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सिविल कानून

आदेश 7 नियम 11 पूर्व-न्याय को अपवर्जित करता है

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 16-Jul-2025

यह न्यायालय इस विषय पर कोई अभिमत व्यक्त नहीं करता कि क्या एकपक्षीय डिक्री पूर्व निर्णय के रूप में प्रवर्तनीय थी या नहीं; तथापि यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया कि ऐसी जांच आदेश VII नियम 11 सीपीसी के अंतर्गत नहीं की जा सकती, विशेषतः जब अपीलकर्ता द्वारा विशिष्ट कथन (Specific Pleadings) एवं निरूपित प्रार्थनाएं (Reliefs Sought) वादपत्र में उल्लिखित हों।” 

यह न्यायालय इस विषय पर कोई अभिमत व्यक्त नहीं करता कि क्या एकपक्षीय डिक्री पूर्व-न्याय के रूप में संचालित होती है, तथापि यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया कि ऐसी जांच सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत नहीं की जा सकती, विशेषतः अपीलकर्त्ता की विशिष्ट अभिवचनों और मांगी गए अनुतोष के प्रकाश में।" 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हाऔरन्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची नेनिर्णय दिया कि पूर्व-न्याय (res judicata) विचारण का मामला है और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वादपत्र को नामंजूर किये जाने का आधार नहीं है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने पांडुरंगन बनाम टी. जयराम चेट्टियार एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

पांडुरंगन बनाम टी. जयराम चेट्टियार एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • अपीलकर्त्ता ने 1998 में श्री हुसैन बाबू से विवादित संपत्ति खरीदी थी, जिन्होंने इसे पहले 1991 में सुश्री जयम अम्मल से खरीदा था। अपीलकर्ता ने दावा किया कि जब परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं और वर्तमान वाद दायर किया गया, तब संपत्ति पर उसका शांतिपूर्ण कब्ज़ा था 
  • कब्जे के दौरान, अपीलकर्त्ता को पता चला कि एक एडवोकेट-कमिश्नर उसकी संपत्ति का निरीक्षण करना चाह रहा था। पूछताछ करने पर, उसे पता चला कि प्रतिवादी संख्या 1, जो सह-स्वामी होने का दावा करता है, ने सुश्री जयम अम्मल और अन्य के विरुद्ध OS संख्या 298/1996 के अधीन विभाजन का वाद दायर किया था और अपने पक्ष में 29.07.1997 की एक पक्षीय डिक्री प्राप्त कर ली थी। 
  • अपीलकर्त्ता ने अभिकथित किया कि वाद दायर होने के तुरंत बाद सुश्री जयम अम्मल की मृत्यु हो गई, और उनकी पुत्री सेल्वी ने कार्यवाही का विरोध नहीं किया, जिससे वाद एकपक्षीय रूप से आगे बढ़ गया। हुसैन बाबू, जो पहले वाद में तीसरे प्रतिवादी थे, कथित तौर पर अबू धाबी में थे और उनका मानना था कि सेल्वी मामले की पैरवी करेंगी और क्रेता के हितों की रक्षा करेंगी।  
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि एकपक्षीय डिक्री कपटपूर्वक और साँठगाँठ से प्राप्त की गई थी। उन्होंने विशेष रूप से अभिकथित किया कि प्रतिवादी संख्या 1 ने कुड्डालोर के अधीनस्थ न्यायालय में वाद दायर करके कपट किया, जिसके पास प्रादेशिक अधिकारिता नहीं थी, जबकि विवादित संपत्तियों के स्थान के आधार पर यह वाद चिदंबरम के अधीनस्थ न्यायालय में दायर किया जाना चाहिये था।  
  • इन परिस्थितियों से विवश होकर, अपीलकर्त्ता ने 2009 का अधियाचन दायर कर स्वामित्व की घोषणा और स्थायी व्यादेश की मांग की, यह दावा करते हुए कि एकपक्षीय डिक्री उस पर आबद्धकर नहीं थी। प्रतिवादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि चूँकि पूर्व की एकपक्षीय डिक्री अंतिम हो चुकी थी, इसलिये वाद को पूर्व-न्याय द्वारा वर्जित किया गया था। 
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि वह पहले वाले वाद में पक्षकार नहीं था और इसलिये उस पर 'पूर्व-न्याय' का सिद्धांत लागू नहीं होगा। उसने तर्क दिया कि एकपक्षीय डिक्री कपटपूर्ण थी और संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 के उपबंध उसके मामले में लागू नहीं हो सकते। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन, न्यायालय केवल वादपत्र के कथनों और उसके साथ संलग्न दस्तावेज़ों की जांच कर सकता हैं, प्रतिवादी के बचाव या दस्तावेजों की नहीं। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया किपूर्व-न्याय अधिनिर्णयआदेश 7, नियम 11 के दायरे से बाहर है क्योंकि इसमें पूर्ववर्ती वादों के अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों की जांच करने की आवश्यकता होती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि पूर्व-न्याय निर्धारण में निम्नलिखित स्थापित करने की आवश्यकता है: (i) पूर्व में विनिश्चित किया गया वाद, (ii) पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य विषय, (iii) उन्हीं पक्षकारों के बीच या जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करने वाले पक्षकार, और (iv) सक्षम न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से न्यायनिर्णित विवाद्यक 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कूटसंधिपूर्ण एकपक्षीय डिक्री, अधिकारिता संबंधी कपट, या सद्‍भावी क्रेता की स्थिति के अभिकथनों की गहन जांच और पूर्व डिक्री के प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वादपत्र के नामंजूर किये जाने के आवेदनों में मात्र कथनों के आधार पर पूर्व-न्याय का निर्णय नहीं किया जा सकता है तथा वाद-हेतुक की समानता के निर्धारण के लिये प्रथम वाद के दस्तावेज़ों के विश्लेषण के साथ परीक्षण की आवश्यकता होती है, न कि अटकलों या अनुमान की। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विचारण न्यायालय अपीलकर्त्ता के वादपत्र पर विचार या विश्लेषण करने में असफल रहा तथा अपीलकर्त्ता के आपेक्ष को नामंजूर करने के उसके दृष्टिकोण से असहमत था। 
  • न्यायालय ने कहा कि पूर्व-न्याय के आक्षेप, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7, नियम 11 के अधीन वादों को वर्जित नहीं करते है, विशेषत: एकपक्षीय डिक्री, संव्यवहार की परिस्थितियों और घोषणा प्रार्थना के बारे में विशिष्ट कथनों को देखते हुए। 
  • गुण-दोष सुरक्षित:न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि उसने इस विषय पर कोई मत व्यक्त नहीं किया कि क्या एकपक्षीय डिक्री पूर्व-न्याय के रूप में प्रवर्तनीय होगी या नहीं; और यह कि प्रतिवादी द्वारा उठाए गए सभी आधार, यथा पूर्व-न्याय सहित, को अंतिम विचारण के निर्धारण के लिये खुला रखा जाएगा 

