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सिविल कानून

बहरीन पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड बनाम पी.जे. पप्पू और अन्य (1965)

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 10-Jul-2025

परिचय 

यह एक प्रमुख उच्चतम न्यायालय का निर्णय था, जिसे माननीय न्यायमूर्ति आर.एस. बछावत द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिसमें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 20 के अधीन प्रादेशिक अधिकारिता के महत्त्वपूर्ण विवाद्यक और धारा 21 के अधीन अधिकारिता संबंधी आक्षेपों के अधित्याग पर विचार किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादियों ने प्रादेशिक अधिकारिता पर अपने आक्षेप का अधित्याग नहीं किया। यह निर्णय प्रादेशिक अधिकारिता को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों की पुष्टि करता है, धारा 21 के अधीन अधित्याग के दायरे को स्थापित करता है, और अधिकारिता संबंधी आक्षेपों पर माध्यस्थम् आवेदनों के प्रभाव को स्पष्ट करता है। 

मामले के तथ्य 

  • वादी द्वितीय प्रतिवादी, बहरीन पेट्रोलियम कंपनी लिमिटेड द्वारा नियोजित एक टाइपिस्ट क्लर्क था। 
  • प्रथम प्रतिवादी बम्बई स्थित कंपनी का भर्ती अभिकर्त्ता था। 
  • सेवा संविदा पर बम्बई में हस्ताक्षर किये गये थे, जिसका कार्यक्षेत्र भारत के बाहर बहरीन द्वीप था। 
  • वादी ने ग्रेच्युटी तथा वेतन की बकाया राशि की वसूली हेतु कंपनी एवं उसकी भर्ती एजेंसी के विरुद्ध कोचीन के अधीनस्थ न्यायालय में वाद संस्थित किया। 
  • दोनों प्रतिवादियों ने वाद पर रोक लगाने के लिये कोचीन न्यायालय में आवेदन किया। 
  • कोचीन न्यायालय ने वाद पर रोक लगाने से इंकार कर दिया, तथा एर्नाकुलम जिला न्यायालय में अपील तथा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई। 
  • कोचीन न्यायालय ने शुरू में वाद को एकपक्षीय रूप से आगे बढ़ाने का आदेश पारित किया था, किंतु बाद में इस आदेश को रद्द कर दिया और प्रतिवादियों को अपना लिखित कथन दाखिल करने की अनुमति दे दी। 
  • अपने लिखित कथन में प्रतिवादियों ने गुण-दोष के आधार पर दलील दी तथा कोचीन न्यायालय के प्रादेशिक अधिकारिता पर विवाद किया। 
  • प्रतिवादियों के आवेदन पर, कोचीन न्यायालय ने अधिकारिता के प्रारंभिक विवाद्यक पर विचार किया और निर्णय दिया कि इस वाद का विचारण करने के लिये उसके पास कोई प्रादेशिक अधिकारिता नहीं है। 
  • कोचीन न्यायालय ने वादपत्र को उचित न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिये वापस भेजने का निदेश दिया। 
  • एर्नाकुलम के जिला न्यायाधीश के समक्ष की गई अपील खारिज कर दी गई। 
  • पुनरीक्षण में, केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादियों ने प्रादेशिक अधिकारिता से संबंधित आक्षेप का परित्याग कर दिया है। अतः अवर न्यायालय के आदेशों को अपास्त करते हुए, कोचीन न्यायालय कोचीन न्यायालय को निदेश दिया कि वह वाद का विचारण गुण-दोष के आधार पर करे।  
  • दूसरे प्रतिवादी ने विशेष अनुमति द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील की। 

सम्मिलित विवाद्यक 

  • प्रादेशिक अधिकारिता:क्या कोचीन न्यायालय के पास सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 20 के अधीन वाद का विचारण करने की प्रादेशिक अधिकारिता थी 
  • अधिकारिता संबंधी आक्षेप का परित्याग:क्या प्रतिवादियों ने कार्यवाही में अपने आचरण से प्रादेशिक अधिकारिता के प्रति अपने आक्षेप का परित्याग किया है। 
  • माध्यस्थम् आवेदनों का प्रभाव:क्या आवेदन दाखिल करने से अधिकारिता संबंधी आक्षेपों का परित्याग हो जाता है। 
  • धारा 21 का विस्तार:क्या सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 21 प्रतिवादियों को उच्चतम न्यायालय में अधिकारिता संबंधी आक्षेप से रोकती है। 
  • न्याय की विफलता:क्या संहिता की धारा 21 के अधीन न्याय की विफलता हुई थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

