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पर्यावरणीय विधि

पर्यावरण विधि के अधीन प्रतिकर के सिद्धांत में आनुपातिकता

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 05-Aug-2025

"किसी न किसी रूप में पर्यावरणीय क्षति या हानि उस दोषी संस्था द्वारा कारित की गई है, अथवा वह इतनी आसन्न है कि राज्य बोर्ड को जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम की धारा 33 तथा वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम की धारा 31 के अधीन कार्यवाही प्रारंभ करना अनिवार्य हो जाता है।" 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में,न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्राकी पीठ नेनिर्णय दिया कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वास्तविक या आसन्न पर्यावरणीय नुकसान के लिये जल अधिनियम की धारा 33क और वायु अधिनियम की धारा 31क  के अधीन पर्यावरणीय प्रतिकर अधिरोपित करने का अधिकार है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति बनाम लोधी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड आदि (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति बनाम लोधी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड आदि मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के निदेशों का पालन करते हुए, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) ने जल अधिनियम की धारा 25 और वायु अधिनियम की धारा 21-22 के अधीन अनिवार्य "स्थापना हेतु सहमति" और "संचालन हेतु सहमति" के बिना संचालन करने के लिये कई वाणिज्यिक परिसरों, शॉपिंग मॉल और आवासीय संपत्तियों को कारण बताओ नोटिस जारी किये। प्रवर्तन उपायों के रूप में, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) ने पर्यावरण सहमति प्रमाणपत्र प्रदान करने की पूर्व शर्त के रूप में निश्चित मौद्रिक क्षतिपूर्ति और बैंक प्रत्याभूति की मांग की। 
  • प्रभावित संस्थाओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय में 38 रिट याचिकाएँ दायर कर दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) के ऐसे मौद्रिक आवश्यकताओं को लागू करने के सांविधिक अधिकार को चुनौती दी। 
  • स्प्लेंडर लैंडबेस लिमिटेड बनाम दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) (2010) के मामले में एकल पीठ (Single Judge) ने यह निर्णय दिया कि दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) के पास प्रतिपूरक क्षतिपूर्ति अधिरोपित करने की कोई सांविधिक शक्ति नहीं है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि जुर्माना अधिरोपित करना एक दण्डात्मक कार्यवाही है, जो केवल न्यायालय की अधिकारिता में आता है, और इसे दण्ड संबंधी अध्यायों में विनिर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है। 
  • भारती रियल्टी लिमिटेड बनाम दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) और अनुश फिनलीज (2011) मामलों में इसी प्रकार के निर्णयों में निरतंर यह निर्णय दिया गया कि बोर्ड के पास प्रतिपूर्ति क्षतिपूर्ति वसूलने का कोई अधिकार नहीं है।  
  • खण्ड पीठ (2012) ने इन निष्कर्षों को बरकरार रखा, तथा पुष्टि की कि धारा 33क और 31क में कोई जुर्माना अधिरोपित करने की शक्तियां नहीं दी गई हैं, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) की मौद्रिक मांगों को अधिकारहीन घोषित किया और चुनौती दी गई नोटिसों के आगे प्रवर्तन पर रोक लगाते हुए एकत्रित राशि को वापस करने का आदेश दिया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास जल और वायु अधिनियमों के अधीन व्यापक सांविधिक अधिकार हैं, जिनमें धारा 17 प्रदूषण नियंत्रण योजना, सलाहकार कार्य, निरीक्षण शक्तियां और निवारक उपायों के कार्यान्वयन सहित व्यापक उत्तरदायित्त्व प्रदान करती है। 
  • 1988 में धारा 33क और 31क को शामिल करते हुए संशोधनों ने बोर्डों को महत्त्वपूर्ण निर्देशात्मक प्राधिकार प्रदान किया, जिसमें उद्योग बंद करने, निषेध, विनियमन और आवश्यक सेवा को रोकने का आदेश देने की स्पष्ट शक्तियां सम्मिलित थीं, जिससे पर्यावरण उल्लंघनों के विरुद्ध प्रवर्तन क्षमताएँ मजबूत हुईं। 
  • न्यायालय ने कठोर न्यायिक प्रक्रियाओं की आवश्यकता वाले सांविधिक अपराधों के लिये जुर्माना या कारावास सहित दण्डात्मक कार्रवाइयों और अनिवार्य न्यायालय हस्तक्षेप के बिना पर्यावरणीय बहाली, उपचारात्मक उपायों और भविष्य में होने वाले नुकसान की रोकथाम पर केंद्रित प्रतिपूरक या प्रतिपूर्ति संबंधी कार्रवाइयों के बीच एक मौलिक विधिक अंतर स्थापित किया। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 48क (पर्यावरण संरक्षण) और अनुच्छेद 51क (मौलिक कर्त्तव्य) के अधीन सांविधानिक प्रावधान पर्यावरण नियामकों के लिये बाध्यकारी अनिवार्यताएँ निर्मित करते हैं, और यह भी कहा कि पर्यावरण की रक्षा के लिये राज्य का सांविधानिक दायित्त्व पर्यावरणीय पुनर्स्थापन सुनिश्चित करने के लिये संबंधित संस्थागत कर्त्तव्य के बिना अधूरा रहता है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 33क और 31क के लिये प्रभावी पर्यावरण संरक्षण हेतु व्यापक न्यायिक निर्वचन आवश्यक है। न्यायालय ने कहा कि प्रतिबंधात्मक निर्वचन, बोर्डों के सांविधिक कर्त्तव्यों और सांविधानिक पर्यावरण संरक्षण दायित्त्वों के निर्वहन की क्षमता को महत्त्वपूर्ण रूप से बाधित करेगी। न्यायालय ने कहा कि हाल ही में किये गए 2024 के संशोधन, जिनमें गैर-अपराधीकरण और न्यायनिर्णायक अधिकारी की नियुक्ति सम्मिलित है, बोर्डों की प्रतिपूरक शक्तियों के साथ संघर्ष नहीं करते हैं, और ये बहाली उपायों और दण्ड प्रक्रियाओं के बीच स्पष्ट अंतर बनाए रखते हैं। 
  • प्रतिपूरक शक्तियों की पुष्टि करते हुए , न्यायालय ने गैर-मनमाने निर्णय लेने, प्राकृतिक न्याय समावेशन, पारदर्शी क्षति मूल्यांकन मानदंड और शक्ति प्रयोग के लिये उचित अधीनस्थ विधान ढाँचे सहित प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को अनिवार्य किया। 

उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण प्रतिकर अधिरोपित करने के लिये प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के अधिकार की पुष्टि करने हेतु कौन से ऐतिहासिक मामलों को बरकरार रखा? 

  • उच्चतम न्यायालय नेभारतीय पर्यावरण-विधिक कार्रवाई परिषद बनाम भारत संघ (1996) के मामले को बरकरार रखा, जिसमें प्रदूषक भुगतान सिद्धांत को भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र के मूलभूत घटक के रूप में स्थापित किया गया था, तथा यह मान्यता दी गई थी कि पर्यावरणीय क्षति की मरम्मत का उत्तरदायित्त्व उल्लंघनकारी उद्योग का है और केंद्र सरकार के पास पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के अधीन प्रदूषणकारी संस्थाओं पर उपचारात्मक खर्चे अधिरोपित करने की शक्ति है। 
  • न्यायालय नेवेल्लोर नागरिक कल्याण फोरम बनाम भारत संघ (1996) के मामले पर विश्वास किया, जिसमें पर्यावरणीय उत्तरदायित्व का विस्तार करते हुए इसमें प्रदूषण पीड़ितों के लिये प्रतिपूरक पहलुओं और पर्यावरणीय क्षरण को उलटने के लिये पुनर्स्थापनात्मक पहलुओं को सम्मिलित किया गया, तथा उपचार को सतत विकास के अभिन्न अंग के रूप में स्थापित किया गया और व्यक्तिगत क्षतिपूर्ति तथा पारिस्थितिक पुनर्स्थापन लागत दोनों के लिये प्रदूषक उत्तरदायित्व की पुष्टि की गई। 
  • न्यायालय नेराज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, ओडिशा बनाम मेसर्स स्वास्तिक इस्पात प्राइवेट लिमिटेड (2014) में राष्ट्रीय हरित अधिकरण के निर्णय का समर्थन किया,जिसमें दण्डात्मक दण्ड कार्रवाइयों और प्रतिपूरक पर्यावरणीय उपायों के बीच सही अंतर किया गया था, तथा विशेष रूप से पर्यावरण अनुपालन के लिये बैंक प्रत्याभूति आवश्यकताओं को दण्डात्मक नियामक उपकरणों के बजाय प्रतिपूरक के रूप में मान्यता दी गई थी, जिससे ऐसे प्रवर्तन तंत्रों के लिये बोर्ड के प्राधिकार को वैध बनाया गया था। 
  • न्यायालय ने रिसर्च फाउंडेशन फॉरसाइंस बनाम भारत संघ (2005) का संदर्भ दिया, जिसमें प्रदूषण निवारण लागत, पर्यावरणीय जोखिम परिहार व्यय और पूर्ण पर्यावरणीय लागत आंतरिककरण को सम्मिलित करने के लिये प्रदूषण निवारण से परे प्रदूषण भुगतान सिद्धांत का व्यापक रूप से विस्तार किया गया था, तथा स्थापित किया गया था कि सिद्धांत में प्रतिक्रियात्मक क्षति प्रतिक्रिया और सक्रिय हानि निवारण उपाय दोनों सम्मिलित हैं। 
  • न्यायालय नेएन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ (2025) के मामले को बरकरार रखा, जिसमें पर्यावरण विधि के उल्लंघनकर्त्ताओं के विरुद्ध विधिक कार्यवाही को पर्यावरणीय क्षति बहाली के लिये आवश्यक भिन्न-भिन्न उपायों से स्पष्ट रूप से पृथक् कर दिया गया था, जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि उल्लंघन अभियोजन और पारिस्थितिकी तंत्र बहाली स्वतंत्र विधिक प्रक्रियाएँ हैं, जिनके लिये भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण और उपायों की आवश्यकता होती है, अंततः सांविधिक अधिदेश के अधीन पर्यावरणीय प्रतिकर के लिये बोर्ड के अधिकार की स्थापना करते हुए अपील का समर्थन किया गया। 

