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सिविल कानून
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 39
« »16-Jul-2025
संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी मामला “विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 39 के अधीन आज्ञापक व्यादेश केवल प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के उल्लंघन पर ही दिया जा सकता है।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 39 के अधीन आज्ञापक व्यादेश केवल प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के उल्लंघन पर ही दिया जा सकता है, न कि तब जब दावेदार पॉलिसी शर्तों का पालन करने में असफल रहा हो।
- उच्चतम न्यायालय ने संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी केस (2025) में यह निर्णय दिया ।
संपदा अधिकारी, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम निर्मला देवी (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह मामला भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही से उत्पन्न हुआ था, जहाँ हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) ने आवासीय क्षेत्रों के विकास के लिये विभिन्न भूस्वामियों से भूमि अधिग्रहित की थी। हुडा की 1992 की नीति के अधीन, विस्थापित भूस्वामियों (विस्थापितों) को विशिष्ट प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अनुपालन के अधीन, 1992 की दरों पर वैकल्पिक भूखंड आवंटन के माध्यम से पुनर्वास का अधिकार था।
- 1992 की नीति के अनुसार, पुनर्वास लाभों का दावा करने के लिये विस्थापितों को विहित प्रारूप में आवेदन जमा करना होगा और बयाना राशि का 10% जमा करना अनिवार्य था। नीति में यह भी स्पष्ट किया गया था कि यदि विस्थापितों की उस क्षेत्र में कुल भूमि का 75% या उससे अधिक अधिग्रहित हो जाता है, तो उन्हें भूखंड दिये जाएंगे, और भूखंडों का आकार अधिग्रहित भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर निर्धारित किया जाएगा।
- कई विस्थापितों ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 के अधीन वाद दायर किये, जिसमें हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) को 1992 की नीति के अधीन भूखंड आवंटित करने के लिये आज्ञापक अनुतोष की मांग की गई थी। यद्यपि, प्रतिवादी-विस्थापित प्रक्रियागत आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहे - उन्होंने न तो विहित प्रारूप में आवेदन जमा किये और न ही नीति के अनुसार आवश्यक 10% बयाना राशि जमा की।
- कुछ वादी 1992 की नीति की घोषणा के लगभग 15 वर्ष पश्चात्, पूर्वोक्त आवश्यक शर्तों को पूरा किये बिना ही न्यायालय में चले गए। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) ने इन मुकदमों का विरोध करते हुए तर्क दिया कि विस्थापितों को आवंटन का दावा करने का कोई विधिक अधिकार नहीं है क्योंकि वे अनिवार्य नीतिगत शर्तों का पालन करने में असफल रहे हैं, जिससे पुनर्वास लाभों के उनके अधिकार का हनन होता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 के अंतर्गत आज्ञापक व्यादेश विवेकाधीन है और इसे केवल किसी प्रवर्तनीय विधिक बाध्यता के भंग पर ही दिया जा सकता है। न्यायालय तब तक आज्ञापक व्यादेश नहीं दे सकता जब तक कि कोई विधिक अधिकार विद्यमान न हो और उस विधिक अधिकार का भंग न हुआ हो।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि आज्ञापक व्यादेश एक विवेकाधीन और असाधारण उपचार है, जो केवल तभी अनुदत्त किया जाना चाहिये जब कर्त्तव्य या बाध्यता का स्पष्ट भंग हो, वादी ने लाभ का दावा करने के लिये आवश्यक शर्तों का पूरी तरह से पालन किया हो, और मामले की निष्पक्षता वादी के पक्ष में हो।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि आज्ञापक व्यादेश देने से पहले बाध्यता के भंग और बाध्यता के पालन को स्पष्ट रूप से स्थापित किया जाना चाहिये। वादी को उचित अभिवचनों और ठोस साक्ष्यों के माध्यम से न्यायालय को यह विश्वास दिलाना होगा कि प्रतिवादी उन पर बाध्यकारी किसी विशेष बाध्यता का भंग कर रहा है।
