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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 413

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 25-Aug-2025

खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) और अन्य इत्यादि 

पीड़ित के विधिक उत्तराधिकारी दण्ड प्रक्रिया संहित की धारा 372 के अधीन दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध अपील जारी रख सकते हैं, क्योंकि उन्हें इस अधिकार से वंचित करना उपबंध के मूल उद्देश्य को ही विफल कर देगा।” 

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन 

स्रोत:उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन कीपीठने ने निर्णय दिया कि यदि पीड़ित की मृत्यु मामले के लंबित रहने के दौरान हो जाती है, तो पीड़ित के विधिक उत्तराधिकारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के अधीन दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध दायर अपील को आगे बढ़ा सकते हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अपील का अधिकार निरर्थक न हो। 

  • उच्चतम न्यायालय ने खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) एवं अन्य इत्यादि (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

खेम सिंह (मृत) विधिक प्रतिनिधियों (LRS) बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड राज्य) एवं अन्य इत्यादि (2025)मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 8 दिसंबर 1992 को हरिद्वार जिले में लंबे समय से दुश्मनी रखने वालेविरोधी गुटों के बीचतीखी नोकझोंक हुई। अगले दिन, 9 दिसंबर 1992 को, लगभग 8:00 बजे, आग्नेयास्त्रों, धारदार हथियारों और ईंटों से एक हिंसक सशस्त्र हमला हुआ। 
  • परिवादकर्त्ता तारा चंद, उनके भाई वीरेंद्र सिंह और पुत्र खेम सिंह पर कई अभियुक्तों ने हमला किया। हमले के दौरान वीरेंद्र सिंह को गंभीर चोटें आईं और उनकी मृत्यु हो गई। तारा चंद और उनके पुत्र खेम सिंह दोनों को गंभीर चोटें आईं, किंतु वे बच गए। 
  • अभियोजन पक्ष ने तीन मुख्य अभियुक्तों पर अलग-अलग भूमिकाएँ आरोपित कीं। अभियुक्त संख्या 2 अशोक ने वीरेंद्र सिंह पर बंदूक से गोली चलाई। अभियुक्त संख्या 3 प्रमोद ने खेम सिंह पर बंदूक से गोली चलाई। अभियुक्त संख्या 4 अनिल उर्फ ​​नीलू ने खेम सिंह की पत्नी श्रीमती मिथिलेश पर गोली चलाई। 
  •  तारा चंद के परिवाद के आधार पर, 9 दिसंबर, 1992 को थाना ज्वालापुर, जिला हरिद्वार में मुकदमा अपराध संख्या 547/92 दर्ज किया गया।तीनों अभियुक्तों पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 148, 452, 302, 307, 149 और 326 सहित कई धाराओं के अधीन आरोप लगाए गए। 

