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आपराधिक कानून

आपराधिक मुकदमे का स्थानांतरण

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 07-Mar-2025

मेसर्स श्री सेंधुराग्रो एंड ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणब प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक लिमिटेड

"ट्रायल के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई के लिये न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर।"

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जिनमें मुकदमे को स्थानांतरित किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा गया कि मुकदमे का स्थानांतरण नियमित तरीके से नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष तौर पर NIA की धारा 138 के तहत क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर नहीं किया जाना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स श्री सेंधुराग्रो एंड ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणव प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स श्री सेंधुराग्रो और ऑयल इंडस्ट्रीज प्रणब प्रकाश बनाम कोटक महिंद्रा बैंक (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • स्थानांतरण याचिका एक मालिकाना संस्था द्वारा अपने मालिक के माध्यम से चंडीगढ़ के न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी से मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, कोयंबटूर, तमिलनाडु को आपराधिक मामला स्थानांतरित करने के लिये दायर की गई है। 
  • याचिकाकर्त्ता नारियल तेल और उसके उप-उत्पादों के उत्पादन और बिक्री के व्यवसाय में संलिप्त है और कोयंबटूर में स्थित है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने कोयंबटूर में स्थित संपत्तियों के समतुल्य बंधक के विरुद्ध कोटक महिंद्रा बैंक की कोयंबटूर में आर.एस. पुरम शाखा में ओवरड्राफ्ट सुविधाओं का लाभ उठाया। 
  • ऋण कोयंबटूर में संसाधित, स्वीकृत और वितरित किया गया था, जिसमें सभी संपार्श्विक संपत्तियाँ तमिलनाडु में स्थित थीं।

  • याचिकाकर्त्ता ने 2018 में EMI भुगतान में चूक की, जिसके परिणामस्वरूप SARFAESI अधिनियम, 2002 के तहत 2.74 करोड़ रुपये की राशि के लिये डिमांड नोटिस जारी किया गया, जिसके बाद कोयंबटूर में बिक्री नोटिस और संपत्ति की बिक्री हुई।
  • तमिलनाडु के अधिकारिता में सभी लेन-देन होने के बावजूद, प्रतिवादी बैंक ने चंडीगढ़ में 21 लाख रुपये का चेक पेश करना चुना और चंडीगढ़ में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।
  • याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि चंडीगढ़ में मामला दर्ज करना उन्हें परेशान करने के लिये है, क्योंकि वे चंडीगढ़ या स्थानीय भाषा में किसी को नहीं जानते हैं तथा उन्हें न्यायालयी कार्यवाही के लिये तमिलनाडु से बहुत दूर जाना होगा।
  • प्रतिवादी बैंक का तर्क है कि चेक चंडीगढ़ शाखा में प्रस्तुत किया गया था क्योंकि NPA खातों के लिये रूटिंग/संग्रह खाता वहीं स्थित था, जिससे चंडीगढ़ न्यायालय सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय बन गया। याचिकाकर्त्ता चंडीगढ़ न्यायालय के अधिकारिता पर विवाद नहीं कर रहा है, बल्कि इस आधार पर स्थानांतरण की मांग कर रहा है कि यह "न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन है।" उच्चतम न्यायालय ने पहले कार्यवाही पर स्थगन आदेश जारी किया था तथा बैंक से यह बताने के लिये कहा था कि उसने चंडीगढ़ में शिकायत क्यों दर्ज की और कोयंबटूर में क्यों नहीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने NIA में अधिकारिता से संबंधित प्रावधानों का विश्लेषण किया। 
  • न्यायालय ने कहा कि 2015 का संशोधन, जिसमें NIA की धारा 142 (2) और धारा 142 (2) को शामिल किया गया था, दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य (2014) के निर्णय का प्रत्यक्ष परिणाम था। 
  • NIA की धारा 142 (2) यह स्पष्ट करती है कि इस तरह के अपराध की सुनवाई का अधिकार केवल उस न्यायालय में निहित होगा, जिसके अधिकारिता में बैंक की वह शाखा स्थित है, जहाँ चेक को भुगतानकर्त्ता या धारक के खाते के माध्यम से संग्रह के लिये दिया गया था। 
  • नई जोड़ी गई धारा 142-A, संशोधन के लागू होने के बाद ऐसे अधिकारिता वाले न्यायालयों में लंबित मामलों के स्थानांतरण को वैध बनाकर इस स्थिति को और स्पष्ट करती है।
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 406 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” बहुत महत्त्वपूर्ण है। 
  • अधिकारिता से संबंधित विधियों की चर्चा:
    • न्यायालय ने कहा कि जहाँ सिविल न्यायालय की अधिकारिता (i) प्रादेशिक एवं (ii) आर्थिक सीमाओं द्वारा निर्धारित होता है, वहीं आपराधिक न्यायालय की अधिकारिता (i) अपराध और/या (ii) अपराधी द्वारा निर्धारित होता है।
    • यह भी कहा गया कि प्रादेशिक अधिकारिता से संबंधित नियम अध्याय XIII में निहित हैं तथा अध्याय XXXV में इस प्रश्न का उत्तर है कि क्या होता है जब कोई न्यायालय, जिसके पास कोई प्रादेशिक अधिकारिता नहीं है, किसी अपराध की जाँच या सुनवाई करता है।
  • मामलों के स्थानांतरण पर विधि पर चर्चा:
    • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 406 के अंतर्गत मामलों के स्थानांतरण की अनुमति तब दी जा सकती है, जब इस तथ्य की उचित आशंका हो कि न्याय नहीं हो सकता है, तथा पक्षकारों की सुविधा या असुविधा मात्र स्थानांतरण के लिये प्रार्थना करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है। 
    • न्यायालय ने माना कि मुकदमे के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये, तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई के लिये न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर पारित नहीं किया जाना चाहिये। 
    • न्यायालय ने आगे कहा कि CrPC की धारा 406 के तहत मामलों के स्थानांतरण की अनुमति तब दी जा सकती है, जब इस तथ्य की उचित आशंका हो कि न्याय नहीं हो सकता है, तथा पक्षकारों की सुविधा या असुविधा मात्र स्थानांतरण के लिये प्रार्थना करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती है। 
    • न्यायालय को प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उल्लिखित किये गए आधारों को उचित रूप से संतुलित करना होगा तथा धारा 406 के तहत स्थानांतरण का आदेश देते समय विवेकपूर्ण तरीके से अपने विवेक का प्रयोग करना होगा।
    • न्यायालय ने इस मामले में माना कि यद्यपि यह तय करने के लिये कोई कठोर और अनम्य नियम या परीक्षण नहीं रखा जा सकता है कि धारा 406 CrPC के तहत शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिये या नहीं, फिर भी उक्त धारा की उप-धारा (2) एवं (3) के मात्र पढ़ने और इस न्यायालय के निर्णयों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि ट्रायल के स्थानांतरण का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किया जाना चाहिये तथा विशेष रूप से NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई करने के लिये न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता की कमी की दलील पर।
  • वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने माना कि:
    • CrPC की धारा 406 के तहत किसी भी मामले या कार्यवाही को स्थानांतरित करने के उद्देश्य से मामले को “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” अभिव्यक्ति के दायरे में आना चाहिये। 
    • कोयंबटूर से चंडीगढ़ तक यात्रा करने में अभियुक्त को होने वाली असुविधा या कठिनाई “न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन” अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आएगी।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 406 के तहत याचिका के स्थानांतरण के लिये कोई मामला नहीं बनता है।

