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सांविधानिक विधि
राज्य सरकार द्वारा रद्द किये गए OBC कोटा का पुनः लागू किया जाना: प्रथम दृष्टया
« »19-Jun-2025
अमल चन्द्र दास एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल "प्रथम दृष्टया, प्रतिवादी विधायी प्रक्रिया और पूर्व न्यायालयी संवीक्षा को अनदेखा करते हुए, कार्यकारी आदेशों के माध्यम से जल्दबाजी में रद्द किये गए आरक्षणों को पुनः लागू कर रहे हैं।" न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा एवं न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती |
स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा एवं न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती की पीठ ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नई OBC सूची तैयार करने के कदम पर रोक लगाते हुए कहा कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने पूर्व न्यायिक आदेशों का उल्लंघन करते हुए कार्यकारी कार्यवाही के माध्यम से पूर्व में समाप्त किये गए वर्गों और कोटा को पुनः लागू किया है।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अमल चन्द्र दास एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
अमल चन्द्र दास एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह विवाद पश्चिम बंगाल में 77 वर्गों को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में चिह्नित करने और वर्गीकृत करने को चुनौती देने वाली सामूहिक जनहित याचिकाओं से उत्पन्न हुआ था, जिसका निपटान 22 मई, 2024 के एक निर्णय द्वारा किया गया था।
- पश्चिम बंगाल सरकार ने एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से इस आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील किया था, जिसमें शीर्ष न्यायालय को सूचित किया गया था कि OBC वर्गीकरण के लिये एक नया आयोग गठित किया गया था।
- मई 2024 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने 2010 के बाद पश्चिम बंगाल में जारी सभी OBC प्रमाण पत्र रद्द कर दिये थे, उच्चतम न्यायालय ने राज्य की वर्गीकरण प्रणाली पर प्रश्न करते हुए कहा था कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।
- वर्ष 2024 के निर्णय के बाद, राज्य सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा था कि उनकी अपील पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय तक सभी नियुक्तियाँ रोक दी जाएँगी या स्थगित कर दी जाएँगी।
- हालाँकि, 28 फरवरी एवं 1 मार्च, 2025 के ज्ञापनों के माध्यम से पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा किये गए विभिन्न अधिसूचनाओं और बेंचमार्क सर्वेक्षण को चुनौती देते हुए नई रिट याचिकाएँ दायर की गईं।
- राज्य सरकार ने मई एवं जून 2025 के बीच कई अधिसूचनाएँ जारी कीं, जिसमें पिछड़े वर्गों को OBC-A और OBC-B श्रेणियों में उप-वर्गीकृत किया गया।
- इन अधिसूचनाओं ने OBC आरक्षण प्रतिशत को बढ़ाकर 17% (OBC-A के लिये 10% और OBC-B के लिये 7%) कर दिया तथा राज्य सूची में अतिरिक्त वर्गों को शामिल किया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने आरोप लगाया कि ये कार्यकारी कार्यवाही पहले के न्यायालयी निर्णय का उल्लंघन करते हुए और उचित विधायी अनुमोदन के बिना की गई थी।
- विवाद तब और बढ़ गया जब राज्य ने विधिक कार्यवाही जारी रहने के बावजूद जून 2025 में OBC प्रमाण पत्र जारी करने की नई प्रक्रियाओं सहित अन्य अधिसूचनाएँ जारी कर दीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी "जल्दबाजी" में आगे बढ़ रहे हैं तथा उन्हीं वर्गों और आरक्षणों के प्रतिशत को पुनः लागू करने का प्रयास कर रहे हैं जिन्हें पहले खंडपीठ ने खारिज कर दिया था और उच्चतम न्यायालय ने यथावत बनाए रखा था।
