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आपराधिक कानून
मुख्य परीक्षा में हुए लोप को प्रतिपरीक्षा के दौरान सुधारा जा सकता है
19-Dec-2025
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एस. दीनाचंद्रन बनाम शायला जोसेफ और अन्य "अन्य अनुप्रमाणित साक्षियों द्वारा वसीयत पर हस्ताक्षर करने के संबंध में मुख्य परीक्षा में विद्यमान कमियों को प्रतिपरीक्षा के दौरान पूछे गए प्रश्नों के जवाबों के माध्यम से पूरा किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और के. विनोद चंद्रन की पीठ ने के.एस. दीनाचंद्रन बनाम शायला जोसेफ और अन्य (2025) के मामले में केरल उच्च न्यायालय और विचारण न्यायालय के निर्णयों को अपास्त करते हुए निर्णय दिया कि मुख्य परीक्षा में किये गए लोप को साक्षी की प्रतिपरीक्षा में सुधारा जा सकता है।
के.एस. दीनाचंद्रन बनाम शायला जोसेफ और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह विवाद वसीयतकर्त्ता द्वारा निष्पादित वसीयत की प्रामाणिकता को लेकर उत्पन्न हुआ, जिसका उसकी पुत्री शायला जोसेफ (प्रत्यर्थी) ने विरोध किया, जिसे विरासत से वंचित कर दिया गया था।
- वसीयतकर्त्ता की पुत्री ने दावा किया कि दोषपूर्ण अनुप्रमाणन सबूत के कारण वसीयत प्रामाणिक नहीं थी।
- विचारण के दौरान केवल एक अनुप्रमाणित साक्षी (DW-2) ही जीवित बचा था; दूसरा मर चुका था।
- DW-2 की मुख्य परीक्षा में, वह स्पष्ट रूप से यह बताने में विफल रहा कि उसने दूसरे अनुप्रमाणित साक्षी (जेवियर) को वसीयत पर हस्ताक्षर करते हुए देखा था।
- विचारण न्यायालय और केरल उच्च न्यायालय ने इसे "असाध्य दोष" मानते हुए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 68 और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 के अधीन वसीयत को अप्रमाणित घोषित कर दिया।
- वसीयतकर्त्ता के अन्य बच्चों (प्रस्तावकों) ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन द्वारा लिखित एक निर्णय में कहा कि मुख्य परीक्षा में हुए लोप को वादी के अपने अधिवक्ता द्वारा प्रतिपरीक्षा के दौरान दूर कर दिया गया था।
- पीठ ने स्पष्ट किया: "यदि हम केवल मुख्य परीक्षा को देखें, तो यह नहीं कहा जा सकता कि दूसरे साक्षी के हस्ताक्षर होने का कोई सबूत था... यद्यपि, यह कमी प्रतिपरीक्षा के दौरान पूरी हो गई।"
- न्यायालय ने वसीयतकर्त्ता की वसीयत करने की पूर्ण क्षमता के संबंध में साक्षी संख्या 2 की साक्षी की पुष्टि की और उसकी शारीरिक स्थिति पर उठाई गई आपत्तियों को खारिज कर दिया।
- एक पुत्री को वसीयत से बाहर रखने के संबंध में, न्यायालय ने "विवेक के नियम" को लागू किया, लेकिन यह माना कि यह न्यायिक विवेक को संतुष्ट करता है , क्योंकि वसीयतकर्त्ता द्वारा वसीयत से बाहर रखने का निर्णय सीमित था और तर्कसंगत था।
- इसमें बल देते हुए कहा गया कि "न्यायालय न तो स्वयं को वसीयतकर्त्ता की स्थिति में रख सकता है और न ही निष्पक्षता के अपने विचारों से उसके तर्क को प्रतिस्थापित कर सकता है," और न्यायालयों को "वसीयतकर्त्ता के दृष्टिकोण से" परीक्षा करने का निदेश दिया गया।
- अपील मंजूर कर ली गई और वसीयत को वैध रूप से साबित घोषित कर दिया गया।
साक्षियों की परीक्षा से संबंधित विधिक उपबंध क्या हैं?
