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आपराधिक कानून
आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना
« »18-Jul-2025
कथ्यायिनी बनाम सिद्धार्थ पीएस रेड्डी और अन्य "यदि प्रथमदृष्टया मामला आपराधिक मामला बनता है, तो सिविल कार्यवाहियों की लंबितता आपराधिक मामले को रद्द करने का औचित्य नहीं बनती, जैसा कि इस मामले में देखा गया है, जिसमें पुत्रियों को वंश वृक्ष से अपवर्जित किया गया, 33 करोड़ रुपए का दुर्विनियोग किया गया और धमकियाँ दी गईं - जिसके लिये पूर्ण आपराधिक विचारण चलाया जाना आवश्यक है।" जस्टिस विक्रम नाथ और प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ तथा न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने यह निर्णय दिया कि यदि कपट और दुर्विनियोग के आरोपों पर आधारित कोई प्रथमदृष्टया आपराधिक मामला बनता है, तो केवल इस आधार पर कि पक्षकारों के मध्य सिविल विवाद लंबित हैं, आपराधिक कार्यवाही को रद्द नहीं किया जा सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने कथयायिनी बनाम सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
कथ्ययिनी बनाम सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- कथ्यायिनी के.जी. येलप्पा रेड्डी और जयलक्ष्मी की पुत्री हैं, जिनके एक साथ आठ बच्चे थे - तीन पुत्र (सुधनवा रेड्डी, गुरुवा रेड्डी, और उमेधा रेड्डी) और पाँच पुत्रियाँ (ललिता, जयश्री, रीता, भवानी और कथ्यायिनी)। प्रत्यर्थी सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी और विक्रम पी.एस. रेड्डी सुधन्वा रेड्डी के पुत्र हैं, जिससे वे कथ्ययिनी के भतीजे हैं।
- कथ्ययिनी के माता-पिता ने संयुक्त रूप से 17 फ़रवरी 1986 को रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से डोड्डा थोगुर, बेंगलुरु में 19 गुंटा ज़मीन खरीदी थी । उनके पिता के.जी. येलप्पा रेड्डी ने कुछ पैतृक संपत्तियों के विक्रय से प्राप्त राशि से यह संपत्ति अर्जित की थी। माता-पिता दोनों का निधन हो चुका है।
- बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने परिवार की ज़मीन का अधिग्रहण किया और कुल 33 करोड़ रुपए का प्रतिकर दिया। कथ्यिनी का मानना था कि यह बड़ी रकम उसके माता-पिता के सभी आठ बच्चों में बराबर-बराबर बाँट दी जाएगी।
- कथ्ययिनी को पता चला कि उसके बड़े भाई सुधन्वा रेड्डी और उसके पुत्रों (प्रत्यर्थी) ने उसे और उसकी बहनों को उनके जायज़ अंश से वंचित करने के लिये कथित तौर पर एक आपराधिक षड्यंत्र किया। इस कथित कपटपूर्ण योजना में निम्नलिखित आपराधिक कृत्य सम्मिलित थे:
- कथित तौर पर गाँव के लेखाकार नरसिंहैया को रिश्वत देकर 18 जनवरी 2011 की तारीख़ वाला एक मनगढ़ंत वंश वृक्ष (fabricated family tree) तैयार किया गया। इस दस्तावेज़ में केवल तीन पुत्रों को ही उत्तराधिकारी दिखाया गया, पाँचों पुत्रियों को पूरी तरह से अपवर्जित किया गया।
- 24 मार्च 2005 को कथित रूप से फर्जी विभाजन विलेख तैयार करना, जिसमें भूमि को केवल पुरुष उत्तराधिकारियों - सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी, विक्रम पी.एस. रेड्डी, गुरुवा रेड्डी और उमेधा रेड्डी के बीच विभाजित करना शामिल है।
- इन कथित कूटरचित दस्तावेज़ों के आधार पर, भाइयों ने मेट्रो प्रतिकर से 1.80 करोड़ रुपए का दावा किया और प्राप्त भी किये। तत्पश्चात्, कुल 27 करोड़ रुपए जारी किये गए और सिद्धार्थ पी.एस. रेड्डी, विक्रम पी.एस. रेड्डी, उमेधा रेड्डी और अशोक रेड्डी के खातों में जमा किये गए।
- यह कपट तब सामने आया जब सुधन्वा रेड्डी ने अपने पुत्र प्रज्वल रेड्डी (दूसरी पत्नी से उत्पन्न) के साथ हुए पारिवारिक विवाद में यह स्वीकार किया कि उक्त विभाजन विलेख कृत्रिम एवं कूटरचित था। उन्होंने इस संबंध में बेंगलुरु मेट्रो रेल निगम के प्रबंध निदेशक को पत्र लिखकर सूचित किया कि यह विलेख उनके भाईयों एवं पुत्रों द्वारा तैयार किया गया कूटरचित दस्तावेज़ था। इसके पश्चात्, कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास बोर्ड (KIADB) ने शेष प्रतिकर राशि का वितरण स्थगित कर ₹5.59 करोड़ की राशि विचारण न्यायालय में जमा कर दी।