- न्यायाधीशों ने कहा कि राज्य इन वर्गीकरणों को राज्य के विधायी कार्यों के बजाय कार्यकारी आदेशों के माध्यम से वापस लाने का प्रयास कर रहा है, तथा यह कार्य न्यायालय द्वारा आयोग द्वारा उठाए गए कदमों की जाँच करने से पहले किया जा रहा है।
- न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि राज्य को कार्यकारी अधिसूचना जारी करने के बजाय 2012 अधिनियम की अनुसूची में वर्गों के संशोधन एवं परिचय के लिये विधानमंडल के समक्ष रिपोर्ट एवं विधेयक प्रस्तुत करना चाहिये था।
- यह देखा गया कि कार्यकारी अधिसूचनाएँ पहले के निर्णय के प्रत्यक्षतः विरोध में थीं तथा वर्ष 2012 के अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत जारी नहीं की गई थीं।
- न्यायालय ने नोट किया कि उसने पहले वर्ष 2012 के अधिनियम की धारा 16 को रद्द कर दिया था, जो राज्य कार्यकारिणी को अनुसूचियों में संशोधन करने का अधिकार देती थी, तथा परिणामस्वरूप इस धारा के कार्यकारी प्रयोग के माध्यम से शामिल 37 वर्गों को रद्द कर दिया था।
- न्यायाधीशों ने देखा कि उन्होंने वर्ष 2012 के अधिनियम की धारा 5(A) को भी रद्द कर दिया था, जो उप-वर्गीकृत वर्गों को 10% एवं 7% का आरक्षण प्रतिशत प्रदान करती थी।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हालाँकि उसने वर्ष 2010 से पहले 66 वर्गों को वर्गीकृत करने वाले कार्यकारी आदेशों में हस्तक्षेप नहीं किया था, तथा चूँकि इस पहलू में उच्चतम न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया था, इसलिये इन वर्ष 2010 से पहले के OBC वर्गों पर विचार करते हुए भर्ती एवं प्रवेश प्रक्रियाओं के संचालन में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने जुलाई 2025 के अंत तक या अगले आदेशों तक, जो भी पहले हो, सभी विवादित अधिसूचनाओं और संबंधित परिणामी पहल पर रोक लगा दी।
संविधान का अनुच्छेद 16 क्या है?
- अनुच्छेद 16(4) राज्य को सिविलों के किसी भी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये प्रावधान करने का अधिकार देता है, जिसका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- अनुच्छेद 16(4) में "पिछड़ा वर्ग" शब्द में न्यायिक निर्वचन के द्वारा स्थापित अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) भी शामिल हैं।
- ऐतिहासिक इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1993) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने पिछड़ेपन के स्वीकार्य संकेतक के रूप में जाति को मान्यता देते हुए, केंद्र सरकार की सेवाओं में OBC के लिये 27% आरक्षण को यथावत बनाए रखा।
- इंद्रा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत आरक्षण प्रारंभिक नियुक्तियों तक सीमित है तथा एससी एवं एसटी के विपरीत OBC के लिये पदोन्नति तक विस्तारित नहीं हो सकता है।
- बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963) मामले में माना गया कि जाति किसी समुदाय के पिछड़ेपन को मापने के लिये एकमात्र निर्धारण मानदंड नहीं हो सकती है, तथा गरीबी या निवास स्थान जैसे कारकों पर भी विचार किया जाना चाहिये।
- "क्रीमी लेयर" बहिष्करण की अवधारणा OBC पर लागू होती है, जिसका अर्थ है कि OBC समुदायों के अंदर अधिक समृद्ध वर्गों को आरक्षण लाभ से बाहर रखा गया है।
- अनुच्छेद 16(4B) एक वर्ष से रिक्त आरक्षित रिक्तियों को अगले वर्षों में रिक्तियों की एक अलग श्रेणी के रूप में माना जाता है, जो एससी/एसटी आरक्षण के साथ-साथ OBC आरक्षण पर भी लागू होता है।
- इंद्रा साहनी मामले में स्थापित कुल आरक्षण पर 50% की सीमा OBC आरक्षण पर लागू होती है, हालाँकि यह सीमा कठोर नहीं है तथा असाधारण परिस्थितियों में इसे पार किया जा सकता है।