क्या पूर्व-न्याय के अभिवचन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के अधीन वाद को नामंजूर करने का आधार हो सकती है? 

  • पूर्व-न्याय (Res Judicata) का सिद्धांत:सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 यह स्थापित करती है कि कोई भी न्यायालय ऐसे किसी ऐसे वाद का विचारण नहीं करेगा, जिसमें प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य-विषय उसी हक के अधीन वाद करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच के या ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते है, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चात्वर्ती वाद का या उस वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचारण करने के लिये सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है 
  • आदेश 7 नियम 11 का विस्तार:सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 विशिष्ट परिस्थितियों में वादपत्र को नामंजूर किये जाने का उपबंध करता है, जिसमें वह स्थिति भी सम्मिलित है जहाँ वादपत्र के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी विधि द्वारा वर्जित है, तथा न्यायालय केवल वादपत्र के कथनों और संलग्न दस्तावेजों की जांच करने तक सीमित है। 
  • अधिकारिता संबंधी संघर्ष:यद्यपि पूर्व निर्णय न्याय (धारा 11) के आधार पर वाद विधि द्वारा वर्जित हो सकता है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि पूर्व-न्याय का निर्धारण पूर्ववर्ती वादों के अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों की जांच के बिना नहीं किया जा सकता, जो वादपत्र नामंजूर करने के आदेश 7 नियम 11 के सीमित दायरे से परे है।      
  • प्रक्रियागत परिसीमा:न्यायालय ने स्थापित किया कि पूर्व-न्याय अधिनिर्णय में पूर्ववर्ती वाद, पक्षकारों के संबंधों और विवाद्यक की पहचान का जटिल तथ्यात्मक और विधिक विश्लेषण शामिल है, जिसे पूर्व कार्यवाही की विस्तृत जांच के बिना केवल वादपत्र के कथनों से निर्णायक रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। 
  • न्यायिक पूर्व निर्णय :श्रीहरि हनुमानदास तोतला और केशव सूद मामलों में पूर्व निर्णयों का अनुसरण करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पूर्व-न्याय याचिकाओं पर विचारण के दौरान निर्णय लिया जाना चाहिये, जहाँ पूर्ववर्ती वादों से संपूर्ण दस्तावेजीकरण और साक्ष्य का उचित विश्लेषण किया जा सके, न कि आदेश 7 नियम 11 के अधीन उनका सरसरी तौर पर निपटारा किया जाए। 
  • व्यावहारिक अनुप्रयोग:न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पूर्व-न्याय का निर्धारण अटकलों या अनुमान के माध्यम से नहीं किया जा सकता, अपितु इसके लिये मूल विचारण की आवश्यकता होती है, विशेषत: उन मामलों में जिनमें कपट, दुरभिसंधि या पूर्ववर्ती कार्यवाहियों में अधिकारिता संबंधी दोषों के अभिकथन सम्मिलित हों।  

प्रमुख निर्णय  

  • श्रीहरि हनुमानदास तोताला बनाम हेमंत विट्ठल कामत और अन्य (2021): 
    • मार्गदर्शक सिद्धांत स्थापित करें कि पूर्व-न्याय अधिनिर्णय आदेश 7, नियम 11 के दायरे से परे है, जिसके लिये पूर्ववर्ती वादों से अभिवचनों, विवाद्यकों और निर्णयों पर विचार करने की आवश्यकता है। 
  • राजेश्वरी बनाम टी.सी. सरवनबावा (2004): 
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि वाद के कारणों में समानता की पहचान करना विचरण का विषय होना चाहिये, जहाँ प्रथम वाद के दस्तावेज़ों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है, तथा इस बात पर बल दिया कि पूर्व-न्याय  काल्पनिक नहीं हो सकता।