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आपराधिक कानून
दहेज मृत्यु का समावेश
17-Dec-2025
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उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अजमल बेग और अन्य "शैक्षणिक संस्थानों, पुलिस, न्यायपालिका और सिविल समाज सहित सभी हितधारकों को निदेश जारी किये गए हैं कि वे जमीनी स्तर पर ठोस प्रयासों के माध्यम से दहेज जैसी सामाजिक बुराई से निपटें।" न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति संजय करोल और एन.के. सिंह की पीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अजमल बेग और अन्य (2025) के मामले में दहेज मृत्यु के एक मामले में दोषमुक्त किये जाने के निर्णय को पलटते हुए समाज में दहेज मृत्यु के विवाद्यक से निपटने के लिये सामान्य निदेश जारी करना आवश्यक समझा, जिसमें एक 20 वर्षीय महिला को उसके पति और सास ने आग लगा दी थी।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अजमल बेग और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- नसरीन नाम की एक युवती का विवाह अजमल बेग से हुआ था, और वर्षों से उसके पति और उसके परिवार के सदस्य उससे और उसके पिता से निरंतर एक रंगीन टेलीविजन, एक मोटरसाइकिल और 15,000 रुपए की मांग करते रहे।
- 2001 में, पति और उसके परिवार के सदस्यों ने कथित तौर पर मृतक पर हमला किया, और इससे पहले कि कोई सहायता पहुँच पाती, पति ने उस पर केरोसिन तेल डालकर आग लगा दी।
- जब मामा घटनास्थल पर पहुँचे तो उन्होंने पाया कि उसका शव जला हुआ और मृत था।
- घटना के पश्चात् प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- विचारण न्यायालय ने पति और उसकी माता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ख (दहेज हत्या) और 498क (पति या नातेदार द्वारा क्रूरता) तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3 (दहेज देने या लेने के लिये दण्ड) और 4 (दहेज मांगने के लिये दण्ड) के अधीनदोषसिद्ध दोषी ठहराया।
- दोनों दोषियों को जुर्माने के साथ आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।
- दोनों दोषियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की, जिसने 7 अक्टूबर, 2003 के एक आदेश द्वारा उन्हें सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने अन्य निष्कर्षों के साथ-साथ यह कहते हुए मामा के परिसाक्ष्य को खारिज कर दिया कि वह घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं थी।
- इस दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध उत्तर प्रदेश राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने अफसोस जताया कि दहेज समाज में गहरी जड़ें जमा चुका एक सामाजिक बुराई है, और यह भी उल्लेख किया कि लगभग बीस वर्ष की एक युवती की जघन्य मृत्यु केवल इसलिये हो गई क्योंकि उसके माता-पिता उसके ससुराल की भौतिक मांगों को पूरा नहीं कर सके।
- न्यायालय ने पाया कि दहेज की मांग - एक मोटरसाइकिल, एक रंगीन टीवी और 15,000 रुपए - संदेह से परे साबित हो गई थी, और साक्ष्य से पता चलता है कि मृतक की मृत्यु से ठीक एक दिन पहले इस मांग को दोहराया गया था।
- न्यायालय ने माना कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ख के अधीन "उसकी मृत्यु से कुछ समय पहले" की विधिक आवश्यकता पूरी हो गई थी, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113ख के अधीन उपधारणा लागू हो गई, इस बात पर बल देते हुए कि उसकी मृत्यु और दहेज से संबंधित क्रूरता के बीच एक उचित संबंध होना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने मामा के परिसाक्ष्य को नजरअंदाज करने और मृतक के अपने ससुराल में खुश रहने के बारे में माता के कथन को संदर्भ से हटकर स्वीकार करने में गलती की।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दहेज प्रतिषेध अधिनियम विवाह से पूर्व या विवाह के पश्चात् की गई मांगों में कोई अंतर नहीं करता है।
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अभियुक्तों के गरीब होने का अर्थ यह था कि वे ऐसी मांगें नहीं कर सकते थे और यह पाया कि उच्च न्यायालय ने उचित कारण बताए बिना विचारण न्यायालय के निष्कर्षों को पलट दिया।
- पति को आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया, जबकि 94 वर्षीय सास को जेल नहीं भेजा गया।
न्यायालय द्वारा क्या निदेश जारी किये गए थे?