बारे में:
- परीक्षा प्रक्रिया तीन चरणों के माध्यम से साक्षियों की सत्यता और सुसंगत बिंदुओं को निकालती है: मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा और पुन:परीक्षा।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) के अध्याय 10 द्वारा शासित।
मुख्य परीक्षा:
- विधिक उपबंध : भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 137 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 142।
- परिभाषा : साक्षी को बुलाने वाले पक्षकार द्वारा उसकी परीक्षा; परीक्षा का प्रथम चरण।
- प्रक्रिया : साक्षी अपने ज्ञान के आधार पर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है।
- संचालन: साक्षी का स्वयं का अधिवक्ता या पक्षकार।
- स्थिति : न्यायिक कार्यवाही का भाग।
प्रतिपरीक्षा:
- विधिक उपबंध : भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 137 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 142।
- परिभाषा : विरोधी पक्षकार द्वारा किसी साक्षी से पूछताछ।
- उद्देश्य : मुख्य परीक्षा के बाद साक्षी की विश्वसनीयता का परीक्षा करना।
- संचालन: विपक्षी पक्षकार का अधिवक्ता।
- स्थिति : न्यायिक कार्यवाही का अनिवार्य भाग।
प्रतिपरीक्षा के दौरान दस्तावेज़ प्रस्तुत करना:
- विधिक उपबंध : भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 139 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 144।
- प्रक्रिया : प्रतिपरीक्षा के दौरान साक्षियों को दस्तावेज़ पेश करने के लिये बुलाया जा सकता है।
- परिसीमा : केवल दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिये समन किये गए व्यक्ति की तब तक परीक्षा नहीं की जा सकती जब तक कि उसे विशेष रूप से साक्षी के रूप में न बुलाया गया हो।
प्रतिपरीक्षा के दौरान पूछे जाने वाले अनुमेय प्रश्न:
- विषयवस्तु एवं चरित्र : साक्षी के चरित्र से संबंधित प्रश्न पूछने की अनुमति है (भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 140; भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 145)।
- सूचक प्रश्न : प्रतिपरीक्षा के दौरान अनुमत (आईईए की धारा 143; बीएसए की धारा 146) - ये प्रश्न अपने आप में उत्तर सुझाते हैं।
पुनः परीक्षा:
- विधिक उपबंध : भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 137 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 142।
- परिभाषा : तीसरा और अंतिम चरण, जिसमें पक्षकार प्रतिपरीक्षा के बाद पूछताछ करता है।
- दायरा : प्रश्न प्रतिपरीक्षा से संबंधित होने चाहिये।
- नए प्रश्न : यदि कोई नए मामले सामने आते हैं, तो न्यायालय की अनुमति से उन पर प्रतिपरीक्षा की जा सकती है।
- स्थिति : न्यायिक कार्यवाही का अनिवार्य भाग नहीं है।
आपराधिक कानून
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन बरामदगियाँ
19-Dec-2025
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शेख शबुद्दीन बनाम तेलंगाना राज्य "गिरफ्तारी के समय अभियुक्त द्वारा सौंपे गए सामान को धारा 27 के अधीन बरामदगी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें कोई छिपाव नहीं था।" न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने शेख शबुद्दीन बनाम तेलंगाना राज्य (2025) के मामले में निर्णय दिया कि व्यक्तिगत तलाशी के दौरान अभियुक्त से बरामद वस्तुओं को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के अधीन खोज के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 27 केवल तभी लागू होती है जब अभियुक्त ने किसी वस्तु को छिपाया हो और उसकी खोज प्रकटीकरण का प्रत्यक्ष परिणाम हो।
शेख शहाबुद्दीन बनाम तेलंगाना राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला एक महिला की हत्या से जुड़ा है, जिसे उसके पति ने एक सुबह एक गाँव के पास छोड़ दिया था, जिसके बाद वह लापता हो गई और उससे संपर्क नहीं हो सका।
- उसका शव अगले दिन पास की सड़क के किनारे झाड़ियों में मिला।
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि तीन अभियुक्तों ने उसका पीछा किया, उसे एक सुनसान जगह में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया और साक्ष्य मिटाने के लिये उसका गला काट दिया।
