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आपराधिक कानून

आपराधिक विधि के अंतर्गत परिस्थितिजन्य साक्ष्य

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 30-Jun-2025

राजस्थान राज्य बनाम हनुमान

“पीड़ित के ब्लड ग्रुप के अनुरूप हथियार की बरामदगी मात्र IPC की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त नहीं है।”

न्यायमूर्ति संदीप मेहता एवं न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति संदीप मेहता एवं न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की खंडपीठ ने हाल ही में राजस्थान राज्य द्वारा प्रतिवादी (हनुमान) को दोषमुक्त करने के निर्णय को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया।

  • न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की, जिसने प्रतिवादी की दोषसिद्धि और ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाई गई आजीवन कारावास की सजा को खारिज कर दिया था तथा माना था कि पीड़ित के ब्लड ग्रुप वाले हथियार की बरामदगी मात्र भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 302 (BNS की धारा 103) के अधीन दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त नहीं है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम हनुमान (2025) के मामले में यह माना था।

राजस्थान राज्य बनाम हनुमान (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • यह घटना छोटू लाल नामक व्यक्ति की हत्या से संबंधित है, जो 1 और 2 मार्च, 2007 की मध्य रात्रि को हुई थी। अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई थी। 
  • बाद में परिस्थितिजन्य साक्ष्य और संदेह के आधार पर प्रतिवादी को फंसाया गया। अभियोजन पक्ष के मामले में निम्नलिखित तथ्य शामिल थे:
    • कथित हेतु यह है कि आरोपी की मृतक की पत्नी पर बुरी नजर थी; 
    • आरोपी से रक्त रंजित हथियार बरामद होना; 
    • एफएसएल रिपोर्ट से पुष्टि होती है कि हथियार पर खून का ग्रुप B+ve है, जो मृतक के ब्लड के ग्रुप जैसा ही है।
  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को 10 दिसंबर 2008 को धारा 302 IPC के अधीन दोषी माना तथा उसे 100 रुपये के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 
  • अपील में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने 15 मई 2015 के निर्णय के अधीन प्रतिवादी को दोषमुक्त कर दिया तथा कहा कि अभियोजन पक्ष परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर मामले में आवश्यक परिस्थितियों की श्रृंखला स्थापित करने में विफल रहा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने राज्य की अपील में कोई युक्तियुक्तता नहीं पाया। जबकि राज्य ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने एफएसएल रिपोर्ट को अनदेखा कर दिया, उच्चतम न्यायालय ने कहा: 
  • "भले ही एफएसएल रिपोर्ट को ध्यान में रखा जाए, लेकिन एकमात्र निष्कर्ष यह है कि हथियार में मृतक के समान ग्रुप का रक्त था (B+ve)। केवल यही दोषी ठहराने के लिये पर्याप्त नहीं है।" 
  • न्यायालय ने राजा नायकर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य, (2024) 3 एससीसी 481 में अपने पूर्व निर्णय पर भरोसा किया, जहाँ यह माना गया था कि:
    • "केवल रक्त रंजित हुआ हथियार बरामद होना, भले ही वह पीड़ित के ब्लड ग्रुप के समान ही क्यों न हो, हत्या के लिये दोषसिद्धि कायम रखने के लिये पर्याप्त नहीं है।"
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने टिप्पणी की:
    • हेतु अस्पष्ट था एवं निर्णायक रूप से स्थापित नहीं था। 
    • परिस्थितियों की श्रृंखला अधूरी थी, तथा अभियोजन पक्ष ऐसे ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा जो प्रतिवादी की दोषमुक्ति को खारिज कर सके।
  • पीठ ने इस तथ्य की पुष्टि की कि दोषमुक्त करने में हस्तक्षेप केवल तभी स्वीकार्य है जब साक्ष्य के आधार पर एकमात्र संभावित दृष्टिकोण अभियुक्त का दोषी होना हो। 
  • इस मामले में, उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया दृष्टिकोण - अर्थात अभियुक्त की निर्दोषता - एक प्रशंसनीय एवं एकमात्र संभावित दृष्टिकोण माना गया। 
  • यह निर्णय इस तथ्य को रेखांकित करता है कि फोरेंसिक साक्ष्य, जैसे ब्लड ग्रुपों के मिलान की पुष्टि करने वाली एफएसएल रिपोर्ट, को अन्य ठोस साक्ष्यों के साथ पुष्ट किया जाना चाहिये। 
  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य को निर्णायक रूप से दोष की ओर इशारा करना चाहिये, तथा ऐसे निर्णायक साक्ष्य की अनुपस्थिति अभियुक्त को दोषमुक्त करने का अधिकारी बनाती है। 
  • उच्चतम न्यायालय का निर्णय आपराधिक न्यायशास्त्र में उचित प्रक्रिया एवं संदेह के लाभ की प्रधानता की पुष्टि करता है।

परिस्थितिजन्य साक्ष्य से संबंधित विधि क्या है?