न्यायालय ने दहेज विधियों की अप्रभावीता और उनके दुरुपयोग के बीच उतार-चढ़ाव को स्वीकार किया, और यह माना कि दहेज समाज में गहरी जड़ें जमा चुका है और सभी हितधारकों के ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। न्यायालय ने पाँच प्रमुख निदेश जारी किये:
- शैक्षिक पाठ्यक्रम सुधार: राज्यों और केंद्र सरकार को शैक्षिक पाठ्यक्रम में संशोधन करना चाहिये जिससे यह बात पुष्ट हो सके कि विवाह के पक्षकार समान हैं और एक दूसरे के अधीन नहीं हैं।
- दहेज प्रतिषेध अधिकारियों की नियुक्ति: यह सुनिश्चित करें कि सभी राज्यों में उचित संसाधनों के साथ दहेज प्रतिषेध अधिकारियों की विधिवत नियुक्ति की जाए और उनके संपर्क विवरण पर्याप्त रूप से प्रसारित किये जाएं।
- अधिकारियों के लिये प्रशिक्षण: पुलिस और न्यायिक अधिकारियों को दहेज के मामलों के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझने और वास्तविक मामलों को तुच्छ मामलों से अलग करने के लिये समय-समय पर प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये।
- त्वरित निपटान: उच्च न्यायालयों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ख और 498क के अधीन लंबित मामलों का त्वरित निपटान करने के लिये जायजा लेना चाहिये, यह देखते हुए कि इस मामले को समाप्त होने में 24 वर्ष लग गए।
- जमीनी स्तर पर जागरूकता कार्यक्रम: जिला प्रशासन और जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को नियमित कार्यशालाएँ और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने चाहिये, विशेष रूप से शिक्षा प्रणाली से बाहर के लोगों के लिये।
इस निर्णय को सभी उच्च न्यायालयों और राज्यों के मुख्य सचिवों को भेजा जाना था, और चार सप्ताह बाद इसके अनुपालन की समीक्षा की जानी थी।
दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 क्या है?
बारे में:
- 1 मई, 1961 को लागू की गई भारतीय विधि का उद्देश्य दहेज देने या लेने पर रोक लगाना था।
- इस अधिनियम में दहेज का अर्थ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी गई या देने के लिये सहमत किसी भी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति से है।
- दहेज प्रतिषेध अधिनियम का मूल पाठ दहेज प्रथा को रोकने में व्यापक रूप से अप्रभावी माना गया था।
- महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के कुछ विशिष्ट रूपों को दहेज की मांग पूरी न होने से जोड़ा जाता रहा। 1984 में, इसमें संशोधन किया गया और यह स्पष्ट किया गया कि विवाह के समय वर या वधू को दिये जाने वाले उपहार मान्य हैं।
- विधि के अनुसार, प्रत्येक उपहार का विवरण, उसका मूल्य, उपहार देने वाले व्यक्ति की पहचान और विवाह के दोनों पक्षकारों में से किसी एक से उस व्यक्ति का संबंध बताते हुए एक सूची बनाए रखना आवश्यक था।
- दहेज से संबंधित हिंसा की शिकार महिलाओं की सुरक्षा के लिये अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के अधिनियम और संबंधित धाराओं में और संशोधन किये गए।
- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन में विधिक सुरक्षा की एक और परत प्रदान की गई थी ।
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 को भी 1983 में संशोधित किया गया था जिससे दहेज से संबंधित क्रूरता, दहेज मृत्यु और आत्महत्या के दुष्प्रेरण जैसे विशिष्ट अपराधों को स्थापित किया जा सके।
- इन विधायी उपबंध में दहेज की मांग या दहेज उत्पीड़न का सबूत पेश किये जाने पर पतियों या नातेदारों द्वारा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को दण्डित करने का प्रावधान था।
शास्ति:
- दहेज देना और लेना:
- दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अधिनियम के लागू होने के पश्चात् दहेज देता है या लेता है, या दहेज देने या लेने में सहायता करता है, तो उसे कम से कम पाँच वर्ष के कारावास और कम से कम पंद्रह हजार रुपए या दहेज के रकम के समान जुर्माने से, जो भी अधिक हो से दण्डित किया जाएगा।
- दहेज की मांग करना:
- अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वर या वधू के माता-पिता, नातेदारों या संरक्षकों से दहेज की मांग करता है, तो उसे कम से कम छह मास और अधिकतम दो वर्ष के कारावास तथा दस हजार रुपए तक के जुर्माने से दण्डित किया जाएगा।
- विज्ञापन पर पाबंदी:
- धारा 4-क के अनुसार, किसी समाचार पत्र, पत्रिका या किसी अन्य माध्यम से विज्ञापन देना या विवाह के प्रतिफलस्वरूप किसी व्यक्ति द्वारा संपत्ति, कारबार, धन में अंश देना, कम से कम छह मास और अधिकतम पाँच वर्ष तक के कारावास या पंद्रह हजार रुपए तक के जुर्माने से दण्डनीय होगा ।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता में निष्पादन कार्यवाही का समावेश
17-Dec-2025
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दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य "पुष्टि की गई नीलामी विक्रय के विरुद्ध पृथक् वाद सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 92(3) के अधीन वर्जित हैं, और पीड़ित पक्षकारों को अधिकारिता की कमी या अकृता के आधार पर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अधीन आवेदन दाखिल करने होंगे।" न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने निर्णय दिया कि एक बार नीलामी बिविक्रयक्री की पुष्टि हो जाने और व्यथित पक्षकार द्वारा इसे अपास्त करने की मांग न किये जाने पर, विक्रय की पुष्टि करने वाले आदेश को चुनौती देने वाला एक पृथक् वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 21 नियम 92(3) के अधीन स्पष्ट रूप से वर्जित है।
दानिश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दुली चंद द्वारा 1970 में ट्रैक्टर ऋण के लिये न्यू बैंक ऑफ इंडिया (प्रत्यर्थी संख्या 6) के पक्ष में किये गए एक बंधक से उत्पन्न हुआ था।
- बंधककर्त्ता द्वारा संदाय में व्यतिक्रम होने पर, बैंक ने 1984 में एकपक्षीय डिक्री प्राप्त की।
- लंबित वाद के दौरान और डिक्री के बाद, दो क्रेताओं (प्रत्यर्थी 1 और 2) ने 1985 में निर्णीतऋणियों में से एक से बंधक रखी गई भूमि के कुछ हिस्से खरीदे।
- निष्पादन कार्यवाही में, 1988 में पूर्ण बंधक रखी गई संपत्ति की नीलामी की गई, जिसमें अपीलकर्त्ताओं (एक निर्णीतऋणी के पुत्रों) को ₹35,000 की उच्चतम बोली लगाने वाला घोषित किया गया।
- नीलामी के विक्रय की पुष्टि अगस्त 1988 में हुई थी, और जून 1989 में अपीलकर्त्ताओं को संपत्ति का कब्जा सौंप दिया गया था।
- तत्पश्चात्, जुलाई 1989 में, प्रत्यर्थियों ने एक पृथक् सिविल वाद दायर किया जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि उनके द्वारा क्रय किये गए भाग से संबंधित नीलामी विक्रय शून्य थी, और नीलामी प्रक्रिया में अनियमितताओं और कपट का आरोप लगाया गया।
- विचारण न्यायालय, अपीलीय न्यायालय और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थियों के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए उन्हें स्वामी घोषित किया और संयुक्त कब्जा प्रदान किया।
- प्रतिवादी-अपीलकर्त्ताओं ने इन समवर्ती निर्णयों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने निचले न्यायालयों के समवर्ती निर्णयों को अपास्त कर दिया और यह माना कि प्रत्यर्थी 1 और 2 द्वारा दायर पृथक् वाद पोषणीय नहीं था।
- न्यायालय ने देखा कि चूँकि प्रत्यर्थियों ने नीलामी विक्रय से व्यथित होने का दावा किया है, इसलिये आदेश 21 नियम 92(3) सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन स्पष्ट वर्जन के अनुसार पृथक् वाद पोषणीय नहीं होगा, क्योंकि नीलामी विक्रय नियम 92(1) के अधीन पुष्टि की गई थी और नियम 89 या 90 के अधीन कोई आवेदन नहीं किया गया था।
- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अधीन पृथक् वाद दायर करना भी वर्जित था, जिसमें यह अनिवार्य है कि निष्पादन से संबंधित सभी प्रश्नों का अवधारण केवल निष्पादन न्यायालय द्वारा ही किया जाए, न कि किसी पृथक् वाद के माध्यम से।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थियों को पृथक् वाद दायर करने के बजाय धारा 47 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन आवेदन दायर करना चाहिये था।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि नियम 92(3) पृथक् वादों पर रोक लगाता है, पक्षकार अभी भी धारा 47 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन सीमित आधारों पर आवेदन दाखिल कर सकते हैं जैसे कि अधिकारिता की कमी या विक्रय की अकृतता।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 47 का उपयोग नियम 89, 90 या 91 के अंतर्गत परिसीमा काल को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है। यदि धारा 47 के अंतर्गत कोई आवेदन वास्तव में इन नियमों के अंतर्गत आने वाले आधारों पर आधारित है, तो निष्पादन न्यायालय को इसे तदनुसार मानना होगा, और यदि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 127 के अंतर्गत परिसीमा अवधि समाप्त हो गई है तो यह आवेदन अस्वीकार कर दिया जाएगा।
- केवल तभी जब कोई पक्षकार नीलामी विक्रय को इस आधार पर चुनौती देता है कि पूरी कार्यवाही अधिकारिता से बाहर और अकृत थी, विक्रय की पुष्टि के बाद धारा 47 के अधीन आवेदन दायर किया जा सकता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पृथक् वाद दायर करने के लिये, नियम 92(3) के अधीन रोक को पार करना होगा और यह साबित करना होगा कि धारा 47 की रोक लागू नहीं होती है। मूल डिक्री के पक्षकारों या उनके प्रतिनिधियों को धारा 47 के अधीन आवेदन करना होगा, न कि पृथक् वाद दायर करने होंगे।
संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं?
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के बारे में:
बारे में:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 21 डिक्री और आदेशों के निष्पादन से संबंधित है।
- इसमें निष्पादन कार्यवाही में संपत्ति की नीलामी विक्रय से संबंधित विस्तृत प्रावधान सम्मिलित हैं।
- यह आदेश नीलामी विक्रय आयोजित करने, ऐसी विक्रय की पुष्टि करने या अपास्त करने और इसमें सम्मिलित विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करता है।
नियम 92 – विक्रय की पुष्टि:
- नियम 92(1) में उपबंध है कि न्यायालय उचित उद्घोषणा और प्रक्रिया के बारे में स्वयं संतुष्ट होने के बाद विक्रय को पुष्ट करेगा।
- नियम 92(2) न्यायालय को विशिष्ट आधारों पर विक्रय अपास्त करने की अनुमति देता है जैसे कि विक्रय के प्रकाशन या संचालन में भौतिक अनियमितता या कपट, या यदि संपत्ति बाजार मूल्य से काफी कम राशि में बेची गई थी।
- नियम 92(3) किसी भी व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध नियम 92 के अंतर्गत कोई आदेश दिया गया है, उस आदेश के संबंध में पृथक् वाद दायर करने से रोकता है।
- यह उपबंध पुष्ट नीलामी विक्रय को चुनौती देने वाले पृथक् वाद दायर करने के विरुद्ध एक सांविधिक रोक लगाता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47:
- डिक्री को लागू करने वाले न्यायालय के पास वाद के पक्षकारों के बीच डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित सभी प्रश्नों का अवधारण करने की अनन्य अधिकारिता होती है।
- ऐसे प्रश्नों का निर्णय निष्पादन न्यायालय द्वारा ही किया जाना चाहिये और ये किसी पृथक् वाद का विषय नहीं हो सकते।
- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, निष्पादन न्यायालय को यह अवधारित करने का अधिकार है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं।
- इस धारा के अंतर्गत, जिस वादी का वाद खारिज कर दिया गया है और जिस प्रतिवादी के विरुद्ध वाद खारिज कर दिया गया है, दोनों को वाद का पक्षकार माना जाता है।
- किसी डिक्री के निष्पादन में हुई नीलामी में संपत्ति क्रय करने वाला व्यक्ति उस वाद का पक्षकार माना जाता है जिसमें डिक्री पारित की गई थी।
- ऐसी संपत्ति का कब्ज़ा क्रेता या उसके प्रतिनिधि को सौंपने से संबंधित सभी प्रश्न, डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित प्रश्न माने जाते हैं।