना
- साक्ष्य नष्ट करना या छिपाना
- मिथ्या साक्षियों को प्रस्तुत करना
- अपराध की जानकारी मिलते ही भाग जाना
- चोरी की संपत्ति का कब्ज़ा
- अस्थायी दायरा : यह धारा कथित घटना से पूर्व, उसके दौरान या उसके पश्चात् होने वाले आचरण की बात करती है, बशर्ते कि वह विवाद्यक के तथ्य को प्रभावित करती हो या उससे प्रभावित हो।
- कथनों का अपवर्जन : शुद्ध कथनों को तब तक अपवर्जित किया जाता है जब तक कि वे कृत्यों के साथ न हों और उन्हें स्पष्ट न करें, यद्यपि वे अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अंतर्गत सुसंगत हो सकते हैं।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 क्या है?
- यह धारा इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी को साबित किया जा सकता है।
- यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 23 (2) के उपबंध के अंतर्गत आता है।
- इसमें कहा गया है कि जब किसी तथ्य को पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से प्राप्त सूचना के परिणामस्वरूप खोजा गया माना जाता है, तो ऐसी सूचना का उतना भाग, चाहे वह संस्वीकृति हो या न हो, जो उसके द्वारा खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो, साबित किया जा सकेगा।
- यह धारा अनुवर्ती घटनाओं द्वारा पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है - दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप वास्तव में एक तथ्य की खोज होती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की पुनर्प्राप्ति होती है।