परिचय: 

  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य से तात्पर्य अप्रत्यक्ष साक्ष्य से है जो अपराध के होने का संकेत देता है लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर इसे सिद्ध नहीं करता। 
  • विधिक मानक यह है कि "परिस्थितियों की श्रृंखला में सभी लिंक इतने पूर्ण होने चाहिये कि वे अभियुक्त के अपराध की ओर स्पष्ट रूप से इशारा करें तथा निर्दोषता की किसी भी परिकल्पना को खारिज करें।"

पाँच स्वर्णिम सिद्धांत

  • शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) मामले में यह तथ्य अच्छी तरह स्थापित है, जहाँ न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भरता के लिये पाँच स्वर्णिम सिद्धांत निर्धारित किये थे, जिन्हें "पंचशील" के रूप में भी जाना जाता है:
    • परिस्थितियाँ पूरी तरह से स्थापित होनी चाहिये।
    • इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये।
    • परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति की होनी चाहिये।
    • उन्हें सिद्ध की जाने वाली परिकल्पना को छोड़कर हर संभावित परिकल्पना को बाहर करना चाहिये।
    • अभियुक्त के अपराध की ओर इशारा करने वाले साक्ष्यों की एक पूरी श्रृंखला होनी चाहिये।

प्रत्यक्ष एवं परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मध्य अंतर:

प्रत्यक्ष साक्ष्य

परिस्थितिजन्य साक्ष्य 

प्रत्यक्ष साक्ष्य किसी तथ्य को प्रत्यक्षतः सिद्ध करता है।

परिस्थितिजन्य साक्ष्य को निष्कर्ष से जोड़ने के लिये अनुमान की आवश्यकता होती है।

प्रत्यक्षदर्शी साक्षी की गवाही को आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य माना जाता है।

अपराध स्थल पर पाए जाने वाले भौतिक सुराग अक्सर परिस्थितिजन्य होते हैं।

न्यायालय आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य को अधिक महत्त्व देते हैं

परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी समान रूप से वैध हो सकते हैं यदि वे प्रमाण की एक पूर्ण श्रृंखला बनाते हैं।

प्रत्यक्ष साक्ष्य को आमतौर पर कम पुष्टि की आवश्यकता होती है

परिस्थितिजन्य साक्ष्य को अक्सर अपने सत्यापनात्मक मूल्य को सशक्त करने के लिये सहायक तथ्यों की आवश्यकता होती है।

ऐतिहासिक निर्णय:

  • अनवर अली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि के लिये एक परिस्थिति के रूप में हेतु के संबंध में विभिन्न निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का अवलोकन किया। 
    • न्यायालय ने कहा कि सुरेश चंद्र बाहरी बनाम बिहार राज्य (1995) के मामले में यह माना गया था कि यदि हेतु सिद्ध हो जाता है तो यह साक्ष्य की परिस्थितियों की श्रृंखला में एक कड़ी प्रदान करेगा, लेकिन हेतु की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है।
      • वहीं बाबू बनाम केरल राज्य (2010) में न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर किसी मामले में हेतु एक ऐसा कारक है जो अभियुक्त के पक्ष में भारी पड़ता है।
  • नागेंद्र शाह बनाम बिहार राज्य (2021):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामलों में, IEA की धारा 106 के अनुसार उचित स्पष्टीकरण देने में अभियुक्त की विफलता, परिस्थितियों की श्रृंखला में एक अतिरिक्त कड़ी के रूप में कार्य कर सकती है।
  • दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023):
    • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विवाहेतर संबंध से संबंधित परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर हत्या के मामले को यथावत रखा, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 का महत्त्व है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष को परिस्थितियों की श्रृंखला में हर कड़ी को उचित संदेह से परे सिद्ध करना चाहिये, ताकि निर्दोषता के लिये कोई संभावना न रहे।
  • बलवीर सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य (2023):
    • इस मामले में यह माना गया कि पति और उसके रिश्तेदारों को दोषी सिद्ध करने के लिये पूर्ण सुनवाई होनी चाहिये, तथा न्यायालय इसके लिये IEA की धारा 106 के प्रावधानों की सहायता नहीं ले सकता है।