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सांविधानिक विधि
प्रसादपर्यंत का सिद्धांत और कार्यपालिका की मनमानी कार्यवाही
«27-Nov-2025
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सुनील बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य "सरकार की इच्छानुसार की गई नियुक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 14 द्वारा सीमित हैं, जो मनमानी पर पूरी तरह से रोक लगाता है।" न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना ने सुनील बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025) मामले में एक अपर जिला सरकारी अधिवक्ता की नियुक्ति को उसकी नियुक्ति के 24 घंटे के भीतर रद्द करने की अधिसूचना को अपास्त कर दिया और उसकी मूल नियुक्ति को बहाल कर दिया।
सुनील बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह याचिका अधिवक्ता सुनील सांक ने दायर की थी, जिसमें उन्होंने अपर जिला सरकारी अधिवक्ता के रूप में उनकी नियुक्ति को मनमाने ढंग से रद्द करने को चुनौती दी थी।
- 28-10-2025 को, याचिकाकर्त्ता को बेलगावी जिले के अथानी में स्थित ग्यारहवें अपर जिला और सेशन न्यायालय, बेलगावी में अपर जिला सरकारी अधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया गया था।
- यह नियुक्ति कर्नाटक विधि अधिकारी (नियुक्ति एवं सेवा शर्तें) नियम, 1977 के अंतर्गत की गई।
- याचिकाकर्त्ता ने नियुक्ति के बाद कार्यभार ग्रहण किया और न्यायालय में उपस्थित हुए।
- 24 घंटे के भीतर, 29-10-2025 को, विधि विभाग ने याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति रद्द करने की अधिसूचना जारी कर दी।
- इसी अधिसूचना में याचिकाकर्त्ता के स्थान पर अधिवक्ता डी.बी. थंकणनवर को नियुक्त किया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि नियुक्ति रद्द करना मनमाना था तथा नियुक्ति विधि के अनुसार की गई थी।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि नियुक्ति में परिवर्तन मंत्री के टिप्पणी (note) के कारण हुआ।
- राज्य सरकार ने कर्नाटक विधि अधिकारी नियम, 1977 के नियम 26 और 28 के अधीन नियुक्तियों के बीच अंतर का हवाला देते हुए इस कार्रवाई का बचाव किया।
- राज्य ने तर्क दिया कि सरकारी अधिवक्ता की नियुक्तियाँ राज्य की इच्छा पर निर्भर हैं और उन्हें किसी भी समय वापस लिया जा सकता है।
- राज्य ने तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता के किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि नियुक्ति राज्य की इच्छा पर निर्भर थी।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने मामले की असाधारण प्रकृति पर ध्यान देते हुए कहा, "संभवतः न्यायिक पुनर्विलोकन के इतिहास में सत्ता के इस तरह के घोर मनमाने प्रयोग का यह पहला मामला है; 24 घंटे में राज्य अपनी इच्छा के अनुसार अपने आदेश बदल देता है।"
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 14 "वह स्वर्णिम धागा है जो भारत के संविधान के संपूर्ण ढाँचे में बुना गया है और राज्य की कार्रवाई का प्रत्येक मनका उस स्वर्णिम धागे से होकर गुजरना चाहिये।"
- यह स्वीकार करते हुए कि नियम 26 के अधीन नियुक्तियाँ सरकार की इच्छा पर की जाती हैं, न्यायालय ने कहा कि ऐसी इच्छा पर कोई प्रतिबंध नहीं है और यह अनुच्छेद 14 के मनमानेपन के प्रति निषेध से घिरा हुआ है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति नामांकन नहीं अपितु नियमों के अधीन नियुक्ति थी, और यद्यपि इसमें तीन वर्ष या अगले आदेश तक की अवधि का संकेत दिया गया था, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य मनमाने ढंग से कार्य कर सकता है।
- न्यायालय ने पाया कि मनमानी "इतनी स्पष्ट और प्रत्यक्ष" थी कि वैध नियुक्ति को बिना किसी प्रशासनिक आवश्यकता या विधिक दुर्बलता के 24 घंटे के भीतर वापस ले लिया गया।
- न्यायालय ने घोषणा की कि न्यायिक हस्तक्षेप "ऐसे मामलों में न केवल उचित, अपितु अनिवार्य हो जाता है" और वह कार्यपालिका की मनमानी पर मूकदर्शक नहीं रह सकता।
- न्यायालय ने तीसरे प्रत्यर्थी की नियुक्ति संबंधी 29-10-2025 की अधिसूचना को अपास्त कर दिया तथा याचिकाकर्त्ता की 28-10-2025 की नियुक्ति को बहाल कर दिया।
प्रसादपर्यंत का सिद्धांत क्या है?
बारे में:
- प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अर्थ है कि क्राउन के पास किसी भी समय किसी सिविल सेवक की सेवाओं को समाप्त करने की शक्ति है, बिना उसे सेवा समाप्ति का कोई नोटिस दिये और इस प्रकार एक सिविल सेवक क्राउन की प्रसादपर्यंत तक पद धारण करता है।
- यह सिद्धांत लोक नीति पर आधारित है ।
प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:
- भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 155 के अनुसार, किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 310 में कहा गया है कि सिविल सेवक (रक्षा सेवाओं, सिविल सेवाओं, अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य या केंद्र/राज्य के अधीन सैन्य पद या सिविल पद धारण करने वाले व्यक्ति) राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यंत, जैसा भी मामला हो, पद धारण करते हैं।
प्रसादपर्यंत के सिद्धांत पर निर्बंधन:
- भारत का संविधान इस सिद्धांत के प्रयोग पर निम्नलिखित निर्बंधन लगाता है:
- राष्ट्रपति या राज्यपाल का प्रसादपर्यंत भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 के उपबंधों द्वारा नियंत्रित होता है, इसलिये अनुच्छेद 311 द्वारा बताए गए क्षेत्र को इस सिद्धांत के संचालन से अपवर्जित किया गया है।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पर निर्भर नहीं है । ये पद प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के प्रभाव से अपवर्जित हैं।
- यह सिद्धांत मौलिक अधिकारों के अधीन है।
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 311 सिविल सेवकों को उनके पदों से किसी भी मनमाने ढंग से बर्खास्तगी के विरुद्ध निम्नलिखित सुरक्षा प्रदान करता है :
- यह किसी सिविल सेवक को हटाने पर निर्बंधन अधिरोपित करता है ।
- इसमें सिविल सेवकों को उनके विरुद्ध आरोपों पर सुनवाई के लिये उचित अवसर दिये जाने का प्रावधान है।
महत्त्वपूर्ण निर्णय:
- बिहार राज्य बनाम अब्दुल माजिद (1954):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संबंध में, अंग्रेजी सामान्य विधि को उसकी संपूर्णता में और उसके सभी कठोर निहितार्थों के साथ नहीं अपनाया गया है।
- भारत संघ बनाम तुलसीराम पटेल (1985):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रसादपर्यंत का सिद्धांत न तो सामंती युग का अवशेष है और न ही यह ब्रिटिश राज के किसी विशेष विशेषाधिकार पर आधारित है, अपितु यह लोक नीति पर आधारित है।