- न्यायालय ने आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त करने के लिये छह आवश्यक शर्तों का सारांश दिया: (i) प्रतिवादी की ओर से स्पष्ट बाध्यता, (ii) उस बाध्यता का भंग, (iii) पालन करने के लिये बाध्य करने की आवश्यकता, (iv) न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीयता, (v) आवेदक के पक्ष में सुविधा का संतुलन, और (vi) अपूरणीय क्षति जिसकी धन के रूप से क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती।
- इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादियों के पास कोई प्रवर्तनीय विधिक अधिकार नहीं था क्योंकि वे विहित आवेदन जमा करने और बयाना राशि जमा करने जैसी अनिवार्य प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन करने में असफल रहे। परिणामस्वरूप, हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) पर प्लॉट आवंटित करने का कोई विधिक बाध्यता नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि जब किसी योजना में अपेक्षित बयाना राशि के साथ विहित प्रारूप में आवेदन दाखिल करना अनिवार्य होता है, तो भूखंड आवंटन के लिये राज्य से अनुरोध करने से पहले इसका अनुपालन करना विस्थापित व्यक्ति के बाध्यता का भाग बन जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि यह मुकदमा सभी राज्यों के लिये आँखे खोलने वाला है, तथा आगाह किया कि धन के रूप में प्रतिकर के अतिरिक्त पुनर्वास योजनाओं को केवल निष्पक्षता और समता के मानवीय विचारों द्वारा निदेशित किया जाना चाहिये, तथा यह सभी भूमि अधिग्रहण मामलों में अनिवार्य नहीं है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा आज्ञापक व्यादेश के लिये क्या शर्तें हैं?
- बाध्यता: प्रतिवादी की ओर से स्पष्ट बाध्यता होना चाहिये।
- भंग: उस दायित्व का उल्लंघन हुआ होगा या उचित रूप से आशंका होगी
- आवश्यकता: भंग को रोकने या सुधारने के लिये विनिर्दिष्ट कार्यों के पालन को बाध्य करना आवश्यक होना चाहिये।
- प्रवर्तनीयता: न्यायालय को उन कृत्यों के पालन को लागू करने में सक्षम होना चाहिये।
- सुविधा का संतुलन: सुविधा का संतुलन व्यादेश चाहने वाले पक्षकार के पक्ष में होना चाहिये।
- अपूरणीय क्षति: भंग के कारण हुई क्षति या क्षति अपूरणीय होनी चाहिये या धन के रूप से पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति योग्य नहीं होनी चाहिये।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 क्या है?
विधिक उपबंध और आवश्यकताएँ:
- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 39 न्यायालयों को बाध्यता के भंग को रोकने तथा अपेक्षित कार्यों के पालन के लिये बाध्य करने हेतु आज्ञापक व्यादेश जारी करने का अधिकार अनुदत्त करती है, जो न्यायालय के विवेक पर निर्भर है।
- इस उपबंध के लिये स्पष्ट, विनिर्दिष्ट और विधिक रूप से बाध्यकारी बाध्यता की आवश्यकता होती है, जिसके भंग को न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से रोका जाना है।
- बाध्यता का वास्तविक भंग या भंग की युक्तियुक्त आशंका होनी चाहिये, तथा जिन कार्यों के पालन की मांग की जा रही है, वे न्यायालय द्वारा प्रवर्तन योग्य होने चाहिये।
आवश्यक शर्तें:
- ऐसे कार्यों का पालन परिवाद किये गए भंग को रोकने के लिये आवश्यक होना चाहिये, तथा बाध्य किये जाने वाले कार्यों और बाध्यता के भंग की रोकथाम के बीच सीधा संबंध होना चाहिये ।
- आज्ञापक व्यादेश एक असाधारण उपचार है जो केवल तभी अनुदत्त किया जाता है जब साधारण विधिक उपचार अपर्याप्त साबित होते हैं, और वादी को सभी पूर्वावश्यक शर्तों का पूर्ण रूप से पालन करना होगा।
- न्यायालय सुविधा का संतुलन, अपूरणीय क्षति, तथा क्षति की पर्याप्तता सहित स्थापित न्यायसंगत सिद्धांतों के आधार पर विवेक का प्रयोग करता है, जिससे यह अधिकार का मामला नहीं रह जाता, अपितु गुण-दोषों के न्यायिक मूल्यांकन तथा न्यायसंगत विचारों पर निर्भर हो जाता है।