भारतीय पर्यावरण विधि के अधीन प्रदूषक भुगतान सिद्धांत कैसे लागू होता है? 

  • सिद्धांत 1 – विधिक कार्रवाइयों के दो अलग-अलग प्रकार 
    • पर्यावरण विधि दो प्रकार की कार्रवाइयों को अलग करता है: 
      • (1) प्रदूषकों से क्षति की भरपाई या भविष्य में होने वाले नुकसान को रोकने के लिये भुगतान करवाना (प्रतिपूरक), और 
      • (2) उल्लंघनकर्त्ताओं को जुर्माना या जेल की सज़ा (दण्डात्मक) देना। इन्हें अलग-अलग तरीक़े से निपटाया जाता है प्रतिकर के लिये आपराधिक दण्ड जैसी कठोर न्यायालय की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती, किंतु दोनों ही पर्यावरण की प्रभावी रूप से रक्षा करते हैं। 
  • सिद्धांत 2 – प्रतिकर दण्ड नहीं है 
    • जब पर्यावरण प्राधिकारी कंपनियों को पर्यावरण बहाली या क्षतिपूर्ति के लिये भुगतान करने का आदेश देते हैं, तो इसे किसी समस्या का समाधान माना जाता है, न कि किसी अपराध को दण्डित करना। 
    • वास्तविक दण्ड केवल उचित विधिक प्रक्रियाओं के साथ औपचारिक न्यायालय की प्रक्रियाओं के माध्यम से ही हो सकता है, जबकि प्रतिकर आदेश आपराधिक न्याय प्रणाली से अलग काम करते हैं। 
  • सिद्धांत 3 - "प्रदूषक भुगतान करता है" नियम 
    • भारतीय पर्यावरण विधि इस अंतर्राष्ट्रीय नियम का पालन करता है कि प्रदूषकों को तीन स्थितियों में पर्यावरणीय क्षति के लिये भुगतान करना होगा: 
      • (1) जब वे प्रदूषण सीमा को पार कर जाते हैं और मापनीय क्षति का कारण बनते हैं, 
      • (2) जब सीमा के भीतर रहने पर भी क्षति होती है, और 
      • (3) जब भविष्य में पर्यावरणीय क्षति का उचित जोखिम हो, तो अधिकारियों को क्षति होने से पहले कार्रवाई करने की अनुमति देना। 
  • सिद्धांत 4 - नुकसान को रोकने का कर्त्तव्य  
    • पर्यावरण नियामकों को पर्यावरणीय क्षति को रोकने के लिये कार्रवाई करनी चाहिये - उन्हें वास्तविक क्षति होने का इंतजार नहीं करना चाहिये 
    • वे संभावित खतरों को वास्तविक समस्या बनने से पहले ही दूर करने के लिये विधि के अधीन सक्रिय रूप से कार्य कर सकते हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिये, जिससे लोक स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा हो सके। 
  • सिद्धांत 5 - सभी स्तरों पर समान शक्तियां 
    • पर्यावरण संरक्षण के मामले में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को केंद्र सरकार के समान ही विधिक अधिकार प्राप्त हैं। 
    • दोनों ही बाध्यकारी आदेश जारी कर सकते हैं, जिसके अधीन प्रदूषणकारी उद्योगों को पर्यावरणीय सुधारात्मक उपायों के लिये धनराशि का भुगतान करना होगा, जिससे सरकार के किसी भी स्तर के शामिल होने पर भी सतत पर्यावरणीय संरक्षण सुनिश्चित हो सके।