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नवीनतम निर्णय

नवंबर 2023

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 09-Jan-2024

अवन कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

awan Kumar v. State of UP

निर्णय/आदेश की तिथि: 21.11.2023

पीठ की संख्या: 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना: न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया

मामला संक्षेप में:

  • इस केस में चार अभियुक्त थे, अभियुक्त 1 (A1), A2, A3, और A4।
  • मुकदमे के दौरान अभियुक्त A4 की मृत्यु हो गई और उसका केस समाप्त हो गया तथा शेष तीन को दोषी ठहराया गया।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने फैसले को बरकरार रखा।
  • इस बीच, जहाँ तक A1 व A2 का सवाल है, जो क्रमशः वर्तमान अपीलकर्त्ता (A3) के पिता और भाई हैं, उन्हें राज्य की छूट नीति के तहत 19 वर्ष से अधिक समय तक कारावास में रहने के बाद समय से पूर्व रिहा कर दिया गया था।
  • A3 ने SC के समक्ष कथित अपराध के समय किशोर होने का दावा किया है, उसकी याचिका को ट्रायल कोर्ट और HC ने खारिज़ कर दी थी क्योंकि ज़िला अस्पताल, बाराबंकी के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की देखरेख में बोन ऑसिफिकेशन टेस्ट (Bone Ossification Test) किया गया था, जहाँ अपीलकर्त्ता की आयु लगभग 19 वर्ष दर्ज की गई थी।
  • बोन ऑसिफिकेशन टेस्ट के अलावा, A3 ने किशोर न्याय देखभाल और संरक्षण अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) की धारा 2(k) के तहत अपनी किशोरावस्था का दावा करने के लिये अपना स्कूल सर्टिफिकेट भी रखा।
  • इस प्रकार वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त के स्कूल सर्टिफिकेट के आधार पर उसके किशोर होने को स्वीकार किया और कहा कि बोन ओसिफिकेशन टेस्ट के आधार पर चिकित्सीय राय पूर्णत: सही नहीं है।
  • उच्चतम न्यायालय ने किशोरावस्था के प्रश्न पर अपील को यह कहते हुए आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया कि यदि किशोरावस्था को निर्धारित नहीं किया जा सकता है तो उसमें 1 वर्ष की कटौती की जा सकती है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • JJ अधिनियम की धारा 2(k) - किशोर:
    • "किशोर" या "बच्चे" का अर्थ वह व्यक्ति है जिसने अठारह वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है।

[मूल निर्णय]


Shakeel Ahmed v. Syed Akhlaq Hussain

शकील अहमद बनाम सैयद अखलाक हुसैन

निर्णय/आदेश की तिथि – 01.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल

मामला संक्षेप में:

