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सांविधानिक विधि
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 145
«01-Aug-2025
परिचय
भारत के संविधान, 1950 (COI) का अनुच्छेद 145 एक महत्त्वपूर्ण उपबंध है जो उच्चतम न्यायालय को नियम-निर्माण प्राधिकार के माध्यम से अपने स्वयं के कार्यों को विनियमित करने का अधिकार देता है। यह अनुच्छेद प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और व्यवस्थित न्यायिक प्रशासन सुनिश्चित करते हुए उच्चतम न्यायालय की प्रशासनिक स्वायत्तता स्थापित करता है। यह उच्चतम न्यायालय के आंतरिक शासन, प्रक्रियात्मक तंत्र और संचालन संबंधी दिशानिर्देशों के लिये आधारभूत ढाँचे के रूप में कार्य करता है, जिससे यह उच्चतम न्यायालय के कार्यकाज को नियंत्रित करने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण प्रावधानों में से एक बन जाता है।
अनुच्छेद 145 के प्रमुख उपबंध
नियम-निर्माण प्राधिकरण (खण्ड 1):
सामान्य रूपरेखा:
- उच्चतम न्यायालय को कार्यप्रणाली और प्रक्रिया को विनियमित करने के लिये नियम बनाने की अंतर्निहित शक्ति प्राप्त है।
- नियमों को लागू करने से पहले राष्ट्रपति की मंजूरी की आवश्यकता होती है।
- संसद द्वारा बनाए गए किसी भी अधिभावी विधि के अधीन।
नियम-निर्माण के विशिष्ट क्षेत्र:
व्यावसायिक अभ्यास और विधि-व्यवसाय:
- न्यायालय के समक्ष अभ्यास करने वाले व्यक्तियों को नियंत्रित करने वाले नियम।
- अधिवक्ताओं के लिये योग्यता और रजिस्ट्रीकरण आवश्यकताएँ।
- व्यावसायिक आचरण और अनुशासनात्मक उपाय।
अपील और अपीलीय प्रक्रियाएँ:
- अपील और संबंधित मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया।
- उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करने की समय सीमा।
- दस्तावेज़ीकरण और प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ।
मौलिक अधिकार प्रवर्तन:
- भाग 3 अधिकार (मौलिक अधिकार) से संबंधित मामलों के लिये विशेष प्रक्रियाएँ।
- सांविधानिक उपचार मामलों के लिये त्वरित तंत्र।
- रिट अधिकारिता प्रक्रियाएँ।
अनुच्छेद 139क कार्यवाही:
- उच्च न्यायालयों के बीच मामलों के अंतरण के लिये विशिष्ट नियम।
- अंतर-न्यायालय समन्वय तंत्र।
- मामले के अंतरण के लिये प्रशासनिक प्रक्रियाएँ।
आपराधिक अपील प्रबंधन:
- अनुच्छेद 134(1)(ग) के अधीन अपील स्वीकार करने के नियम।
- आपराधिक मामलों के लिये विशेष प्रक्रियाएँ।
- जमानत और अभिरक्षा से संबंधित उपबंध।
पुनर्विलोकन अधिकारिता:
- निर्णयों और आदेशों के पुनर्विलोकन के लिये शर्तें।
- पुनर्विलोकन आवेदन दाखिल करने की समय सीमा।
- पुनर्विलोकन कार्यवाही के लिये प्रक्रियात्मक ढाँचा।
वित्तीय एवं प्रशासनिक मामले:
- न्यायालय फीस और खर्चे की संरचनाएँ।
- विभिन्न कार्यवाहियों के लिये शुल्क।
- न्यायालय संचालन के लिये वित्तीय विनियमन।
अंतरिम अनुतोष तंत्र:
- जमानत देने की प्रक्रिया और शर्तें।
- उपयुक्त मामलों में कार्यवाही पर रोक।
- अंतरिम आदेश और सुरक्षात्मक उपाय।
मामला प्रबंधन और निपटान:
- तुच्छ या तंग करने वाली अपीलों का संक्षिप्त निर्धारण।
- न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने की प्रक्रियाएँ।
- जानबूझकर किये जाने वाले विलंब से बचने के लिये तंत्र।
न्यायिक जांच:
- अनुच्छेद 317 (न्यायाधीश को हटाने की कार्यवाही) के अधीन जांच की प्रक्रिया।
- न्यायिक आचरण मामलों के लिये प्रशासनिक प्रक्रियाएँ।
- जांच प्रक्रियाएँ और प्रोटोकॉल।
न्यायिक संरचना और पीठ का गठन (खण्ड 2):
पीठ गठन प्राधिकरण:
- नियम विभिन्न उद्देश्यों के लिये न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या निर्दिष्ट कर सकते हैं।
