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सांविधानिक विधि
आधार नागरिकता प्रमाण के रूप में मान्य नहीं है
«11-Jul-2025
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारतीय चुनाव आयोग “आधार कार्ड नागरिकता का सबूत नहीं” न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने निर्णय दिया कि आधार अधिनियम, 2016 की धारा 9 के अनुसार आधार कार्ड नागरिकता का वैध सबूत नहीं है; भारत के निर्वाचन आयोग ने बिहार विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान नागरिकता दस्तावेज़ों की सूची से इसे अपवर्जित करने को उचित ठहराया, यह स्पष्ट करते हुए कि आधार केवल पहचान के सबूत के रूप में कार्य करता है - राष्ट्रीयता के लिये नहीं - जबकि उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नागरिकता का निर्धारण गृह मंत्रालय के पास है और निर्वाचन से पहले अंतिम समय में मताधिकार से वंचित करने के विरुद्ध चेतावनी दी।
- उच्चतम न्यायालय ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारतीय निर्वाचन आयोग (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारत निर्वाचन आयोग मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने जून 2024 में बिहार में मतदाता सूची के "विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) का आदेश दिया है।
- भारत के इतिहास में यह पहली बार है जब निर्वाचन आयोग ने इस तरह की प्रक्रिया शुरू की है। मतदाता सूचियों के नियमित संशोधनों के विपरीत, विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) विशेष रूप से 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं पर केंद्रित है और इसके अधीन उन्हें केवल 11 निर्दिष्ट दस्तावेज़ों के माध्यम से अपनी नागरिकता साबित करनी होगी।
- “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम या संबंधित नियमों में मान्यता नहीं दी गई है।
- यह "गहन पुनरीक्षण" ((नामावली की पूरी तरह से नई तैयारी) और "संक्षिप्त पुनरीक्षण" (विद्यमान नामावली को अद्यतन करना) दोनों से भिन्न है।
- निर्वाचन आयोग ने मनमाने ढंग से 2003 की कट-ऑफ तारीख तय कर दी, जिससे लाखों मतदाता प्रभावित हुए।
- भारत निर्वाचन आयोग ने नागरिकता के स्वीकार्य सबूत के रूप में 11 दस्तावेज़ों को निर्दिष्ट किया।
- उल्लेखनीय रूप से निम्नलिखित को अपवर्जित किया गया है:
- आधार कार्ड (जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अधीन व्यापक रूप से उपयोग और स्वीकृत होते हुए भी)
- मतदाता पहचान पत्र (विडंबना यह है कि ये स्वयं निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किये जाते हैं)
- राशन कार्ड
- मनरेगा (MNREGA) जॉब कार्ड
- जन्म प्रमाण पत्र
- बिहार के कुल 8 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 4.74 करोड़ मतदाताओं को सत्यापन की आवश्यकता है।
- यह प्रक्रिया मुसलमानों, दलितों और गरीब प्रवासी श्रमिकों सहित हाशिए पर रहने वाले समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है।
- बिहार की जनसंख्या के केवल एक छोटे प्रतिशत के पास ही कई आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध हैं (उदाहरण के लिये, पासपोर्ट केवल 2.5% लोगों के पास)।
- सांविधानिक उल्लंघन
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) कई सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है:
- अनुच्छेद 14 : विधि के अधीन समान संरक्षण (जिसे विभेदकारी व्यवहार द्वारा बाधित किया गया है।)
- अनुच्छेद 19 : आवागमन की स्वतंत्रता (प्रवासियों को प्रभावित करने के कारण)।
- अनुच्छेद 21 : जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।
- अनुच्छेद 325 और 326 : मतदान का अधिकार और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) कई सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है:
- प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ
- समय : यह प्रक्रिया बिहार में नवंबर 2025 में होने वाले निर्वाचन से कुछ महीने पहले शुरू किया गया था।
- सबूत का भार : अपनी पात्रता साबित करने का उत्तरदायित्त्व राज्य से नागरिकों पर स्थानांतरित करता है।
- अपर्याप्त समय-सीमा : मतदाताओं को आवश्यक दस्तावेज़ों की व्यवस्था करने के लिये अपर्याप्त समय दिया गया।
- भेदभाव संबंधी चिंताएँ
- ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रक्रिया विशिष्ट समुदायों को असमान रूप से लक्षित करती है।
- विभिन्न श्रेणियों के लोगों के लिये भिन्न-भिन्न मानक बनाता है।
- संभावित रूप से उन मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर देता है जो दशकों से अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहे हैं।
- मुख्य विवाद
- इस विवाद का मूल नागरिकता निर्धारित करने के निर्वाचन आयोग के अधिकार में निहित है। यद्यपि निर्वाचन आयोग संविधान के अनुच्छेद 326 के अधीन शक्तियों का दावा करता है, आलोचकों का तर्क है कि:
