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सांविधानिक विधि
आदिवासी महिलाओं के समान उत्तराधिकार अधिकार
« »18-Jul-2025
राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य "महिला उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार से बाहर रखना भेदभावपूर्ण है।" न्यायमूर्ति संजय करोल और जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने कहा कि "महिलाओं को उत्तराधिकार से अपवर्जित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है", जबकि उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में जनजातीय परिवार में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिये गए हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता धैया नामक अनुसूचित जनजाति की महिला के विधिक उत्तराधिकारी थे, जिसने अपने नाना की संपत्ति में अंश मांगा था।
- परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों ने इस दावे का विरोध करते हुए कहा कि आदिवासी रीति-रिवाजों के अधीन महिलाओं को उत्तराधिकार से अपवर्जित किया गया है।
- यह मामला एक आदिवासी परिवार की पैतृक संपत्ति से संबंधित था, जहाँ महिला उत्तराधिकारियों को उनके उचित अंश से वर्जित किया जा रहा था।
- विचारण न्यायालय, प्रथम अपीलीय न्यायालय और उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं के दावे को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया था कि अपीलकर्त्ता महिलाओं को उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में असफल रहे।
- निचली न्यायालयों ने निर्णय दिया कि चूँकि अपीलकर्त्ता महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली कोई सकारात्मक प्रथा स्थापित नहीं कर सके, इसलिये जनजातीय महिला अंश की हकदार नहीं थी।
- पुरुष उत्तराधिकारियों ने तर्क दिया कि जनजातीय रीति-रिवाजों के कारण महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार से अपवर्जित किया गया है, यद्यपि वे ऐसी किसी भी निषेधात्मक प्रथा को साबित नहीं कर सके।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा कि "ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार दिया जाए, महिलाओं को नहीं।"
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "विधि की तरह रीति-रिवाज भी समय में अटके नहीं रह सकते और दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।"
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आदिवासी महिलाएँ स्वतः ही उत्तराधिकार से अपवर्जित हो जाती हैं।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यह देखा जाना चाहिये कि क्या कोई प्रचलित प्रथा विद्यमान है जो पैतृक संपत्ति में अंश के लिये महिला आदिवासी अधिकार को प्रतिबंधित करती है ।
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकारों से वंचित करना भारत का संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है , जो विधि के समक्ष समता को प्रत्याभूत करता है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विनिर्दिष्ट जनजातीय प्रथा या संहिताबद्ध विधि के अभाव में, न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" को लागू करना चाहिये।
सबूत के भार पर न्यायालय का तर्क क्या था?
- न्यायालय ने कहा कि निचली न्यायालयों ने अपीलकर्त्ताओं से महिलाओं को उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की मांग करके गलती की है ।
- इसके अतिरिक्त, विरोधी पक्षकार को अनुमेय प्रथा के सकारात्मक सबूत की अपेक्षा करने के बजाय ऐसी विरासत पर रोक साबित करनी चाहिये।
- न्यायालय ने टिप्पणी की कि "अपीलकर्त्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, किंतु फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी थोड़ी सी भी नहीं दर्शायी जा सकी, और उसे साबित करना तो दूर की बात है।"
- किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समता कायम रहनी चाहिये, तथा केवल लिंग के आधार पर अधिकारों से वंचित करना असांविधानिक है।
लैंगिक समता के लिये सांविधानिक ढाँचा क्या है?
अनुच्छेद 14 - समता का अधिकार:
- संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के राज्यक्षेत्र में सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समता तथा विधियों के समान संरक्षण को प्रत्याभूत करता है।
- यह उपबंध मनमाने भेदभाव पर रोक लगाता है और यह सुनिश्चित करता है कि समान मामलों में समान व्यवहार किया जाए।
- लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, क्योंकि इस तरह के भेदभाव का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब कोई निषेधात्मक प्रथा विद्यमान नहीं है तो केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है।
अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध:
- अनुच्छेद 15(1) में कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं करेगा ।
- न्यायालय ने कहा कि निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला जनजातीय सदस्यों को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है ।
- अनुच्छेद 38 और 46 संविधान के सामूहिक चरित्र की ओर इशारा करते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के विरुद्ध कोई भेदभाव न हो।
- संवैधानिक ढांचा लैंगिक समानता पर जोर देता है और संपत्ति के अधिकार सहित सभी क्षेत्रों में लिंग आधारित विभेद को प्रतिबंधित करता है।
न्याय, समता और सद्विवेक का सिद्धांत:
- किसी विशिष्ट जनजातीय प्रथा या संहिताबद्ध विधि के अभाव में, न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" के सिद्धांत को लागू करना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार देने से इंकार करने से केवल लैंगिक विभाजन और विभेद को बढ़ता है, जिसे विधि द्वारा समाप्त किया जाना चाहिये।"
- इस सिद्धांत के अनुसार न्यायालयों को बदलते समय के साथ विकसित होना होगा तथा पुरानी प्रथाओं को विभेद को जारी रखने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
- रीति-रिवाजों को विकसित होना चाहिये और व्यक्तियों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने के लिये उन्हें स्थिर नहीं रखा जा सकता।