  • अपीलकर्त्ता वह है जो मूल रूप से एक संपत्ति के स्वामित्व और मध्यवर्ती लाभ के मुकदमे में प्रतिवादी था।
  • प्रतिवादी ने पावर ऑफ अटॉर्नी, विक्रय का एक समझौता, एक हलफनामे और अपने पक्ष में एक वसीयत के आधार पर संपत्ति के अधिकार का दावा करते हुए मुकदमा दायर किया।
  • जो व्यक्ति अब अपील कर रहा है (अपीलकर्त्ता) संपत्ति पर उसका अधिकार था क्योंकि उसे यह संपत्ति उसके भाई से उपहार के रूप में मिली थी।
  • उन्होंने विभिन्न आधारों पर मुकदमा लड़ा, लेकिन न्यायालय ने मूल मुकदमा शुरू करने वाले व्यक्ति (प्रतिवादी) के पक्ष में निर्णय सुनाया, जिससे उन्हें संपत्ति और उससे होने वाले किसी भी लाभ का अधिकार मिल गया।
  • अपीलकर्त्ता इस निर्णय से असहमत था और मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय में ले गया, लेकिन उच्च न्यायालय ने पूर्व निर्णय को बरकरार रखा।
  • अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अपंजीकृत बिक्री समझौते के आधार पर या अपंजीकृत जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर स्थावर संपत्तियों के संबंध में कोई भी स्वामित्व हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि भले ही ये दस्तावेज़ पंजीकृत किये गए हों, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि प्रतिवादी ने विवादित संपत्ति पर अधिकार प्राप्त कर लिया होगा। अधिक-से-अधिक, पंजीकृत बिक्री समझौते के आधार पर, वह उचित कार्यवाही में विशिष्ट प्रदर्शन के अनुतोष का दावा कर सकता था। इस संबंध में रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 49 और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 का संदर्भ लिया जा सकता है।
  • न्यायालय ने अपील की अनुमति देते हुए कहा कि कानून अच्छी तरह से व्यवस्थित है कि स्थावर संपत्ति में कोई भी अधिकार, स्वामित्व या हित पंजीकृत दस्तावेज़ के बिना प्रदान नहीं किया जा सकता है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • TPA की धारा 54 - विक्रय
    • विक्रय की परिभाषा - “विक्रय” ऐसी कीमत के बदले में स्वामित्व का अंतरण है जो दी जा चुकी हों, या जिसके देने का वचन दिया गया हो या जिसका कोई भाग दे दिया गया हो और किसी भाग को देने का वचन दिया गया हो।
    • विक्रय कैसे किया जाता है - ऐसा अंतरण एक सौ रूपए और उससे अधिक के मूल्य की मूर्त स्थावर संपत्ति की दशा में, या किसी उत्तर-भोग या अन्य अमूर्त वास्तु की दशा में केवल रजिस्ट्रीकरण लिखत द्वारा किया जा सकता है।
      • एक सौ रूपए से कम मूल्य की मूर्त स्थावर संपत्ति की दशा में ऐसा अंतरण या तो रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा या संपत्ति के परिदान द्वारा किया जा सकेगा। मूर्त स्थावर संपत्ति का परिदान तब होता जाता है जब विक्रेता क्रेता या क्रेता द्वारा निर्दिष्ट व्यक्ति का संपत्ति पर कब्ज़ा करा देता है।
    • विक्रय-संविदा - स्थावर संपत्ति की विक्रय-संविदा यह संविदा है कि उस स्थावर संपत्ति का विक्रय पक्षकारों के बीच तय हुए निबंधनों पर होगा। वह स्वतः ऐसी संपत्ति में कोई हित या उस पर कोई भार सृष्ट नहीं करती।

[मूल निर्णय]


Moturu Nalini Kanth v. Gainedi Kaliprasad

मोतुरु नलिनी कंठ बनाम गैनेडी कालीप्रसाद

निर्णय/आदेश की तिथि 20.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय कुमार

मामला संक्षेप में:

  • नलिनी कंठ, जो अपीलकर्त्ता है, ने दावा किया कि उसे 70 वर्षीय महिला वेंकुबायम्मा ने गोद लिया था, जब वह एक वर्ष से कम उम्र का था।
  • अपीलकर्त्ता के अनुसार, इस दत्तक ग्रहण को 20 अप्रैल, 1982 के एक पंजीकृत दत्तक ग्रहण विलेख के माध्यम से औपचारिक रूप दिया गया था।
  • इसके अतिरिक्त, उसने दावा किया कि वेंकुबायम्मा ने 3 मई, 1982 को एक पंजीकृत वसीयतनामें के माध्यम से अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर दी थी।
  • नलिनी ने आगे तर्क दिया कि वेंकुबायम्मा ने 26 मई, 1981 की अपनी पिछली वसीयत रद्द कर दी थी, जो उनके पोते कालीप्रसाद के पक्ष में थी।
  • वेंकुबायम्मा की संपत्तियों पर अपने अधिकारों का दावा करने के लिये, अपीलकर्त्ता ने घोषणात्मक और पारिणामिक अनुतोष की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया। और, वसीयत के दावे को साबित करने के लिये भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 69 के तहत एक गवाह पेश किया।
  • वेंकुबायम्मा के पोते कालीप्रसाद ने इस मुकदमे का विरोध किया था।
    • उसने दत्तक ग्रहण विलेख के साथ-साथ वसीयत विलेख को भी चुनौती दी, जिसके तहत नलिनी कंठ ने अधिकारों का दावा किया था।
    • उसके अनुसार, वेंकुबायम्मा वृद्ध थीं और स्वतंत्र इच्छा तथा चेतना का प्रयोग करने की स्थिति में नहीं थीं। उसने दावा किया कि दत्तक ग्रहण सत्य, वैध या उसके लिये बाध्यकारी नहीं था।
  • प्रधान अधीनस्थ न्यायाधीश ने अपीलकर्त्ता के पक्ष में निर्णय सुनाया और मुकदमे की डिक्री मंज़ूर कर दी।
  • फिर भी, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपील पर अपीलकर्त्ता के विरुद्ध निर्णय सुनाया।
  • वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि "IEA की धारा 69 के प्रयोजनों के लिये, केवल एक यादृच्छिक साक्षी की जाँच करना पर्याप्त नहीं है जो दावा करता है कि उसने प्रमाणित साक्षी को वसीयत में अपने हस्ताक्षर करते हुए देखा था"।
    • वसीयत को प्रमाणित करने वाले कम-से-कम एक साक्षी की जाँच पर ज़ोर देने का मूल उद्देश्य पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा यदि ऐसी आवश्यकता को केवल एक भटके हुए साक्षी से यह बयान कराने तक सीमित कर दिया जाता है कि उसने प्रमाणित साक्षी को वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा था।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह अपील खारिज़ कर दी।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • IEA की धारा 69 - जब किसी भी अनुप्रमाणक साक्षी का पता न चले –
    • यदि किसी अनुप्रमाणक साक्षी का पता न चल सके अथवा यदि दस्तावेज़ का यूनाइटेड किंगडम में निष्पादित होना तात्पर्यित हो तो यह साबित करना होगा कि कम-से-कम एक अनुप्रमाणक साक्षी का अनुप्रमाण उसी के हस्तलेख में है, तथा यह कि दस्तावेज़ का निष्पादन करने वाले व्यक्ति का हस्ताक्षर उसी व्यक्ति के हस्तलेख में है।

[मूल निर्णय]


Johnson v. S. Selvaraj

जॉनसन बनाम एस. सेल्वराज

निर्णय/आदेश की तिथि 10.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल

मामला संक्षेप में:

  • उच्चतम न्यायालय एक अपील पर विचार कर रहा था, जिसमें गवाहों से ज़िरह सहित रिकॉर्ड पर कुछ दस्तावेज़ तमिल भाषा में थे।
  • अनुशासन समिति के सदस्य तमिल भाषा से परिचित नहीं थे और अनुवाद के लिये Google लेंस का उपयोग करते थे।
  • बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा बनाए गए अनुशासनिक कार्यवाही के संबंध में नियमों के नियम 9 के उप-नियम 2 के साथ पठित नियम 17 के उप-नियम 3 के अनुसार, बार काउंसिल को ऐसे दस्तावेज़ों का अंग्रेज़ी में अनुवाद प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हालाँकि नियमों के तहत, ऐसे दस्तावेज़ों का अनुवाद प्राप्त करना अनुशासन समिति की ज़िम्मेदारी है, यहाँ तक कि पार्टियाँ भी दस्तावेज़ों का अनुवाद करवा सकती हैं क्योंकि विभिन्न अनुवाद सॉफ्टवेयर और कृत्रिम बुद्धिमता के विकल्प अब उपलब्ध हैं।
  • इससे अनुशासनिक कार्यवाही में देरी को कम करने में सहायता मिल सकती है।

निर्णयज विधि:

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अनुशासनिक कार्यवाही हमेशा बार के एक सदस्य के विरुद्ध होती है। बार का संबंधित सदस्य यह सुनिश्चित करने के लिये हमेशा चिंतित रहेगा कि कार्यवाही जल्द-से-जल्द समाप्त हो जाए।
  • इसलिये, अनुशासन समिति के लिये यह विकल्प हमेशा खुला रहेगा कि वह बार के सदस्यों को उन प्रासंगिक दस्तावेज़ों का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत करने का सुझाव दे जो अंग्रेज़ी में नहीं हैं। इससे अनुशासनिक कार्यवाही के निपटान में होने वाली देरी से बचा जा सकेगा।''

[मूल निर्णय]


Balaram v. State of Madhya Pradesh

बलराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि 08.11.2023

पीठ की संख्या 3 न्यायाधीश

पीठ की संरचना  – Justice B.R. Gavai, P.S. Narasimha, Aravind Kumar  

मामला संक्षेप में:

  • उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध दायर एक अपील पर सुनवाई करते हुए, जहाँ उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों, अर्थात् रामेश्वर (मृतक) और बलराम पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 (हत्या की सज़ा) सहित कई प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है।
  • अभियोजन साक्षी(PW)5-रामकली, PW6-मूलचंद अपने बेटे (अशोक) के साथ एक बैलगाड़ी पर यात्रा कर रहे थे और अभियुक्तों ने उन पर हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप अशोक की मृत्यु हो गई।
  • जिन छह व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया, उनमें से ट्रायल कोर्ट ने उपर्युक्त दो अभियुक्तों को दोषी ठहराया, और उच्च न्यायालय के आदेश से उनकी सज़ा की पुष्टि की गई।
  • अपीलकर्त्ता के लिये यह प्रस्तुत किया गया था कि 'पुरानी दुश्मनी एक दोधारी हथियार होती है, तथा इस तरह झूठे निहितार्थ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है' और वकील ने अपीलकर्त्ता को बरी करने का आग्रह किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने दो गवाहों के बयान पर अविश्वास प्रकट करते हुए एक अभियुक्त को बरी कर दिया और अन्य दो को दोषी ठहराया था।
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने एक अभियुक्त के संबंध में प्रत्यक्षदर्शी की गवाही स्वीकार नहीं करते हुए एक अलग मानक लागू किया है; हालाँकि इसने अन्य दो अभियुक्तों को समान सबूतों के आधार पर दोषी ठहराया।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जिन गवाहियों के आधार पर अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया, वे पूरी तरह से अविश्वसनीय हैं और उन्हें पूर्णतया खारिज़ किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और अभियुक्त को बरी कर दिया।

निर्णयज विधि:

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय किया कि जहां तक आरोपी उमा चरण का संबंध है, ट्रायल कोर्ट ने PW 5-रामकली औरPW6-मूलचंद की गवाही पर अविश्वास किया, यह वर्तमान अपीलकर्त्ता-बलराम और रामेश्वर (मृत्यु के बाद से) के मामले पर विचार करते समय एक अलग मानक लागू नहीं कर सकता था तथा उनका सुविचारित मत है कि PW5-रामकली और PW6-मूलचंद की गवाही पूरी तरह से अविश्वसनीय गवाहों की श्रेणी में आएगी।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • IPC की धारा 302-हत्या के लिये सज़ा:
    • जो कोई भी हत्या करेगा उसे मृत्यु या आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी और ज़ुर्माना भी देना होगा।

[मूल निर्णय]


Munishamappa v. N. Rama Reddy and others

मुनिशमप्पा बनाम एन. राम रेड्डी और अन्य

निर्णय/आदेश की तिथि – 02.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – Justice Vikram Nath and Rajesh Bindal.

मामला संक्षेप में:

  • उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2011 में दायर की गई सिविल अपील, वर्ष 1990 में निष्पादित बिक्री समझौते से संबंधित थी। इसे इस प्रत्याशा में निष्पादित किया गया था कि विभाजन अधिनियम निरस्त कर दिया जाएगा, जो अंततः वर्ष 1991 में हुआ।
  • जब बिक्री निष्पादित करने से इनकार कर दिया गया, तो प्रतिवादियों ने संविदा के विशिष्ट पालन के लिये मुकदमा दायर किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा खारिज़ कर दिया, लेकिन प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इसकी अनुमति दे दी।
  • द्वितीय अपील में, उच्च न्यायालय ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को यह कहते हुए उलट दिया और मुकदमा खारिज़ कर दिया कि समझौता विभाजन अधिनियम के तहत वर्जित था।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विभाजन अधिनियम की धारा 5 के तहत पट्टा/बिक्री/हस्तांतरण या अधिकारों का अंतरण वर्जित था।
  • न्यायालय ने माना कि चूँकि विक्रय का समझौता भूमि पर कोई अधिकार प्रदर्शित नहीं कर रहा है, इसलिये इसे अधिनियम द्वारा वर्जित नहीं माना जा सकता है और विभाजन अधिनियम के निरस्त होने के बाद मुकदमा दायर किया गया था।
  • इसलिये, न्यायालय ने अपील की अनुमति दे दी।
  • यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'विक्रय' के लिये एक 'संविदा' से ऐसी संपत्ति पर कोई ब्याज या शुल्क आरोपित नहीं होता है।