- नागरिकता निर्धारण मुख्यतः गृह मंत्रालय का क्षेत्र है, न कि निर्वाचन आयोग का।
- आधार को अपवर्जित रखना विशेष रूप से समस्याग्रस्त है क्योंकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम इसे वैध पहचान पत्र के रूप में मान्यता देता है।
- सीमित समयसीमा और दस्तावेज़ आवश्यकताओं को देखते हुए यह प्रक्रिया व्यावहारिक रूप से असंभव है।
- लोकतांत्रिक सिद्धांत दांव पर होता हैं जब लंबे समय से मतदाता रहे लोगों को मताधिकार से वंचित होने का खतरा होता है।
- यह मामला निम्नलिखित मूलभूत प्रश्न उठाता है:
- निर्वाचन अखंडता और मताधिकार के बीच संतुलन।
- नागरिकता निर्धारित करने में विभिन्न सांविधानिक निकायों की भूमिका।
- किसी भी मतदाता सूची संशोधन के लिये आवश्यक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय।
- आगामी निर्वाचन के संबंध में इस तरह के अभ्यास का समय और तरीका।
- इस मामले का परिणाम संभवतः इस बात के लिये महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करेगा कि भारत भर में मतदाता सूची में संशोधन किस प्रकार किया जाता है, तथा नागरिकता सत्यापन से संबंधित मामलों में भारत निर्वाचन आयोग की शक्तियों की सीमा क्या है।
- यह मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित है, जिसकी अगली सुनवाई 28 जुलाई, 2025 को निर्धारित है। भारत के निर्वाचन आयोग को 21 जुलाई, 2025 तक अपना प्रति-शपथपत्र दाखिल करने का निदेश दिया गया है, और मतदाता सूची के प्रारूप प्रकाशन (मूल रूप से 1 अगस्त, 2025 के लिये निर्धारित) पर न्यायालय के निर्णय के लंबित रहने तक प्रभावी रूप से रोक लगा दी गई है।
- यह मामला भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं तथा निर्वाचन अखंडता सुनिश्चित करने और मौलिक मताधिकार की रक्षा के बीच संतुलन की एक महत्त्वपूर्ण परीक्षा का प्रतिनिधित्व करता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि याचिकाओं में "एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है जो देश में लोकतंत्र की कार्यप्रणाली के मूल में है - मतदान का अधिकार।"
- पीठ ने कहा कि मामले में तीन महत्त्वपूर्ण विवाद्यक सम्मिलित थे: (क) निर्वाचन आयोग की यह प्रक्रिया करने की शक्तियां; (ख) प्रक्रिया और तरीका जिससे यह प्रक्रिया की जा रही है; और (ग) समय, जिसमें मसौदा मतदाता सूची तैयार करने, आपत्तियां मांगने और अंतिम मतदाता सूची बनाने के लिये दी गई समय-सीमा शामिल है, जो यह देखते हुए बहुत कम है कि बिहार निर्वाचन नवंबर 2025 में होने वाले हैं।
- न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा कि "नागरिकता एक ऐसा विवाद्यक है जिसका निर्धारण भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा नहीं, अपितु गृह मंत्रालय द्वारा किया जाना चाहिये।" उन्होंने नागरिकता के मामलों पर निर्णय लेने के लिये निर्वाचन आयोग के अधिकार पर प्रश्न उठाया।
- न्यायालय ने समयसीमा की यथार्थवादी प्रकृति के बारे में गंभीर संदेह व्यक्त किया, न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा: "हमें इस बात पर गंभीर संदेह है कि क्या यह समयसीमा यथार्थवादी है। यह व्यावहारिकता का प्रश्न है।"
- न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची ने यह टिप्पणी की कि भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा ऐसे व्यक्तियों को मतदाता सूची से वंचित करना, जो पहले से ही सूचीबद्ध हैं, इस व्यक्ति को आयोग के निर्णय के विरुद्ध अपील करने हेतु विवश करेगा तथा उसे संपूर्ण प्रक्रियात्मक जटिलताओं से गुजरना पड़ेगा, जिससे वह आगामी निर्वाचन में अपने मताधिकार के प्रयोग से वंचित रह सकता है। यह स्थिति न केवल अत्यधिक प्रक्रियात्मक भार (procedural burden) उत्पन्न करती है, अपितु लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन की भी संभावना को जन्म देती है।
- पीठ ने आधार कार्ड को सम्मिलित न करने पर प्रश्न उठाया और कहा कि "भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा निर्दिष्ट कई दस्तावेज़ आधार पर ही आधारित हैं" और पूछा कि इस मौलिक पहचान दस्तावेज़ को सम्मिलित क्यों नहीं किया जा सकता, जबकि सभी निर्दिष्ट दस्तावेज़ नागरिकता के बजाय पहचान से संबंधित हैं।
- न्यायालय ने वरिष्ठ अधिवक्ता सिंघवी की इस दलील से सहमति जताई कि "एक भी पात्र मतदाता को मताधिकार से वंचित करने से समान अवसर प्रभावित होता है, लोकतंत्र प्रभावित होता है तथा बुनियादी ढाँचे पर आघात होता है," तथा चुनावी भागीदारी के सांविधानिक महत्त्व को मान्यता दी।
- न्यायमूर्ति धूलिया ने समय के संबंध में टिप्पणी की: "प्रश्न यह है कि आप इस प्रक्रिया को नवंबर में होने वाले चुनाव से क्यों जोड़ रहे हैं, जबकि यह ऐसी प्रक्रिया है जो पूरे देश के चुनाव से स्वतंत्र हो सकती है," उन्होंने चुनावी प्रक्रिया के निकट समय और चुनावी निष्पक्षता के प्रति संभावित अपराध के बारे में चिंता व्यक्त की।
भारतीय संविधान के अधीन नागरिक की परिभाषा क्या है?