- उन पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 376घ के साथ धारा 34 के अधीन, साथ ही अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के अधीन आरोप लगाए गए थे।
- उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 376घ के साथ धारा 34 के अधीन, साथ ही अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दोषसिद्ध ठहराया गया था।
- विचारण न्यायालय ने मृत्युदण्ड आदेश पारित किया गया था, जिसे उच्च न्यायालय ने कथित संस्वीकृति कथनों तथा धारा 27 के अंतर्गत दर्शाई गई कथित बरामदगियों पर महत्त्वपूर्ण रूप से निर्भर करते हुए, दया अथवा परिहार के बिना आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय को यह मूल्यांकन करने के लिये कहा गया था कि क्या इस प्रकार की बरामदगियाँ तथा प्रकटीकरण विधि की दृष्टि से वैध थे।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने माना कि "बरामद" की गई सामग्री गिरफ्तारी के समय ही अभियुक्त के कब्जे में थी।
- ये चीजें नियमित व्यक्तिगत जांच के दौरान सौंपी गईं, इन्हें किसी गुप्त स्थान से नहीं खोजा गया।
- इसलिये, धारा 27 लागू नहीं होती क्योंकि:
- इसमें पहले से कोई छिपाव नहीं था।
- यह खोज प्रकटीकरण का परिणाम नहीं थी ।
- न्यायालय ने टिप्पणी की कि "गिरफ्तारी के समय, जब पुलिस द्वारा केवल तलाशी लेने पर ही अभियुक्त के शरीर से भौतिक वस्तुएँ जब्त की जा सकती थीं, तो इसे धारा 27 के अधीन बरामदगी में परिवर्तित का प्रयास किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है।"
- दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, न्यायालय ने दण्ड को बिना किसी परिहार के आजीवन कारावास से संशोधित करके बिना किसी परिहार के 25 वर्ष के कारावास में परिवर्तित कर दिया।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 क्या है?
बारे में:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 ने इस नियम में एक सीमित अपवाद बनाया कि पुलिस के समक्ष किये गए संस्वीकृति कथन अग्राह्य हैं।
- इसमें अभियुक्त के कथन के केवल उसी भाग को साबित करने की अनुमति दी गई थी जो स्पष्ट रूप से दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप पता चले तथ्य से संबंधित हो।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के प्रमुख उपबंध:
- यह केवल तभी लागू होता है जब अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा में हो ।
- यह केवल उस जानकारी के भाग को साबित करने की अनुमति देता है जो प्रत्यक्षत: किसी सुसंगत तथ्य (जैसे, हथियार, चोरी की संपत्ति) की खोज की ओर ले जाती है।
- इसके पीछे तर्क यह है कि खोज से कथन के उस भाग को विश्वसनीयता मिलती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 को लागू करने के लिये आवश्यक शर्तें:
- यह पेरुमल राजा उर्फ पेरुमल बनाम राज्य, पुलिस निरीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व (2023) के मामले में निर्धारित किया गया था, जहाँ न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिया:
- सबसे पहले, तथ्यों की खोज होनी चाहिये। ये तथ्य अभियुक्त व्यक्ति से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप सुसंगत होने चाहिये।
- दूसरे, ऐसे तथ्य की खोज के संबंध में साक्ष्य दिया जाना आवश्यक है। इसका अर्थ यह है कि यह तथ्य पहले से ही पुलिस को ज्ञात नहीं होना चाहिये।
- तीसरा, सूचना प्राप्त होने के समय, अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में होना चाहिये।
- अंत में, केवल उतनी ही जानकारी ग्राह्य है जो इस प्रकार खोजे गए तथ्य से स्पष्ट रूप से संबंधित हो।
- इस खोजे गए तथ्य में निम्नलिखित बातें सम्मिलित होंगी:
- वह "स्थान" जहाँ से वस्तु प्राप्त होती है।
- इस संबंध में अभियुक्त का ज्ञान।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023 में उपबंध:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 की सामग्री को अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA)(पुलिस के समक्ष संस्वीकृति) की धारा 23 के उपबंध के रूप में सम्मिलित किया गया है।
- यह परंतुक उसी नियम को बरकरार रखता है:
अभियुक्त के कथन का केवल वही भाग ग्राह्य है जो प्रत्यक्षत साक्ष्य प्राप्ति की ओर ले जाता है।