NI अधिनियम के अंतर्गत अधिकारिता से संबंधित प्रावधान क्या है?

  • परक्राम्य लिखतों से संबंधित अधिकारिता के मामलों का प्रावधान NIA की धारा 142 (2) में किया गया है। 
  • धारा 142 (2) निम्नलिखित प्रावधान करती है:
    • मुकदमे के लिये अधिकारिता – धारा 138 के तहत अपराध की सुनवाई केवल उस न्यायालय में की जाएगी जिसका अधिकारिता उस स्थान पर आधारित होगा जहाँ चेक संसाधित किया गया था।
    • यदि चेक वसूली के लिये जमा किया जाता है (किसी खाते के माध्यम से)
      • मामले की सुनवाई उस न्यायालय में की जाएगी जहाँ बैंक शाखा स्थित है, जहाँ आदाता (धन प्राप्तकर्त्ता) या धारक का खाता है।
    • यदि भुगतान के लिये चेक प्रस्तुत किया जाता है (खाता स्थानांतरण के बिना)
      • मामले की सुनवाई उस न्यायालय में की जाएगी जहाँ चेक जारी करने वाले का खाता आहर्ता बैंक में है।
    • खंड (क) के लिये स्पष्टीकरण:
      • यदि चेक आदाता के बैंक की किसी शाखा में जमा किया जाता है, तो इसे उस शाखा में जमा माना जाएगा जहां आदाता का खाता है।

CrPC की धारा 406 के तहत मामलों के स्थानांतरण पर विधि क्या है?

  • धारा 406:
    • यह धारा उच्चतम न्यायालय को किसी आपराधिक मामले या अपील को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में अथवा एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति प्रदान करती है। 
    • उच्चतम न्यायालय इस धारा के अंतर्गत केवल भारत के महान्यायवादी या किसी हितबद्ध पक्ष के आवेदन पर ही कार्य कर सकता है, तथा ऐसा प्रत्येक आवेदन प्रस्ताव द्वारा किया जाएगा, जो, जब तक कि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता न हो, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा।
  • वर्तमान मामले में न्यायालय ने मुकदमे के स्थानांतरण के लिये विचारणीय कारकों को निर्धारित किया है:
    • जब ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य मशीनरी या अभियोजन पक्ष अभियुक्त के साथ मिलकर काम कर रहा है, तो अभियोजन पक्ष के उदासीन रवैये के कारण न्याय की विफलता की संभावना है।
    • जब यह दिखाने के लिये सामग्री हो कि अभियुक्त अभियोजन पक्ष के साक्षियों को प्रभावित कर सकता है या शिकायतकर्त्ता को शारीरिक क्षति पहुँचा सकता है।
    • अभियुक्त, शिकायतकर्त्ता/अभियोजन पक्ष और साक्षियों को होने वाली तुलनात्मक असुविधा एवं कठिनाइयाँ, इसके अतिरिक्त सरकारी और गैर-सरकारी साक्षियों की यात्रा और अन्य खर्चों का भुगतान करने में राज्य के खजाने द्वारा वहन किया जाने वाला बोझ, सांप्रदायिक रूप से उत्तेजित माहौल, जो लगाए गए आरोपों और अभियुक्त द्वारा किये गए अपराध की प्रकृति के कारण निष्पक्ष सुनवाई करने में असमर्थता का कुछ साक्ष्य दर्शाता है।
    • कुछ ऐसी सामग्री का अस्तित्व जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ व्यक्ति इतने शत्रुतापूर्ण हैं कि वे न्याय की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप कर रहे हैं या हस्तक्षेप करने की संभावना रखते हैं।
  • यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि उपर्युक्त कारक संपूर्ण नहीं हैं तथा निष्पक्ष सुनवाई की आवश्यकताओं को दर्शाने वाले मात्र हैं।