- संविधान के अनुच्छेद 5 के अधीन, प्रत्येक व्यक्ति जिसका अधिवास भारत के राज्यक्षेत्र में है और वह भारत के राज्यक्षेत्र में पैदा हुआ था, या जिसके माता-पिता में से कोई भी भारत के राज्यक्षेत्र में पैदा हुआ था, या जो संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले कम से कम पाँच वर्षों के लिये भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर पर निवासी रहा है, वह भारत का नागरिक होगा।
- अनुच्छेद 6 में यह उपबंध है कि अनुच्छेद 5 के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो वर्तमान में पाकिस्तान में सम्मिलित राज्यक्षेत्र से भारत के राज्यक्षेत्र में प्रव्रजन कर गया है, संविधान के प्रारंभ पर भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि वह या उसके माता-पिता में से कोई या उसके मातामह या मातामही में से कोई-पितामह या पितामही में से कोई भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में पैदा हुआ था, तथा उसने निर्धारित निवास और रजिस्ट्रीकरण आवश्यकताओं को पूरा किया है।
- अनुच्छेद 7 में यह उपबंध है कि अनुच्छेद 5 और 6 के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो 1 मार्च, 1947 के पश्चात् भारत के राज्यक्षेत्र से उस राज्यक्षेत्र में प्रव्रजन कर गया है जो अब पाकिस्तान में सम्मिलित है, उसे भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा, सिवाय इसके कि ऐसा व्यक्ति पुनर्वास या स्थायी वापसी के अनुज्ञा के अधीन भारत लौट आया हो।
- अनुच्छेद 8 के अधीन, कोई भी व्यक्ति जो या जिसके माता-पिता में से कोई या उसके पितामह या पितामही-मातामह या मातामही में से कोई भारत में पैदा हुआ था जैसा कि भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित किया गया है, और जो सामान्यतः भारत के बाहर किसी देश में रह रहा है, उसे भारत का नागरिक माना जाएगा यदि उसे उस देश में भारत के राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि द्वारा भारत के नागरिक के रूप में रजिस्ट्रीकृत किया गया है जहाँ वह रह रहा है।
- अनुच्छेद 9 में यह घोषित किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति ने स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर ली है तो वह अनुच्छेद 5 के आधार पर भारत का नागरिक नहीं होगा, अथवा अनुच्छेद 6 या अनुच्छेद 8 के आधार पर भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा।
- अनुच्छेद 10 में यह उपबंध है कि प्रत्येक व्यक्ति जो पूर्वोक्त उपबंधों के अंतर्गत भारत का नागरिक है या समझा जाता है, संसद द्वारा बनाए गए किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, ऐसा नागरिक बना रहेगा।
- अनुच्छेद 11 संसद को विधि द्वारा नागरिकता के अधिकार को विनियमित करने का अधिकार देता है, जिसमें कहा गया है कि पूर्वगामी उपबंधों में से कोई भी नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति तथा नागरिकता से संबंधित अन्य सभी मामलों के संबंध में कोई उपबंध करने की संसद की शक्ति से वंचित नहीं करेगा।
- सांविधानिक ढाँचा यह स्थापित करता है कि नागरिकता मुख्य रूप से जन्म, वंश, अधिवास और निवास मानदंडों के माध्यम से निर्धारित की जाती है, जैसा कि अनुच्छेद 5 से 11 में उल्लिखित है, तथा अनुच्छेद 11 के अधीन नागरिकता के मामलों पर विधि बनाने का अंतिम अधिकार संसद के पास है।