- 6 अक्टूबर 2017 को कपट का पता चलने पर, कथ्यिनी ने अपने भाइयों का विरोध किया, जिन्होंने कथित तौर पर उसे जान से मारने की धमकी दी। उसने 14 नवंबर 2017 और 20 नवंबर 2017 को (अपनी बहन जयश्री के साथ मिलकर) परिवाद दर्ज कराया, जिसके बाद अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- कथ्ययिनी और उनकी बहन जयश्री ने पारिवारिक संपत्तियों के विभाजन, प्रतिकर में समान अंश और 2005 के विभाजन के दस्तावेज़ को शून्य घोषित करने की मांग करते हुए सिविल वाद दायर किया। बैंक खातों से प्रतिकर की राशि निकालने पर रोक लगाने की मांग करते हुए एक और सिविल वाद दायर किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि प्रत्यार्थियों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया आपराधिक षड्यंत्र और छल का मामला बनता है। न्यायालय ने कहा कि उन्होंने अपने चाचाओं के साथ मिलकर, अपीलकर्त्ता और उसकी बहनों को नज़रअंदाज़ करते हुए, संपूर्ण राशि हड़पने के आशय से कूटरचित दस्तावेज़ तैयार करके अपनी चाचीओं के साथ कपट करने का प्रयत्न किया।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 24 मार्च 2005 के विभाजन विलेख की वास्तविकता के संबंध में उप-पंजीयक के कथन पर गलती से विश्वास कर लिया था। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि इस कथन की प्रतिपरीक्षा नहीं की गई थी, इसलिये दस्तावेज़ की वास्तविकता का पता लगाने के लिये असत्यापित परिसाक्ष्य पर विश्वास करना नासमझी है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय इस बात से इंकार करने का कोई औचित्य नहीं पा सका कि प्रत्यार्थियों ने वंश वृक्ष को गलत तरीके से प्रस्तुत किया है। न्यायालय ने स्वीकार किया कि प्रत्यर्थी वंश वृक्ष में के.जी. येलप्पा रेड्डी और जयलक्ष्मी की सभी पुत्रियों के नाम बताने के लिये बाध्य थे, और यह देखते हुए कि दोनों दस्तावेज़ों का प्रयोग प्रतिकर राशि पाने के लिये किया गया था, इसलिये इन दस्तावेज़ों की प्रामाणिकता को विचारण के अधीन रखा जाना आवश्यक है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि किसी सिविल वाद में पक्षकारों के विरुद्ध आपराधिक विधि के अंतर्गत दण्डनीय अपराध सिद्ध होते हैं, तो अभियोजन पर कोई रोक नहीं है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आपराधिक विधि और सिविल विधि साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि दोनों उपचार परस्पर अनन्य नहीं, अपितु सह-व्यापक हैं, और उनकी विषयवस्तु और परिणाम भिन्न हैं।
- न्यायालय ने दोहराया कि आपराधिक विधि का उद्देश्य व्यक्तियों, संपत्ति या राज्य के विरुद्ध अपराध करने वाले अपराधियों को दण्डित करना है, जबकि सिविल उपचार विभिन्न तंत्रों के माध्यम से गलत कार्यों से निपटते हैं। एक ही विषय पर एक ही पक्षकार से संबंधित सिविल कार्यवाही के लंबित रहने से, यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का कोई औचित्य नहीं बनता।
- न्यायालय ने पाया कि घटनाओं की लंबी श्रृंखला – पुत्रियों को छोड़कर वंश वृक्ष बनाने से लेकर, केवल पुत्रों और पोतों के बीच बंटवारे का दस्तावेज़ तैयार करने और प्रत्यार्थियों के बीच प्रतिकर बाँटने तक - यह निष्कर्ष निकालने के लिये पर्याप्त थी कि प्रत्यार्थियों ने संबंधित ज़मीन से लाभ उठाने के लिये सक्रिय प्रयास किये थे। अपीलकर्त्ता और उसकी बहनों को दी गई कथित धमकियों ने प्रत्यार्थियों के हेतुक को और पुष्ट किया।
- उच्चतम न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सभी कारक दर्शाते हैं कि अपीलकर्त्ता को न्याय सुनिश्चित करने के लिये आपराधिक विचारण आवश्यक है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जब प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो जाए, तो समानांतर सिविल विवादों की परवाह किये बिना, आपराधिक कार्यवाही अपने तार्किक अंत तक जारी रहनी चाहिये।
प्रथम दृष्टया मामला क्या है?
