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आपराधिक कानून
पति-पत्नी के बीच निजी तौर पर जातिगत अपमान दण्डनीय नहीं
« »21-Aug-2025
एक्स. बनाम राज्य "न्यायालय ने पाया कि आरोपों को यदि सच मान लिया जाए तो भी यह पता नहीं चलता कि घटना किसी लोक स्थान पर हुई थी या किसी स्वतंत्र व्यक्ति ने इसे देखा था, जैसा कि विधि के अधीन अपेक्षित है।" न्यायमूर्ति ई.वी. वेणुगोपाल |
स्रोत: तेलंगाना उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
तेलंगाना उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ई.वी. वेणुगोपाल ने एक्स. बनाम राज्य (2025) के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 के अधीन कार्यवाही को निरस्त करते हुए यह निर्णय दिया कि निजी घरेलू परिवेश में होने वाला जाति-आधारित उत्पीड़न "लोक दृश्य" में होने की सांविधिक आवश्यकता को पूरा नहीं करता है।
एक्स. बनाम राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 04 अप्रैल 2019 को एक वास्तविक परिवादकर्त्ता द्वारा वैवाहिक विवादों के बाद अपनी पत्नी और उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध दायर किये गए परिवाद से उत्पन्न हुआ ।
- अनुसूचित जाति माला से संबंधित परिवादकर्त्ता ने 19 जनवरी 2014 को कापू समुदाय के प्रथम याचिकाकर्त्ता से अंतर्जातीय विवाह किया था।
- हैदराबाद में विवाह के बाद, परिवादकर्त्ता के परिवार ने कथित तौर पर परिवादकर्त्ता को उसकी जाति के आधार पर अपमानित किया, उसे अपमानजनक नामों से पुकारा और अपने घर में उसके कपड़े जला दिये।
- जाति-संबंधी तनाव के कारण उनका वैवाहिक जीवन अशांत हो गया, जिसके कारण दंपति एक किराए के आलीशान अपार्टमेंट में अलग-अलग रहने लगे।
- फरवरी 2017 में, परिवादकर्त्ता काम के लिये मुंबई चला गया, किंतु बाद में उसने याचिकाकर्त्ता को फिर से साथ रहने के लिये मना लिया, तथापि जीवनशैली के खर्चों को लेकर विवाद जारी रहा।
- जुलाई 2018 में, याचिकाकर्त्ता का जन्मदिन मनाने के बाद, उसने अचानक तलाक की मांग की, साथ ही जाति-आधारित अपमान और परिवादकर्त्ता और उसके परिवार को बर्बाद करने की धमकियाँ भी दीं।
- 17 जुलाई 2018 से, उसने व्हाट्सएप संदेश भेजकर तलाक पर जोर दिया, जिसमें "सांस्कृतिक मतभेद" का हवाला दिया गया, जो अधिकतम जातिगत मुद्दों से संबंधित थे।
- परिवादकर्त्ता ने आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद पर सहमति जताई, लेकिन धन और संयुक्त संपत्ति वापस करने का अनुरोध किया, जिस पर याचिकाकर्त्ता ने पहले तो सहमति जताई, लेकिन बाद में इंकार कर दिया।
- इन आरोपों के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 504 और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण)) संशोधन अधिनियम, 2015 के अधीन मामला दर्ज किया गया।
- अंततः हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(iक) और 13(1)(iख) के अधीन 2019 के F.C.O.P. No 346 में तलाक दे दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि आरोपों की प्रकृति से ऐसा कोई विशिष्ट उदाहरण स्पष्ट रूप से प्रदर्शित नहीं होता है, जहां याचिकाकर्त्ताओं ने परिवादकर्त्ता को उसकी जाति के नाम पर गाली दी हो या अपमानित किया हो, साथ ही ऐसी घटना का स्थान, समय और तरीका भी स्पष्ट नहीं है।
- न्यायालय को ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला जिससे यह पता चले कि कथित घटना लोक स्थान पर या लोक दृष्टि में घटित हुई थी, जैसा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 की धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के उपबंधों के अधीन अपेक्षित है।
- हितेश वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य (2020) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विस्वास करते हुए, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि उक्त अधिनियम के अधीन अपराध के लिये, अपमान या धमकी सार्वजनिक रूप से होनी चाहिये।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि आरोपों से, भले ही उन्हें सच मान लिया जाए, यह पता नहीं चलता कि घटना किसी लोक स्थान पर हुई थी या किसी स्वतंत्र व्यक्ति ने उसे देखा था।
- कथित कृत्य दोनों पक्षकारों के बीच घरेलू कलह का हिस्सा पाए गए तथा ऐसा प्रतीत हुआ कि यह एक निजी आवास की सीमा के भीतर घटित हुआ।
न्यायालय ने निर्णय दिया कि कार्यवाही जारी रखना विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, क्योंकि आरोप सार्वजनिक रूप से लगाए जाने की सांविधिक अपेक्षा को पूरा नहीं करते।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 क्या है?
