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आपराधिक कानून

सुपुर्दगी चरण

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 06-Aug-2025

कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

"जब एक बार अपराध का संज्ञान ले लिया जाता है, तब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 193 के अंतर्गत जो निषेध (bar) है, वह समाप्त हो जाता है, और अतिरिक्त अभियुक्तों को समन करना सामान्य प्रक्रिया का अंग बन जाता है, इसके लिये पुनः सुपुर्दगी की आवश्यकता नहीं होती।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने निर्णय दिया कि सेशन न्यायालय सुपुर्दगी की चरण पर, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 193 के अंतर्गत किसी अतिरिक्त अभियुक्त को समन कर सकता है, क्योंकि संज्ञान अपराध का लिया जाता है, न कि विशेष रूप से अपराधी का 

  • उच्चतम न्यायालय ने कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • परिवादकर्त्ता विजयलाल की पत्नी शिववती, दिनांक 21 नवम्बर 2018 को लापता हो गई थीं, तथा 24 नवम्बर 2018 को उनका शव झाड़ियों में पड़ा मिला, जिसकी गर्दन पर साल के फंदे के निशान थे 
  • पति ने अजय को संदिग्ध बताते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई और अभिकथित किया कि उसका पीड़िता के साथ अवैध संबंध था 
  • अन्वेषण के दौरान याचिकाकर्त्ता कल्लू नट उर्फ मयंक कुमार नागर का नाम तब सामने आया जब साक्षियों ने बताया कि उसनेअपनी संलिप्तता के बारे मेंन्यायेतर संस्वीकृति की थी 
  • बाद में क्राइम ब्रांच ने याचिकाकर्त्ता को क्लीन चिट दे दी और 21 फरवरी 2019 को केवल अजय के विरुद्ध आरोपपत्र दायर किया।  
  • 11 मार्च 2019 को मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द कर दिया गया और 2 अप्रैल 2019 को पीड़िता के पति ने याचिकाकर्त्ता को अभियुक्त के रूप में समन करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 193 के अधीन एक आवेदन दायर किया। 
  • विचारण न्यायालय कोइस आवेदन पर निर्णय लेनेमें पाँच वर्ष लगे और अंततः साक्षियों के कथनों, मृतक और याचिकाकर्त्ता के बीच 17 कॉलों के विवरण रिकॉर्ड, पीड़िता के साथ याचिकाकर्त्ता के प्रत्यक्षदर्शी बयान, न्यायेतर संस्वीकृति और बलात्संग तथा गला घोंटने की पुष्टि करने वाले पोस्टमार्टम सहित साक्ष्यों के आधार पर इसे अनुमति दे दी गई।  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • विचारण न्यायालय की टिप्पणियाँ: 
    • विचारण न्यायालय ने मृतक और दोनों अभियुक्तों के बीच अवैध संबंधों का अवलोकन किया, जिन्होंने मिलकर षड्यंत्र रचा था 
    • न्यायालय ने मृतक और याचिकाकर्त्ता के बीच संदिग्ध गतिविधियों और व्यापक फोन संचार (17 कॉल) का उल्लेख किया। 
    • न्यायालय ने न्यायेतर संस्वीकृति और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्संग और गला घोंटकर हत्या की पुष्टि को महत्त्व दिया। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 और 302 के अधीन समन भेजने के लिये प्रथम दृष्टया पर्याप्त साक्ष्य विद्यमान थे। 
  • उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ: 
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि समान अनुतोष के लिये पूर्व में धारा 482 के अधीन आवेदन किये जाने के कारण आपराधिक पुनरीक्षण पोषणीय नहीं था। 
    • न्यायालय ने कहा कि सेशन न्यायालय ने धारा 193 की अधिकारिता का वैध रूप से प्रयोग किया है और धर्मपाल मामले पर विश्वास करते हुए आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती। 
  • उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियाँ 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय "अपराध" का संज्ञान लेती हैं, "अपराधी" का नहीं और संलिप्तता स्पष्ट होने पर अतिरिक्त अभियुक्तों को समन कर सकती हैं। न्यायालय ने कहा कि पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता के विपरीत, वर्तमान दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन सुपुर्दगी "मामले" की है, न कि "अभियुक्त" की। 
    • न्यायालय ने कहा कि सेशन न्यायालय को किसी भी अभियुक्त को दण्ड दिये जाने के पश्चात् समन भेजने का पूर्ण अधिकार है। 
    • न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता की धारा 319 संबंधी दलील गलत है, क्योंकि यह भिन्न आधार पर है। 
    • न्यायालय ने कहा कि वास्तविक अपराधियों को ढूंढना और अपराध में सम्मिलित अन्य लोगों को समन भेजना न्यायालय का कर्त्तव्य है। 
    • न्यायालय ने कहा कि अन्वेषण एजेंसियों को अभियुक्तों को दोषमुक्त करने की अनुमति देने से न्याय में बाधा उत्पन्न होगी। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि प्रक्रिया न्याय की दासी होनी चाहिये न कि बाधा उत्पन्न करने वाली। 

सुपुर्दगी चरण क्या है? 

  • सुपुर्दगी चरण एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक चरण है, जहाँमजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट और सामग्री की परीक्षा करके यह निर्धारित करता है कि मामले का विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिये या नहीं। 
  • सुपुर्दगी कार्यवाही के दौरान, मजिस्ट्रेट यह आकलन करता है कि क्या अपराध विशेष रूप से सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, तथा व्यक्तिगत अभियुक्तों के बजाय "मामले" को सुपुर्द करता है। 
  • सुपुर्दगी चरण में, मजिस्ट्रेट सुपुर्द होने के सीमित उद्देश्य के लिये अपराध का संज्ञान करता है, जिसके पश्चात् सेशन न्यायालय मामले पर पूर्ण मूल अधिकारिता मान लेता है। 
  • सुपुर्दगी चरण एक फिल्टर तंत्र के रूप में कार्य करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि केवल उपयुक्त मामले ही सेशन न्यायालय तक पहुँचे, जबकि अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर अतिरिक्त अभियुक्तों को समन करने की न्यायालय की शक्ति को संरक्षित किया जाता है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 213 क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 213, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 193 के अनुरूप है, यह उपबंधित करती है कि कोई भी सेशन न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान मूल अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में तब तक नहीं लेगा जब तक कि मामला मजिस्ट्रेट द्वारा उसे सुपुर्द न कर दिया गया हो। 
  • यह उपबंध इस मौलिक सिद्धांत को स्थापित करता है कि सेशन न्यायालयों को मजिस्ट्रेट द्वारा संचालित सुपुर्दगी प्रक्रिया के माध्यम से मामलों पर विचारण करने का अधिकार प्राप्त होता है।