  • सत्र परीक्षण संख्या 133/1993 अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, हरिद्वार के समक्ष चलाया गया। 
  • सेशन न्यायालय ने 2-4 अगस्त 2004 को निर्णय सुनाया, जिसमें तीनों अभियुक्तों को दोषसिद्ध ठहराया गया और उन्हें अतिरिक्त कठोर कारावास और जुर्माने के साथ आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया 
  • दोषसिद्ध ठहराए गए अभियुक्तों ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल में आपराधिक अपील दायर की। उच्च न्यायालय ने 12 सितंबर, 2012 को अपने सामान्य निर्णय के माध्यम से सभी अपीलों को स्वीकार कर लिया और सेशन न्यायालय के निर्णय को पूरी तरह से पलटते हुए तीनों प्रत्यर्थियों-अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया। 
  • घायल पीड़ित खेम सिंह ने उच्च न्यायालय के दोषमुक्त करने के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिकाएँ दायर कीं। 6 जुलाई, 2017 को अनुमति प्रदान कर दी गई और याचिकाओं को आपराधिक अपील में परिवर्तित कर दिया गया। 
  • मामले के लंबित रहने के दौरान, खेम सिंह की मृत्यु हो गई, और उनके पुत्र राज कुमार ने अपीलों का अभियोजन जारी रखने के लिये विधिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिस्थापन के लिये आवेदन किया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • पीड़ित का अपील का अधिकार: 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में 2009 के संशोधनों, विशेष रूप से धारा 372 के प्रावधान और धारा 2(बक) के अधीन "पीड़ित" की परिभाषा ने पीड़ितों को दोषमुक्त होने, कम दण्ड या अपर्याप्त प्रतिकर के विरुद्ध अपील करने का एक स्वतंत्र सांविधिक अधिकार प्रदान किया है। यह अधिकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 378(4) के अधीन परिवादकर्त्ताओं के विपरीत, उच्च न्यायालय से विशेष अनुमति की आवश्यकता के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करता है।  
  • अपील अधिकारों का निर्वचन: 
    • न्यायालय ने कहा कि "अपील करने के अधिकार" में केवल अपील दायर करना ही नहीं, अपितु "अपील पर अभियोजन का अधिकार" भी सम्मिलित है। इसे केवल अपील दायर करने तक सीमित करने से यह प्रावधान निरर्थक हो जाएगा और आपराधिक न्याय में पीड़ितों के अधिकारों को मज़बूत करने का संसदीय आशय विफल हो जाएगा 
  • विधिक उत्तराधिकारी के निरंतरता अधिकार: 
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि अपील लंबित रहने के दौरान पीड़ित-अपीलकर्त्ता की मृत्यु हो जाती है, तो उनके विधिक उत्तराधिकारी अपील पर अभियोजन जारी रख सकते हैं। यह "पीड़ित" की समावेशी परिभाषा से स्पष्ट है, जिसमें स्पष्ट रूप से विधिक उत्तराधिकारी सम्मिलित हैं। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 394 के अधीन उपशमन उपबंध मुख्य रूप से अभियुक्तों द्वारा दायर अपीलों पर लागू होते हैं, पीड़ितों की अपीलों पर नहीं। 
  • उच्च न्यायालय के निर्णय की आलोचना: 
    • न्यायालय ने आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय "गूढ़" था और उसमें तर्कपूर्ण विश्लेषण का अभाव था। तथापि निर्णयों का लंबा होना आवश्यक नहीं है, किंतु उनमें महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों के उचित न्यायिक अनुप्रयोग को प्रतिबिंबित करना चाहिये और पर्याप्त तर्क प्रदान करना चाहिये। अपील न्यायालयों को स्वतंत्र रूप से साक्ष्यों का मूल्यांकन करना चाहिये और यह आकलन करना चाहिये कि क्या अपराध युक्तियुक्त संदेह से परे साबित होता है। 
  • प्रतिप्रेषण (रिमांड) आदेश 
    • न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को केवल अपर्याप्त तर्क के आधार पर अपास्त कर दिया, तथा मामले के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की, तथा मामले को 1992 का होने के कारण शीघ्र निपटाने के निदेश देते हुए इसे नए सिरे से विचार के लिये वापस भेज दिया। 
  • न्यायालय ने स्थापित किया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता संशोधनों के अधीन पीड़ितों के अपील अधिकारमौलिक अधिकार हैं, जिन्हें विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा विरासत में प्राप्त किया जा सकता है और उन पर अभियोजन चलाया जा सकता है, जिससे कार्यवाही के दौरान मूल पीड़ित की मृत्यु के बाद भी न्याय तक सार्थक पहुँच सुनिश्चित होती है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 413 क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 413 ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 372 का प्रतिस्थापन किया है, और उसी विधिक ढाँचे और सिद्धांतों को बरकरार रखती है। इस उपबंध को पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता से नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में समान भाषा और आशय के साथ आगे बढ़ाया गया है। 
  • अपील पर सामान्य प्रतिबंध: 
    • यह धारा यह स्थापित करती है कि आपराधिक न्यायालय के निर्णयों या आदेशों के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती, सिवाय इसके कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता या अन्य विधियों द्वारा विशेष रूप से उपबंध किया गया हो। यह न्यायिक पदानुक्रम को बनाए रखते हुए अनधिकृत अपीलों को रोकने के लिये एक प्रतिबंधात्मक मार्ग बनाता है। 
  • पीड़ित का स्वतंत्र अपील अधिकार: 
    • यह उपबंध पीड़ितों को तीन परिदृश्यों के विरुद्ध अपील करने का स्वायत्त अधिकार प्रदान करता है: 
    • अभियुक्तों को पूर्णतः दोषमुक्त किया जाना 
    • मूलतः आरोपित अपराधों से कम अपराधों के लिये दोषसिद्धि 
    • अपर्याप्त प्रतिकर लागू करना 
  • अपीलीय अधिकारिता: 
    • पीड़ितों की अपील उन न्यायालयों में की जाती हैं जो सामान्यत: दोषसिद्धि के आदेशों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करती हैं, और स्थापित अपील का  पदानुक्रम को बनाए रखती हैं। इससे फोरम शॉपिंग को रोका जा सकता है और पीड़ितों के परिवादों की उचित न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। 
    • यह धारा राज्य-केंद्रित अभियोजन से पीड़ित-सहभागी मॉडल की ओर विकास को दर्शाती है, जिसमें पीड़ितों को प्राथमिक हितधारकों के रूप में मान्यता दी गई है, जो केवल साक्षी की स्थिति से परे स्वतंत्र अपीलीय अधिकारों के हकदार हैं। 
  • प्रक्रियात्मक ढाँचा: 
    • यह उपबंध पीड़ितों की अपीलों को विशेष तंत्र बनाने के बजाय स्थापित अपील न्यायालयों के माध्यम से प्रवाहित करके प्रक्रियात्मक अखंडता बनाए रखता है। यह न्यायिक विशेषज्ञता सुनिश्चित करते हुए न्याय तक पहुँच का विस्तार करता है। 
    • धारा 413 न्याय तक पहुँच और समान संरक्षण के सांविधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है, तथा यह स्वीकार करती है कि अपीलीय संरक्षण तंत्र की आवश्यकता वाली आपराधिक कार्यवाहियों में पीड़ितों का वैध हित है। 
    • जबकि राज्य के पास अन्य प्रावधानों के अधीन अलग अपीलीय शक्तियां हैं, धारा 413 के अधीन पीड़ितों के अधिकार स्वतंत्र रूप से संचालित होते हैं। पीड़ितों को राज्य की कार्रवाई का इंतज़ार नहीं करना पड़ता और वे असंतोषजनक न्यायिक नतीजों को सीधे चुनौती दे सकते हैं। 
    • यह धारा पीड़ितों को अपीलीय समीक्षा की मांग करने का अधिकार देती है, जब विचारण न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करने, आरोपों में कमी करने या अपर्याप्त प्रतिकर के माध्यम से उनकी पीड़ा को पर्याप्त रूप से दूर करने में असफल रहती हैं, जिससे आपराधिक न्याय प्रक्रिया में सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होती है।