  • न्यायमूर्ति आर.एस. बछावत ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं: 
    • प्रादेशिक अधिकारिता का अभाव:यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी न तो निवास करते थे, न ही कारबार करते थे, न ही कोई वाद-हेतुक कोचीन न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर उत्पन्न हुआ था, इसलिये न्यायालय के पास सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 20 के अधीन कोई प्रादेशिक अधिकारिता नहीं थी 
    • अधित्यजन पर सामान्य नियम:इस बात पर बल दिया गया कि सामान्य नियम के रूप में, न तो सम्मति, न छूट, न ही स्वीकृति, अन्यथा वाद का विचारण करने में अक्षम न्यायालय को अधिकारिता प्रदान कर सकती है, किंतु धारा 21 वाद करने के स्थान के संबंध में दोषों के लिये अपवाद प्रदान करती है। 
    • प्रतिवादियों द्वारा कोई अधित्यजन नहीं:प्रतिवादियों का ऐसा कोई आचरण नहीं पाया गया जो अधित्यजन के समान हो या उन्हें अधिकारिता संबंधी आक्षेप से रोकता हो, यह देखते हुए कि प्रतिवादियों ने सबसे पहले अवसर पर और वाद में कोई भी कदम उठाने से पहले अधिकारिता का विरोध किया था।  
    • माध्यस्थम् आवेदन:निर्णय दिया गया कि वाद पर रोक लगाने के लिये आवेदन दायर करना इस बात की मान्यता नहीं है कि न्यायालय के पास वाद का विचारण करने की अधिकारिता है, क्योंकि ऐसे आवेदन उस न्यायालय में किये जाने चाहिये जिसके समक्ष वाद लंबित है, चाहे उसकी अधिकारिता कुछ भी हो। 
    • निरंतर आक्षेप:यह देखा गया कि प्रतिवादियों ने कार्यवाही के दौरान निरंतर अधिकारिता के विरुद्ध विरोध किया, रोक (stay) के आदेश के लिये आवेदन किया, अपीलीय और पुनरीक्षण न्यायालयों तक लड़ाई लड़ी, तथा अपने आक्षेप को कभी अधित्यजन या त्यागे बिना, यथाशीघ्र अवसर पर अपना विरोध दर्ज कराया।  
    • उच्च न्यायालय का तर्क अस्वीकृत:उच्च न्यायालय के इस दृष्टिकोण से असहमत कि अपील दायर करके प्रतिवादियों ने यह स्वीकार किया कि कोचीन न्यायालय के पास अधिकारिता है, तथा यह माना कि ऐसे आवेदनों का ऐसा प्रभाव नहीं हो सकता। 
    • धारा 21 का अनुप्रयोग:यह स्पष्ट किया गया कि धारा 21 में "जब तक की उसके परिणामस्वरूप न्याय की विफलता न हुई हो" शर्त का तात्पर्य यह है कि वाद का विचारण पहले ही गुण-दोष के आधार पर हो चुके है, और चूँकि केवल प्रारंभिक अधिकारिता के विवाद्यक पर निर्णय लिया गया था, इसलिये उस स्तर पर न्याय की परिणामी विफलता नहीं हो सकती। 
    • धारा 21 के अंतर्गत नीति:बताया गया कि धारा 21 के अंतर्गत नीति यह है कि जब किसी मामले की गुण-दोष के आधार पर विचारण हो चुका हो और निर्णय दे दिया गया हो, तो उसे तकनीकी आधार पर तब तक उलटने योग्य नहीं माना जाना चाहिये, जब तक कि इससे न्याय में विफलता न हो। 

निष्कर्ष 

यह ऐतिहासिक निर्णय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत प्रादेशिक अधिकारिता से संबंधित महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों को स्थापित करता है। उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली, उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया, और विचारण न्यायालय तथा जिला न्यायालय के आदेशों को पुनः स्थापित किया निर्णय स्पष्ट करता है कि संहिता की धारा 21, जब वाद का विचारण गुण-दोष के आधार पर नहीं हुआ हो, तो अधिकारिता संबंधी आक्षेपों को नहीं रोकती है, और इस बात पर बल देता है कि माध्यस्थम् विधियों के अधीन रोक के लिये आवेदन, वाद का विचारण गुण-दोष के आधार पर करने की न्यायालय की अधिकारिता की स्वीकृति नहीं है।