निर्णयज विधि:

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि विक्रय का समझौता कोई हस्तांतरण नहीं है; यह स्वामित्व का अधिकार हस्तांतरित नहीं करता है या कोई उपाधि प्रदान नहीं करता है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • TPA,1882 की धारा 54-
    • 'विक्रय' की परिभाषा- 'विक्रय' ऐसी कीमत के बदले में स्वामित्व का अंतरण है जो दी जा चुकी हो, या जिसके देने का वचन दिया गया हो या जिसका कोई भाग दे दिया गया हो और किसी भाग के देने का वचन दिया गया है।
    • विक्रय कैसे किया जाता है- ऐसा अंतरण एक सौ रुपए या उससे अधिक के मूल्य की मूर्त स्थावर संपत्ति की दशा में, या किसी उत्तर-भोग या अन्य अमूर्त वास्तु की दशा में केवल रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा किया जा सकता है।
    • एक सौ रुपए से कम मूल्य की मूर्त स्थावर संपत्ति की दशा में ऐसा अंतरण या तो रजिस्ट्रीकृत लिखत द्वारा या संपत्ति के परिदान द्वारा किया जा सकेगा।
    • मूर्त स्थावर संपत्ति का परिदान तब होता है जब विक्रेता क्रेता या क्रेता द्वारा निर्दिष्ट व्यक्ति का संपत्ति पर कब्ज़ा करा देता है।
    • विक्रेता-संविदा- स्थावर संपत्ति की विक्रय-संविदा यह संविदा है कि उस स्थावर संपत्ति का विक्रय पक्षकारों के बीच तय हए निबंधनों पर होगा।
    • वह स्वतः ऐसी संपत्ति में कोई हित या उस पर कोई भार सृष्ट नहीं करती।

[मूल निर्णय]


Amandeep Singh Sran v. State of Delhi

अमनदीप सिंह सरन बनाम दिल्ली राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि – 06.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना –न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

मामला संक्षेप में:

याचिकाकर्त्ता ने देश भर के विभिन्न राज्यों में याचिकाकर्त्ता के खिलाफ दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को एक साथ जोड़ने और भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करके दिल्ली राज्य में किसी भी उपयुक्त जाँच एजेंसी/न्यायालय के समक्ष एक साथ लाने के लिये उच्चतम न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर की।

  • याचिकाकर्त्ता के खिलाफ छत्तीसगढ़ राज्य में 10 FIR, तमिलनाडु राज्य में 4 FIR, राजस्थान राज्य में 8 FIR, महाराष्ट्र एवं दिल्ली प्रत्येक राज्य में 2 FIR और मध्य प्रदेश राज्य में 3 FIR तथा हरियाणा राज्य में 1 FIR सहित कुल 30 FIR दर्ज की गईं।
  • न्यायालय ने COI के अनुच्छेद 142 के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इनकार कर दिया, लेकिन याचिकाकर्त्ता को FIR को जोड़ने के लिये प्रत्येक क्षेत्राधिकार वाले उच्च न्यायालयों से संपर्क करने की स्वतंत्रता सुरक्षित है।

निर्णय:

  • याचिकाकर्त्ता के खिलाफ FIR न केवल भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों के तहत दर्ज की गई है, बल्कि इसमें निवेशकों की सुरक्षा के लिये बनाए गए विभिन्न राज्य अधिनियमों को भी लागू किया गया है।
  • प्रत्येक राज्य ने इन अपराधों के लिये विशेष न्यायालय नामित किये थे, जिससे FIR को संयोजित करना चुनौतीपूर्ण हो गया था, क्योंकि इससे इन विशेष न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र कमज़ोर हो गया था।

प्रासंगिक प्रावधान:

COI का अनुच्छेद 142 - उच्चतम न्यायालय के आदेशों एवं डिक्रियों का प्रवर्तन और जब तक कि खोज आदि न हो।

(1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा।

(2) संसद‌ द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाज़िर कराने के, किन्हीं दस्तावेज़ों के प्रकटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिये कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी।

[मूल निर्णय]


Vishnu Kumar Shukla & Anr. v. The State of Uttar Pradesh & Anr.