- प्रथम दृष्टया मामले (Prima Facie Case) की परिभाषा और अवधारणा:
- प्रथम दृष्टया मामला उस साक्ष्य को संदर्भित करता है जो प्रथम दृष्टया या उपस्थिति से किसी विधिक दावे या आरोप का समर्थन करने के लिये पर्याप्त आधार स्थापित करता है। आपराधिक विधि में, इसका अर्थ है कि पर्याप्त साक्ष्य विद्यमान हैं, जिनका खण्डन न होने पर दोषसिद्धि सुनिश्चित हो सकती है।
- इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है "प्रथम दृष्टि में" या "पहली उपस्थिति पर" तथा यह आपराधिक अभियोजन के लिये आवश्यक साक्ष्य की न्यूनतम सीमा को दर्शाता है।
- प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने के लिये मानक:
- न्यायालय प्रथम दृष्टया संदेह से परे किसी सबूत की मांग नहीं करता। इसके बजाय, वे इस बात की परीक्षा करते हैं कि क्या यह मानने का कोई उचित संदेह या संभावित कारण विद्यमान है कि अभियुक्त ने कोई अपराध किया है।
- साक्ष्य निश्चायक होना आवश्यक नहीं है, किंतु दोष युक्तियुक्त उपधारणा के लिये पर्याप्त होना चाहिये, जिसके लिये आगे अन्वेषण और विचारण की आवश्यकता हो।
लंबित सिविल विवादों के होते हुए भी आपराधिक कार्यवाही में यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
- प्रथम दृष्टया अवधारण के लिये न्यायिक दृष्टिकोण:
- न्यायालय प्रथम दृष्टया आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के संबंध में निर्णय लेते समय सतर्क रुख अपनाते हैं।
- वे मानते हैं कि आपराधिक मामलों को समय से पहले समाप्त करने से पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता तथा विधि का शासन कमजोर हो जाता है।
- प्रथम दृष्टया स्तर पर सबूत का भार:
- प्रथम दृष्टया, अभियोजन पक्ष को युक्तियुक्त संदेह से परे अपराध साबित करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, उन्हें इस संदेह के युक्तियुक्त आधार प्रस्तुत करने होंगे कि अभियुक्त ने कथित अपराध किये हैं।
- यह निचली सीमा यह सुनिश्चित करती है कि योग्य मामले विचारण के लिये आगे बढ़ें, जहाँ साक्ष्य की उचित जांच की जा सके।
- प्रक्रिया के दुरुपयोग के विरुद्ध संरक्षण:
- जहाँ न्यायालय तुच्छ या विद्वेषपूर्ण अभियोजनों से सुरक्षा प्रदान करते हैं, वहीं वे उन मामलों को समय से पहले खारिज होने से भी बचाते हैं, जिन्हें पूरे अन्वेषण की आवश्यकता होती है।
- प्रथम दृष्टया मानक, अभियुक्तों को उत्पीड़न से बचाने तथा वास्तविक मामलों में उचित निर्णय सुनिश्चित करने के बीच संतुलन स्थापित करता है।
- मामले के प्रबंधन के लिये निहितार्थ:
- सिविल विवादों के होते हुए भी आपराधिक कार्यवाही जारी रखने के सिद्धांत का मामला प्रबंधन और न्यायिक दक्षता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
- यह अभियुक्तों को आपराधिक दायित्त्व से बचने के लिये सिविल मुकदमेबाजी को ढाल के रूप में उपयोग करने से रोकता है।
- फोरम शॉपिंग की रोकथाम:
- यह सिद्धांत पक्षकारों को विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग से रोकता है, जहाँ वे केवल आपराधिक कार्यवाही को रद्द कराने हेतु दीवानी वादों को प्रारंभ कर देते हैं।
- यह सुनिश्चित करता है कि दीवानी एवं आपराधिक न्याय व्यवस्था स्वतंत्र रूप से कार्य करें और उनकी न्यायिक अखंडता बनी रहे।
- व्यापक न्याय सुनिश्चित करना:
- समवर्ती कार्यवाही की अनुमति देकर, विधिक प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि गलत कार्य के सभी पहलुओं को उचित ढंग से समाधान किया जाए।
- पीड़ितों के अपराधियों को दण्ड देकर आपराधिक न्याय तथा क्षति के लिये क्षतिपूर्ति के माध्यम से सिविल न्याय दोनों प्राप्त होते हैं।
निर्णय विधि
- जगदीश बनाम उदय कुमार जी.एस. और अन्य (2020):
- उच्चतम न्यायालय ने इस पूर्व निर्णय पर विश्वास किया, जिसने स्थापित किया कि तथ्यों का एक ही समूह सिविल और आपराधिक दोनों तरह के उपचारों को जन्म दे सकता है, और सिविल उपचार का लाभ उठाने से आपराधिक कार्यवाही में बाधा नहीं आती है।
- प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार और अन्य (1985):
- इस मामले ने यह स्थापित किया कि आपराधिक विधि और सिविल विधि साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि दोनों उपचार परस्पर अनन्य नहीं हैं, अपितु सह-व्यापक हैं, तथा उनकी विषय-वस्तु और परिणाम भिन्न हैं।
- कमलादेवी अग्रवाल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (2001):
- इस पूर्व निर्णय ने इस बात को पुष्ट किया कि सिविल कार्यवाही का लंबित रहना आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता, तथा आपराधिक मामलों को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन विहित प्रक्रियाओं के अनुसार आगे बढ़ना चाहिये।