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सांविधानिक विधि

नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6a के संबंध में

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 09-Sep-2025

परिचय 

यह ऐतिहासिक मामला नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6क की सांविधानिक वैधता से संबंधित है, जिसे 1985 में हस्ताक्षरित असम समझौते को विधायी प्रभाव प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया था। इस उपबंध ने 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद असम में आए अप्रवासियों से निपटने के लिए एक विशेष नागरिकता व्यवस्था बनाई थी। 

तथ्य 

  • 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बादअसम में आप्रवासियों का भारी प्रवाह हुआ, जिसके कारण विभिन्न समूहों ने इस आप्रवासन के विरुद्ध व्यापक विरोध प्रदर्शन किया। 
  • 15 अगस्त 1985 को, असम में आप्रवासन समस्या के समाधान हेतु केंद्र सरकार और प्रदर्शनकारी समूहों के बीच असम समझौते पर हस्ताक्षर किये गए 
  • असम समझौते को लागू करने के लिये संसद ने 1985 में नागरिकता अधिनियम में धारा 6क को अधिनियमित किया, जिससे असम में नागरिकता के लिये विशेष उपबंध बनाए गए। 
  • धारा 6क के अधीन, 1 जनवरी 1966 से पहले असम में प्रवेश करने वाले भारतीय मूल के प्रवासियों कोस्वतः ही भारतीय नागरिक के रूप में मान्यता दी गई। 
  • जो लोग 1 जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच यहाँ आये थे, वे विनिर्दिष्ट शर्तों के अधीन नागरिकता के लिये पात्र थे: विदेशी अधिकरण द्वारा 'विदेशी' के रूप में पहचाने जाना, असम का सामान्य निवासी बने रहना, और दस वर्षों के लिये मतदाता सूची से नाम हटाया जाना। 
  • 24 मार्च 1971 के बाद प्रवेश करने वाले सभी आप्रवासियों को अवैध माना गया और उन्हें निर्वासित किया गया। 
  • अनुच्छेद 32 के अधीन कई रिट याचिकाएँ दायर की गईं, जिनमें संसदीय शक्ति की कमी और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर धारा 6क की सांविधानिक वैधता को चुनौती दी गई। 
  • 17 दिसंबर 2014 को एक खंडपीठ ने महत्त्वपूर्ण सांविधानिक प्रश्नों के कारण मामले को संविधान पीठ को सौंप दिया। 
  • पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश, न्यायमूर्ति जमशेद बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई की। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया किधारा 6क भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह केवल असम पर लागू होती हैऔर अनुच्छेद 14 के अधीन समता के सिद्धांत का उल्लंघन करती है। 

विवाद्यक 

  • क्या संसद को संविधान के अनुच्छेद 6, 7 और 11 के अंतर्गत नागरिकता अधिनियम की धारा 6क को अधिनियमित करने की शक्ति प्राप्त है? 
  • क्या धारा 6क केवल असम के लिये विशेष नागरिकता व्यवस्था बनाकर अनुच्छेद 14 के अधीन समता के अधिकार का उल्लंघन करती है? 
  • क्या धारा 6क अनुच्छेद 29 के अधीन अल्पसंख्यक हितों के संरक्षण का उल्लंघन करती है और असम के स्वदेशी लोगों को प्रभावित करती है? 
  • क्या धारा 6क राज्यों को बाह्य आक्रमण से बचाने के संघ के कर्त्तव्य से संबंधित अनुच्छेद 355 का उल्लंघन करती है? 
  • क्या धारा 6 के अंतर्गत निर्धारित अंतिम तिथियाँ और प्रक्रियाएँ मनमानी और अनुचित हैं? 
  • क्या कार्यान्वयन में अनिश्चितकालीन विलंब धारा 6क को सांविधानिक रूप से अमान्य बनाता है? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

धारा 6क को अधिनियमित करने की संसदीय शक्ति: 

  • बहुमत ने माना कि भाग 2 के अनुच्छेद 5-11 केवल संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता निर्धारित करते हैं, जबकि प्रारंभ के बाद की नागरिकता सूची I की प्रविष्टि 17 के साथ अनुच्छेद 246 के अधीन संसदीय विधि द्वारा शासित होती है। 
  • संसद को नागरिकता पर विधि बनाने का पूर्ण अधिकार है, और धारा 6क अनुच्छेद 6 और 7 के मूल उद्देश्य के अनुरूप है, जो राजनीतिक अशांति से प्रभावित भारतीय मूल के व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान करने का प्रयास करता है। 
  • न्यायमूर्ति पारदीवाला ने असहमति जताते हुए तर्क दिया कि धारा 6क अनुच्छेद 6 और 7 से भिन्न है, क्योंकि यह नागरिकता स्थापित करने का भार व्यक्तियों के बजाय राज्य पर डालती है तथा इसमें आवेदन के लिए स्पष्ट कट-ऑफ तिथि का अभाव है। 

अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं: 

  • न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 14 विधायी उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध के साथ सुबोध विभेद के आधार पर उचित वर्गीकरण की अनुमति देता है। 
  • असम की अनोखी स्थिति, जिसमें प्रवासियों की अधिक संख्या और छोटा भौगोलिक क्षेत्र सम्मिलित है, ने अन्य राज्यों की तुलना में उसके साथ अलग व्यवहार को उचित ठहराया। 
  • संघीय ढाँचा राज्यों के साथ अलग संधि व्यवस्था की अनुमति देता है, और असम समझौते को लागू करने के लिये धारा 6क लागू की गई थी, जो राज्य-विशिष्ट विधि के लिये पर्याप्त औचित्य प्रदान करती है। 

धारा 6 मनमानी नहीं है:  

  • बहुमत का मत था कि भिन्न-भिन्न कट-ऑफ तिथियों के लिये ऐतिहासिक एवं वैध कारण विद्यमान थे : 1 जनवरी 1966 वह तिथि थी जब प्रवासियों को पहले ही निर्वाचन नामावली में सम्मिलित किया जा चुका था, तथा 25 मार्च 1971 वह तिथि थी जब बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का आरंभ हुआ और बांग्लादेशी नागरिकता प्रदान की गई।  
  • "सामान्य निवास" की अवधारणा को पर्याप्त रूप से परिभाषित माना गया तथा इसे असांविधानिक रूप से अस्पष्ट नहीं ठहराया गया। 
  • न्यायमूर्ति पारदीवाला ने असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि प्रवासियों की पहचान हेतु समयसीमा का अभाव, स्वैच्छिक रूप से नागरिकता आवेदन करने की असंभवता, तथा निवास की अस्पष्ट शर्तें धारा 6 को मनमाना एवं अव्यावहारिक बनाती हैं।  

अनुच्छेद 29 के अधीन स्वदेशी अधिकारों का संरक्षण: 

  • बहुमत ने माना कि असम की विशिष्ट भाषा, संस्कृति और लिपि अनुच्छेद 29(1) के अधीन संरक्षण की हकदार है। 
  • यद्यपि, धारा 6क में अवैध आप्रवासियों का समय पर पता लगाने और उन्हें निर्वासित करने का उपबंध है, इसलिये चुनौती सांविधनिकता के बजाय गैर-कार्यान्वयन के विरुद्ध होनी चाहिये 
  • विभिन्न जातीय समूहों की उपस्थिति मात्र अनुच्छेद 29(1) के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती है, और अलग-अलग संस्कृतियों की रक्षा के लिये सांविधानिक प्रावधान विद्यमान हैं।  

अनुच्छेद 355 का उल्लंघन नहीं: 

  • न्यायालय ने अनुच्छेद 355 के अधीन राज्यों को बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाने के संघ के कर्त्तव्य को मान्यता दी। 
  • यद्यपि, धारा 6क अप्रतिबंधित प्रवासन को बढ़ावा देने के बजाय नागरिकता के लिये एक विनियमित दृष्टिकोण प्रदान करती है, और इसे बाहरी आक्रमण नहीं माना जा सकता। 

कार्यान्वयन के लिये निदेश: 

  • न्यायालय ने बेहतर प्रवर्तन के लिये विशिष्ट निदेश जारी किये: सर्बानंद सोनोवाल बनाम भारत संघ (2005) के निर्वासन दिशानिर्देशों का पालन करना, अप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम 1950 को धारा 6क के साथ एकीकृत करना, तथा अवैध अप्रवासियों की समय पर पहचान के लिये सांविधिक ढाँचे और अधिकरणों को बढ़ाना। 

निष्कर्ष 

4:1 के बहुमत से संविधान पीठ ने धारा 6क की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखा, जबकि न्यायमूर्ति पारदीवाला ने असहमति जताते हुए इसे असांविधानिक घोषित कर दिया, जिससे उन लोगों को संरक्षण मिल सके जो पहले ही इस प्रावधान से लाभान्वित हो चुके हैं।