होम / किशोर न्याय अधिनियम
आपराधिक कानून
सलिल बाली बनाम भारत संघ (2013)
«24-Nov-2025
परिचय
यह ऐतिहासिक निर्णय किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की सांविधानिक वैधता की जांच करता है, विशेष रूप से 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में एक किशोर से संबंधित सामूहिक बलात्संग की घटना के पश्चात्।
- यह निर्णय मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने 17 जुलाई, 2013 को दिया।
- इस मामले में किशोर न्याय अधिनियम के सुरक्षात्मक प्रावधानों को चुनौती देने वाली सात रिट याचिकाएँ और एक अंतरित मामला सम्मिलित था।
तथ्य
- यह मामला 16 से 18 वर्ष की आयु के व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले आपराधिक अपराधों में वृद्धि के कारण उत्पन्न हुआ था, विशेष रूप से 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्संग की घटना के कारण।
- सलिल बाली और सौरभ प्रकाश सहित याचिकाकर्त्ताओं ने किशोर न्याय अधिनियम को चुनौती दी थी और पूरे अधिनियम को संविधान के विरुद्ध घोषित करने की मांग की थी।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि जहाँ भारतीय दण्ड संहिता में आपराधिक उत्तरदायित्त्व की आयु 12 वर्ष (धारा 82 और 83) मानी गई है, वहीं किशोर न्याय अधिनियम में धारा 15 के अधीन 18 वर्ष तक के व्यक्तियों को हत्या और बलात्संग जैसे जघन्य अपराधों के लिये भी अधिकतम तीन वर्ष के दण्ड का प्रावधान है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि यह विभेदकारी व्यवहार संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है और तर्क दिया कि जघन्य अपराध करने वाले किशोरों पर सामान्य वयस्क विधि के अधीन विचारण चलाया जाना चाहिये।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 भारत के संविधान के विरुद्ध है?
- क्या "बालक” [धारा 2(ट)] और "विधि का उल्लंघन करने वाले किशोर" [धारा 2(ठ)] की परिभाषाएँ, जिनमें ऊपरी आयु सीमा 18 वर्ष निर्धारित की गई थी, मनमानी, तर्कहीन और असांविधानिक थीं?
- क्या धारा 15 के अंतर्गत दण्ड की संरचना (अधिकतम तीन वर्ष की अवधि) और धारा 19 के अंतर्गत अयोग्यता हटाने के प्रावधान अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करते हैं, विशेष रूप से जघन्य अपराध के मामलों में?
- क्या न्यायालय को सरकार को अधिनियम में संशोधन करने का निदेश देना चाहिये जिससे पर्याप्त परिपक्वता वाले 16 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों पर सामान्य दण्ड विधियों के अधीन विचारण चलाने की अनुमति मिल सके?
न्यायालय की टिप्पणियां
- न्यायालय ने कहा कि किशोरावस्था के लिये ऊपरी आयु सीमा 18 वर्ष निर्धारित करना संसद का वर्षों के विचार-विमर्श के बाद लिया गया एक सचेत नीतिगत निर्णय था।
- न्यायालय ने बाल्को कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ मामले का हवाला देते हुए दोहराया कि लोक नीति निर्णयों की बुद्धिमत्ता या निष्पक्षता पर प्रश्न उठाना न तो न्यायालय की अधिकारिता है और न ही न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आता है।
- न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 15(3) के अनुरूप है, जो राज्य को बालकों के लिये विशेष उपबंध अधिनियमित करने का अधिकार देता है।
- न्यायालय ने माना कि किशोर न्याय अधिनियम को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अधिनियमित किया गया है, जिसमें बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय, 1989 और बीजिंग नियम, 1985 सम्मिलित हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि 18 वर्ष की सीमा संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के अनुच्छेद 1 और वैज्ञानिक आंकड़ों पर आधारित है, जो यह सुझाव देते हैं कि बालक की शारीरिक और मानसिक वृद्धि और विकास कम से कम 18 वर्ष की आयु तक जारी रहता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किशोर न्याय अधिनियम, प्रतिशोधात्मक न्याय के बजाय पुनर्स्थापनात्मक न्याय पर आधारित है, जिसका उद्देश्य विधि से संघर्षरत बालकों का पुनर्वास करना तथा उन्हें समाज की मुख्यधारा में पुनः सम्मिलित करना है।
- न्यायालय ने कहा कि 18 वर्ष की आयु विशेषज्ञों की इस समझ के आधार पर तय की गई थी कि इस आयु तक भी बालकों को छुड़ाया जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े दर्शाते हैं कि किशोरों द्वारा किये गये अपराध देश की अपराध दर का केवल 2% है, जिससे 16 दिसंबर 2012 की घटना "नियम के बजाय अपवाद" बन गयी।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 15(1)(छ) में 2006 में किये गए संशोधन के अनुसार तीन वर्ष के दण्ड का उपबंध है, जिसे किशोर को तब भी भुगतना होगा, जब वह इस अवधि के दौरान 18 वर्ष का हो जाए। न्यायालय ने इस भ्रांति को दूर किया कि किशोरों को 18 वर्ष का होने पर "मुक्त होने की अनुमति" है।
निष्कर्ष
न्यायालय ने सभी रिट याचिकाओं और अंतरित मामले को खारिज कर दिया और किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 में कोई सांविधानिक कमी नहीं पाई। न्यायालय ने माना कि यह अधिनियम ठोस सिद्धांतों पर आधारित है और "संसद के सामूहिक विवेक" का प्रतिनिधित्व करता है। न्यायालय ने कहा कि विद्यमान विधियों का प्रभावी और ईमानदारी से क्रियान्वयन विधायी परिवर्तनों से बेहतर परिणाम देगा। न्यायालय को सांविधिक प्रावधानों में परिवर्तन के लिये पर्याप्त आँकड़े या सांविधानिक आधार नहीं मिले।