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम के बारे में:
- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1989 संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करने और उनके विरुद्ध अत्याचार के निवारण के लिये बनाया गया है।
- यह अधिनियम 11 सितंबर 1989 को भारतीय संसद में पारित किया गया तथा 30 जनवरी 1990 को अधिसूचित किया गया।
- यह अधिनियम इस निराशाजनक वास्तविकता को भी स्वीकार करता है कि अनेक उपाय करने के बाद भी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियाँ उच्च जातियों के हाथों विभिन्न अत्याचारों का शिकार बनी हुई हैं।
- यह अधिनियम भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 15, 17 और 21 में उल्लिखित स्पष्ट सांविधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए अधिनियमित किया गया है, जिसका दोहरा उद्देश्य इन कमजोर समुदायों के सदस्यों की सुरक्षा के साथ-साथ जाति-आधारित अत्याचारों के पीड़ितों को अनुतोष और पुनर्वास प्रदान करना है।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (संशोधन) अधिनियम, 2015:
- इस अधिनियम को और अधिक कठोर बनाने के उद्देश्य से वर्ष 2015 में निम्नलिखित प्रावधानों के साथ संशोधित किया गया:
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिकाधिक मामलों को अपराध के रूप में मान्यता दी गई।
- इसने धारा 3 में कई नए अपराध जोड़े तथा संपूर्ण धारा को पुनः क्रमांकित किया, क्योंकि मान्यता प्राप्त अपराध लगभग दोगुना हो गया।
- अधिनियम में अध्याय 4 क धारा 15क (पीड़ितों और साक्षियों के अधिकार) को जोड़ा गया, तथा अधिकारियों द्वारा कर्त्तव्य की उपेक्षा और जवाबदेही तंत्र को अधिक सटीक रूप से परिभाषित किया गया।
- इसमें विशेष न्यायालयों और विशेष सरकारी अभियोजकों की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- सभी स्तरों पर लोक सेवकों के संदर्भ में इस अधिनियम में जानबूझकर की गई उपेक्षा को परिभाषित किया गया है।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (संशोधन) अधिनियम, 2018:
- पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ (2020) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने अत्याचार निवारण अधिनियम में संसद द्वारा 2018 में किये गए संशोधन की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखा । इस संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- इसने मूल अधिनियम में धारा 18क जोड़ी ।
- यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध विशिष्ट अपराधों को अत्याचार के रूप में परिभाषित करता है तथा इन कृत्यों से निपटने के लिये रणनीतियों का वर्णन करता है तथा दण्ड निर्धारित करता है।
- यह अधिनियम बताता है कि कौन से कृत्य "अत्याचार " माने जाते हैं और अधिनियम में सूचीबद्ध सभी अपराध संज्ञेय हैं। पुलिस बिना वारण्ट के अपराधी को गिरफ्तार कर सकती है और न्यायलय से कोई आदेश लिये बिना मामले का अन्वेषण शुरू कर सकती है।
- यह अधिनियम सभी राज्यों से प्रत्येक जिले में मौजूदा सेशन न्यायालय को विशेष न्यायालय में परिवर्तित करने का आह्वान करता है, जिससे इसके अंतर्गत पंजीकृत मामलों का विचारण किया जा सके तथा विशेष न्यायालयों मामलों के संचालन के लिये लोक अभियोजकों/विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
- इसमें राज्यों के लिये प्रावधान किया गया है कि वे उच्च स्तर की जातिगत हिंसा वाले क्षेत्रों को "अत्याचार-प्रवण" घोषित करें तथा विधि-व्यवस्था की निगरानी और उसे बनाए रखने के लिये योग्य अधिकारियों की नियुक्ति करें।
- इसमें गैर-अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (Non-SC/ST) लोक सेवकों द्वारा जानबूझकर अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने पर दण्ड का प्रावधान है।
- इसका कार्यान्वयन राज्य सरकारों और संघ राज्य क्षेत्र प्रशासनों द्वारा किया जाता है, जिन्हें उचित केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है।
- इसने मूल अधिनियम में धारा 18क जोड़ी ।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत अपराधों के लिये विधिक आवश्यकताएँ क्या हैं?
धारा 3(1):
- अपराधों को सूचीबद्ध करने वाली सामान्य धारा।
- यह उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्य नहीं हैं।
- इसमें विभिन्न प्रकार के भेदभाव और अत्याचारों को सम्मिलित किया गया है।
धारा 3(1)(द):
- अपमानित करने के आशय से साशय अपमान या धमकी देने पर दण्ड दिया जाता है।
- अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य के विरुद्ध होना चाहिये।
- अपराध लोक दृष्टि वाले स्थान पर होना चाहिये।
धारा 3(1)(ध):
- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को जाति के नाम से अपमानित करने पर दण्ड दिया जाएगा।
- यह लोक दृष्टि वाले स्थान पर होना चाहिये।
- साक्षियों की उपस्थिति आवश्यक है।