- एकल न्यायाधीशों की शक्तियां और अधिकारिता को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया।
- खण्ड न्यायालय की शक्तियां और सीमाएँ स्थापित की गईं।
- मामले की आवश्यकताओं के आधार पर पीठ के गठन में लचीलापन।
सांविधानिक पीठ की आवश्यकताएँ (खण्ड 3):
अनिवार्य पाँच न्यायाधीशों की पीठ:
- सांविधानिक निर्वचन के मामलों में न्यूनतम पाँच न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है।
- अनुच्छेद 143 के अंतर्गत संदर्भित मामलों के लिये पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ की आवश्यकता होती है।
- महत्त्वपूर्ण सांविधानिक प्रश्नों के लिये बड़ी पीठ की आवश्यकता है।
निर्देशित करने का तंत्र:
- छोटी पीठों को सांविधानिक प्रश्नों को पाँच न्यायाधीशों वाली पीठ को भेजना होगा।
- जब सांविधानिक निर्वचन आवश्यक हो जाए तो स्वतः ही निर्देशित करेगा।
- संदर्भित न्यायालयों पर सांविधानिक पीठ की राय की प्रकृति बाध्यकारी है।
- मामलों का निपटारा सांविधानिक पीठ की राय के अनुरूप होना चाहिये।
खुले न्यायालय की आवश्यकताएँ (खण्ड 4):
पारदर्शिता अधिदेश:
- सभी निर्णय खुले न्यायालय में सुनाए जाने चाहिये।
- अनुच्छेद 143 रिपोर्ट (परामर्श अधिकारिता) लोक रूप से प्रस्तुत की गई।
- किसी गुप्त या निजी निर्णय की अनुमति नहीं है।
- न्यायिक निर्णयों तक जनता की पहुँच सुनिश्चित की गई।
बहुमत निर्णय नियम (खण्ड 5):
निर्णय लेने की प्रक्रिया:
- निर्णयों के लिये उपस्थित न्यायाधीशों के बहुमत की सहमति आवश्यक है।
- सलाहकार राय भी बहुमत नियम सिद्धांत का पालन करती है।
- विसम्मत न्यायाधीशों को पृथक् निर्णय देने का अधिकार बरकरार रहता है।
- अल्पसंख्यक राय को विधिक विकास के लिये संरक्षित और अभिलिखित किया गया।
विसम्मत राय के अधिकार:
- विसम्मत न्यायाधीश विसम्मत निर्णय दे सकते हैं।
- विसम्मत राय न्यायशास्त्रीय विकास में योगदान देती है।
- वैकल्पिक विधिक तर्क भविष्य में संदर्भ के लिये संरक्षित रखे गए हैं।
- बौद्धिक चर्चा और विधिक तर्क-वितर्क को प्रोत्साहित किया गया।
सांविधानिक महत्त्व
- प्रशासनिक स्वतंत्रता:
- अनुच्छेद 145 उच्चतम न्यायालय की प्रशासनिक स्वायत्तता सुनिश्चित करता है, जिससे उसे राष्ट्रपति के अनुमोदन के माध्यम से सांविधानिक निरीक्षण बनाए रखते हुए अपनी प्रक्रियाओं को संचालित करने की अनुमति मिलती है।
प्रक्रियात्मक निष्पक्षता:
- यह प्रावधान उच्चतम न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले सभी पक्षकारों के लिये निष्पक्ष सुनवाई, उचित प्रतिनिधित्व और पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने हेतु व्यवस्थित प्रक्रियाएँ स्थापित करता है।
सांविधानिक सर्वोच्चता:
- सांविधानिक मामलों के लिये पाँच न्यायाधीशों की पीठ की अनिवार्य आवश्यकता मौलिक सांविधानिक प्रश्नों पर गहन विचार-विमर्श सुनिश्चित करती है और सांविधानिक निर्वचन में एकरूपता बनाए रखती है।
न्यायिक पारदर्शिता:
- खुले न्यायालय की आवश्यकताएँ न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को बढ़ावा देती हैं और न्यायिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं।
निष्कर्ष
अनुच्छेद 145 न्यायिक स्वतंत्रता और सांविधानिक जवाबदेही के बीच एक उत्कृष्ट संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। यह उच्चतम न्यायालय को स्व-नियमन के माध्यम से कुशलतापूर्वक कार्य करने का अधिकार देता है, साथ ही यह सुनिश्चित करता है कि उसका संचालन पारदर्शी, निष्पक्ष और सांविधानिक रूप से अनुपालनशील रहे। इस उपबंध का व्यापक ढाँचा न्यायालय के कार्यकाज के हर पहलू की, वृत्तिक व्यवसाय से लेकर सांविधानिक निर्वचन तक की बात करता है, जिससे यह भारत की न्यायिक संरचना का एक अनिवार्य स्तंभ बन जाता है।