विष्णु कुमार शुक्ला एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य  

निर्णय/आदेश की तिथि – 28.11.2023

पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – Justice Vikram Nath and Justice Ahsanuddin Amanullah

मामला संक्षेप में:

  • यह अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष की गई है, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा दिये गए अंतिम निर्णय के विरुद्ध निर्देश दिया गया है, जिसमें अपीलकर्त्ताओं की रिहाई की मांग को खारिज़ करते हुए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ द्वारा पारित आदेश को बरकरार रखा गया है।
  • आरोप यह है कि प्रतिवादी हरि नारायण शुक्ला नामक व्यक्ति के घर में स्थित एक दुकान का किरायेदार था।
  • अपीलकर्त्ताओं ने अन्य लोगों के साथ मिलकर दुकान का दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया, दीवार तोड़ दी और सामान लूट लिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त को आरोप मुक्त करने से इनकार कर दिया गया था।

निर्णयज विधि:

  • अपीलकर्त्ताओं को तंग करने वालों से और अनुचित आपराधिक अभियोजन से तथा अनावश्यक रूप से अंतिम मुकदमे की कठोर प्रक्रिया से बचाया जाना चाहिये। उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करके अपीलकर्त्ताओं को आरोप मुक्त करना चाहिये था।

[मूल निर्णय]


विजय बनाम भारत संघ एवं अन्य

Vijay v. Union of India & Ors.

निर्णय/आदेश की तिथि – 29.11.2023

बेंच की संख्या - 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना - न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल

मामला संक्षेप में:

  • वादी और प्रतिवादी ने 4 फरवरी, 1998 को बिक्री का समझौता किया।
  • जब प्रतिवादी ने ऐसे किसी समझौते के अस्तित्व से इनकार किया, तो वादी ने अनुबंध के विशिष्ट निष्पादन के लिये मुकदमा दायर किया।
  • वादी ने अन्य दस्तावेज़ों के साथ-साथ द्वितीयक साक्ष्य के रूप में बिक्री के समझौते की एक प्रति दाखिल करने के लिये एक आवेदन दायर किया।
  • ज़िला न्यायालय ने माना कि बिक्री के समझौते के द्वितीयक साक्ष्य की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि इसे उचित स्टांप पर निष्पादित नहीं किया गया था, इस प्रकार भारतीय स्टांप अधिनियम, 1899 की धारा 35 के तहत वर्जित है।
  • इससे व्यथित होकर वादी ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की और न्यायालय ने ज़िला न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी।

निर्णयज विधि:  

  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act- IEA) के तहत द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता की जाँच के लिये प्रासंगिक सिद्धांतों में कहा गया है कि यदि किसी दस्तावेज़ पर पर्याप्त मुहर नहीं लगी है, तो कानून की स्थिति सुस्पष्ट है कि द्वितीयक साक्ष्य के रूप में ऐसे दस्तावेज़ की प्रतिलिपि प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

प्रासंगिक प्रावधान:

IEA की धारा 63 - द्वितीयक साक्ष्य

द्वितीयक साक्ष्य से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आते हैं -

(1) एतस्मिनपश्चात् अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन दी हुई प्रमाणित प्रतियाँ;

(2) मूल से ऐसी यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा, जो प्रक्रियाएँ स्वयं ही प्रति की शुद्धता सुनिश्चित करती हैं, बनाई गई प्रतियाँ तथा ऐसी प्रतियों से तुलना की हुई प्रतिलिपियाँ;

(3) मूल से बनाई गई या तुलना की गई प्रतिलिपियाँ;

(4) उन पक्षकारों के विरुद्ध, जिन्होनें उन्हें निष्पादित नही किया है, दस्तावेज़ों के प्रतिलेख;

(5) किसी दस्तावेज़ की अंतर्वस्तु का उस व्यक्ति द्वारा, जिसने स्वयं उसे देखा है, दिया हुआ मौखिक वृत्तांत।

[मूल निर्णय]