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सांविधानिक विधि
अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ (2020)
«01-Aug-2025
परिचय
यह मामला अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद जम्मू और कश्मीर में अधिरोपित किये गए प्रतिबंधों की सांविधानिक वैधता से संबंधित है। याचिकाकर्त्ताओं ने अनिश्चितकालीन इंटरनेट बंद, आवाजाही पर प्रतिबंध और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 लागू करने को चुनौती दी थी। मुख्य मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा और मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से अभिव्यक्ति, प्रेस और इंटरनेट के माध्यम से व्यापार की स्वतंत्रता के बीच संतुलन का था।
तथ्य
- 2 अगस्त 2019 को, जम्मू और कश्मीर के गृह विभाग ने एक सुरक्षा सलाह जारी की, जिसमें पर्यटकों और अमरनाथ यात्रा तीर्थयात्रियों को सुरक्षा चिंताओं के कारण घाटी छोड़ने का निदेश दिया गया।
- 4 अगस्त 2019 को, सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विभिन्न जिलों में आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया, मोबाइल नेटवर्क, इंटरनेट सेवाएँ और यहाँ तक कि लैंडलाइन कनेक्टिविटी भी निलंबित कर दी।
- 5 अगस्त 2019 को, भारत के राष्ट्रपति द्वारा सांविधानिक आदेश 272 जारी किया गया, जिसने अनुच्छेद 370 को प्रभावी रूप से निरस्त कर दिया और जम्मू और कश्मीर राज्य का पुनर्गठन किया।
- शांति भंग होने से रोकने के लिये सभी जिलों में धारा 144 लागू कर दी गई, जिससे लोक समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा आवाजाही पर रोक लगा दी गई।
- कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने दावा किया कि इन प्रतिबंधों से पत्रकारिता गतिविधि बाधित हुई और 6 अगस्त 2019 से अखबार का श्रीनगर संस्करण बंद हो गया।
- संसद सदस्य गुलाम नबी आज़ाद ने एक पृथक् रिट याचिका दायर कर अभिकथित किया कि उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने से रोका गया और वे लोगों से संवाद करने में असमर्थ हैं।
- दोनों याचिकाकर्त्ताओं ने अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर संसूचना और आवाजाही पर प्रतिबंध अधिरोपित करने वाले सभी आदेशों को रद्द करने तथा इंटरनेट, फोन और अन्य सेवाओं की बहाली का अनुरोध किया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने आपात स्थिति या संवेदनशील राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता और संचार तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये दिशानिर्देश तैयार करने की भी मांग की।
- सरकार ने दावा किया कि आतंकवाद को रोकने, शांति बनाए रखने और विधि-व्यवस्था बनाए रखने के लिये ऐसे प्रतिबंध आवश्यक थे, विशेष रूप से खुफिया जानकारी और घाटी में हिंसा के पिछले अनुभव के मद्देनजर।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि आदेश न तो प्रकाशित किये गये और न ही उपलब्ध कराये गये, जिससे उन्हें चुनौती देना असंभव हो गया और उनमें पारदर्शिता या विधिक औचित्य का अभाव था।
विवाद्यक
- क्या इंटरनेट के माध्यम से अभिव्यक्ति और व्यापार की स्वतंत्रता संविधान के अंतर्गत संरक्षित है।
- क्या अनिश्चितकालीन इंटरनेट शटडाउन और धारा 144 लागू करने के आदेश वैध थे।
- क्या सरकार धारा 144 और निलंबन नियमों के अधीन आदेशों को प्रस्तुत करने से रोक सकती है।
- क्या याचिकाकर्त्ताओं के अधिकारों, विशेषकर प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- इंटरनेट के माध्यम से मौलिक अधिकार :
