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सांविधानिक विधि

राजेंद्र दीवान बनाम प्रदीप कुमार रानीबाला एवं अन्य। (2019)

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 20-Aug-2025

परिचय 

संविधान पीठ के इस ऐतिहासिक निर्णय ने अधीनस्थ अधिकरणों से सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील करने का प्रावधान करने वाले राज्य विधान की सांविधानिक वैधता पर विचार किया। यह मामला छत्तीसगढ़ किराया नियंत्रण अधिनियम, 2011 की धारा 13(2) से उत्पन्न हुआ था, जिसमें उच्च न्यायालय को दरकिनार करते हुए किराया नियंत्रण अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध सीधे उच्चतम न्यायालय में सांविधिक अपील करने का प्रावधान था। इस निर्णय ने उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता से संबंधित विधायी क्षमता के प्रश्न का निर्णायक रूप से समाधान किया और संविधान के अधीन शक्तियों के संघीय वितरण को सुदृढ़ किया। 

मामले के तथ्य 

  • प्रतिवादी-मकान मालिक द्वारा दायर आवेदन पर, छत्तीसगढ़ किराया नियंत्रण अधिनियम, 2011 की धारा 12 के अधीन किराया नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा अपीलकर्त्ता-किराएदार को बेदखल कर दिया गया था। 
  • रायपुर स्थित किराया नियंत्रण अधिकरण ने बेदखली आदेश की पुष्टि की और अपीलकर्त्ता ने किराया नियंत्रण अधिनियम की धारा 13(2) के अधीन सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की। 
  • अधिनियम की धारा 13(2) में उपबंध किया गया है कि "किराया नियंत्रण अधिकरण के आदेश के विरुद्ध अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकेगी," जिससे अपील का प्रत्यक्ष सांविधिक अधिकार सृजित होता है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने अपील की स्वीकार्यता पर गंभीर संदेह व्यक्त किया तथा छत्तीसगढ़ राज्य विधानमंडल की इस प्रकार का प्रावधान लागू करने की विधायी क्षमता पर प्रश्न उठाया। 
  • किराया नियंत्रण अधिनियम को राज्यपाल द्वारा सुरक्षित रखा गया था तथा संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अधीन इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। 

विवाद्यक 

  • क्या छत्तीसगढ़ किराया नियंत्रण अधिनियम, 2011 की धारा 13(2), जो किराया नियंत्रण अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में सीधे अपील का उपबंध करती है, भारत के संविधान के विरुद्ध है? 
  • क्या छत्तीसगढ़ राज्य विधानमंडल के पास उच्चतम न्यायालय को अपीलीय अधिकारिता प्रदान करने वाला प्रावधान अधिनियमित करने की विधायी क्षमता है? 
  • क्या राज्य की विधि पर राष्ट्रपति की स्वीकृति उन प्रावधानों को वैध ठहरा सकती है जो राज्य विधानमंडल की विधायी क्षमता से परे हैं? 
  • क्या संविधान के अनुच्छेद 138(2) को अनुच्छेद 200 के साथ पढ़ा जाए तो यह राज्य विधानमंडलों को राष्ट्रपति की सहमति के माध्यम से उच्चतम न्यायालय को अपीलीय अधिकारिता प्रदान करने में सक्षम बनाता है? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

  • सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 77 संसद को "उच्चतम न्यायालय के गठन, संगठन, अधिकारिता और शक्तियों" के संबंध में विधि बनाने की विशेष शक्ति प्रदान करती है, जबकि राज्य और समवर्ती सूचियों की प्रविष्टि 65 और 46 स्पष्ट रूप से उच्चतम न्यायालय को राज्य विधायी क्षमता से बाहर रखती हैं। 
  • राष्ट्रपति की स्वीकृति किसी ऐसे अधिनियम को वैध नहीं ठहरा सकती है जो राज्य विधानमंडल की विधायी शक्तियों से अधिक हो, न ही वह किसी ऐसे सांविधिक प्रावधान को वैध ठहरा सकती है जो अभिव्यक्त सांविधानिक प्रावधानों को निरर्थक बना देती है। 
  • अनुच्छेद 138(2) के अनुसार भारत सरकार और राज्य सरकार के बीच एक "विशेष करार" और ऐसी अधिकारिता के प्रयोग के लिये संसदीय विधि की आवश्यकता होती है - केवल राष्ट्रपति की सहमति "विशेष करार" का गठन नहीं करती है। 
  • धारा 13(2) अनुच्छेद 136 के अधीन विवेकाधीन विशेष अनुमति अधिकारिता से अलग अपील का एक अनिवार्य सांविधिक अधिकार बनाती है, जिससे सांविधानिक प्रावधानों से परे उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता का अनुचित रूप से विस्तार होता है। 
  • अनुच्छेद 136 के अधीन शक्ति विवेकाधीन और पर्यवेक्षी है, न कि नियमित अपीलीय अधिकारिता, जिसे सांविधिक अपीलों के साथ भ्रमित किया जा सकता है - अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को अन्य अपील प्रावधानों के होते हुए भी उचित मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है। 
  • राज्य विधानमंडल उच्च न्यायालय की अधिकारिता को प्रभावित कर सकते हैं (अनुच्छेद 226-227 के सिवाय, जो मूलभूत विशेषताएँ हैं), किंतु उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता को प्रभावित करने वाली विधि नहीं बना सकते, जो विशेष रूप से संसद की अधिकारिता में है। 
  • सांविधानिक योजना स्पष्ट पृथक्करण को प्रदर्शित करती है: संघीय संसद के पास उच्चतम न्यायालय के मामलों पर विशेष अधिकार है, जबकि राज्य विधानमंडल केवल "उच्चतम न्यायालय को छोड़कर" न्यायालयों के संबंध में ही विधि बना सकते हैं।