- न्यायालय ने घोषित किया कि अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन व्यापार या वृत्ति के अधिकार में एक माध्यम के रूप में इंटरनेट का उपयोग सम्मिलित है।
- इस प्रकार, इंटरनेट एक्सेस पर किसी भी प्रतिबंध को अनुच्छेद 19(2) और 19(6) के अधीन परीक्षणों को पूरा करना होगा – अर्थात्, उचित, आवश्यक और आनुपातिक होना चाहिये।
- अनिश्चितकालीन इंटरनेट शटडाउन पर :
- न्यायालय ने कहा कि विधि के अधीन इंटरनेट सेवाओं को अनिश्चितकाल के लिये स्थगित करना स्वीकार्य नहीं है ।
- दूरसंचार सेवाओं के निलंबन को दूरसंचार सेवाओं के अस्थायी निलंबन (लोक आपातकाल या लोक सुरक्षा) नियम, 2017 का अनुपालन करना होगा, और समीक्षा समिति द्वारा हर 7 दिनों में इसकी समीक्षा की जानी चाहिये।
- आदेश प्रकाशित करने की आवश्यकता :
- सरकार को प्रतिबंध लगाने वाले सभी आदेश प्रकाशित करने चाहिये जिससे उन्हें विधिक रूप से चुनौती दी जा सके।
- गुप्त या अघोषित प्रतिबंध प्राकृतिक न्याय और विधि के शासन का उल्लंघन करते हैं ।
- राम जेठमलानी बनाम भारत संघ मामले का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने दोहराया कि मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले मामलों में पारदर्शिता आवश्यक है।
- धारा 144 के आदेश पर :
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 का उपयोग वैध अभिव्यक्ति या असहमति को दबाने के लिये नहीं किया जा सकता ।
- ऐसे आदेश वस्तुनिष्ठ सामग्री पर आधारित होने चाहिये, आम जनता पर लागू नहीं किये जा सकते, तथा उनमें विशिष्ट खतरों या व्यक्तियों की पहचान होनी चाहिये।
- राज्य पूरे क्षेत्र पर व्यापक प्रतिबंध लगाने के लिये अनिश्चित काल तक धारा 144 पर निर्भर नहीं रह सकता।
- आनुपातिकता का सिद्धांत :
- मौलिक अधिकारों पर किसी भी प्रतिबंध को आनुपातिकता के चार-आयामी परीक्षण से गुजरना होगा : वैध उद्देश्य, आवश्यकता, तर्कसंगत संबंध, और न्यूनतम प्रतिबंधात्मक साधन।
- न्यायालय ने "न्यूनतम प्रतिबंधात्मक" विकल्पों के महत्त्व पर बल दिया , जैसे कि संपूर्ण इंटरनेट प्रतिबंध के स्थान पर केवल सोशल मीडिया को अवरुद्ध करना।
- प्रेस की स्वतंत्रता पर :
- न्यायालय ने माना कि लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता आवश्यक है।
- इसमें मीडिया की कार्य करने की क्षमता पर संसूचना ब्लैकआउट के नकारात्मक प्रभाव को स्वीकार किया गया।
- यद्यपि, मीडिया को सीधे निशाना बनाने के तथ्यात्मक साक्ष्य के अभाव के कारण, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका कि प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया गया था।
- प्रतिबंध लगाने की कोई व्यापक शक्ति नहीं :
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है, किंतु इसका प्रयोग सांविधानिक सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने के लिये व्यापक औचित्य के रूप में नहीं किया जा सकता।
- प्राधिकारियों को वास्तविक खतरों के आधार पर प्रतिबंधों को उचित ठहराना होगा, तथा न्यायालयों को ऐसे कार्यकारी कार्यों पर पुनर्विलोकन करने का अधिकार होगा।
- अधिकारों के संरक्षण में प्रौद्योगिकी का उपयोग :
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि विधि को प्रौद्योगिकी के साथ विकसित होना चाहिये, और इंटरनेट अधिकारों का एक महत्त्वपूर्ण प्रवर्तक है, भले ही यह स्वयं में मौलिक अधिकार न हो।
- श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ जैसे पूर्व मामलों का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने दोहराया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में साइबरस्पेस सहित सभी आधुनिक माध्यम सम्मिलित हैं।