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आपराधिक कानून

दुर्लभ समझौतों की परिस्थितियों में बलात्संग के मामले को रद्द करने की अनुमति

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 17-Jul-2025

मधुकर एवं अन्य। वी. महाराष्ट्र राज्य और अन्य 

"भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध गंभीर होते हैं और सामान्यत: समझौते के आधार पर रद्द नहीं किये जाते। यद्यपि, इसने स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्याय सुनिश्चित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति लचीली है और इसे प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिये।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संजय कुमार 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संजय कुमार नेआपवादिक परिस्थितियों में बलात्संग की कार्यवाही को आपसी समझौते का हवाला देते हुए रद्द कर दिया है और कहा है कि इसे जारी रखने से न्याय के हित में कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा 

  • उच्चतम न्यायालय ने मधुकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया । 

मधुकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • वर्तमान अपीलें बॉम्बे उच्च न्यायालय, औरंगाबाद पीठ द्वारा आपराधिक आवेदन संख्या 2561 और 2185/2024 में पारित 07 मार्च 2025 के एक सामान्य आदेश से उत्पन्न हुई हैं, जिसके अधीन उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के अधीन दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई थी। 
  • वर्तमान अपीलों को उत्पन्न करने वाली तथ्यात्मक स्थिति इस प्रकार है: 
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 302/2023 दिनांक 20 नवंबर 2023 को मेहुनबारे पुलिस थाने, जिला जलगांव में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के तहत SLP(Crl) No.7212/2025 में अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दर्ज की गई।  
    • उक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में यह अभिकथित किया गया कि दिनांक 19 नवम्बर 2023 को अपीलकर्त्ताओं ने एक विधिविरुद्ध जमाव द्वारा परिवादकर्त्ता एवं उसके पारिवारिक सदस्यों, जिनमें उसके पिता प्रभाकर भी सम्मिलित थे, पर हमला किया। कथित तौर पर उक्त हमला, अपीलकर्त्ताओं में से एक के विवाह-विच्छेद के लिये प्रभाकर की भूमिका को लेकर किया गया था।   
    • तत्पश्चात्, उसी पुलिस थाने में SLP(Crl) No. 7495/2025 में अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376, 354-, 354-, 509 और 506 के अधीन दिनांक 21.11.2023 को प्रथम सूचना रिपोर्ट संख्या 304/2023 दर्ज की गई, जिससे सेशन मामला संख्या 29/2024 शुरू हुआ। द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में प्रभाकर के विरुद्ध लैंगिक उत्पीड़न और आपराधिक धमकी सहित गंभीर आरोप थे, जिसमें अभिकथित किया गया था कि उसने समय के साथ परिवादकर्त्ता का लैंगिक शोषण किया, कृत्य के वीडियो रिकॉर्ड किये और उसके बाद के वैवाहिक संबंधों में हस्तक्षेप किया। 
    • यद्यपि, मार्च 2024 में, द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में एक शपथपत्र दायर किया जिसमें उसने अभियोजन को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की और कहा कि उसे अभियुक्त को ज़मानत देने पर कोई आपत्ति नहीं है। उसने आगे पुष्टि की कि मामला सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया था, और उसे विवाह संबंधी खर्चों के लिये 5,00,000 रुपए मिल गए थे। 
    • अपीलकर्त्ताओं ने दोनों प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय में आपराधिक आवेदन संख्या 2561 और 2185/2024 दायर किये। दिनांक 07.03.2025 के विवादित सामान्य आदेश द्वारा, उच्च न्यायालय नेदोनों आवेदनों कोयह कहते हुए खारिज कर दिया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध गंभीर और अशमनीय प्रकृति का होने के कारण, केवल समझौते या आर्थिक प्रतिकर के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत अपराधनिस्संदेह गंभीर और जघन्य प्रकृति का सामान्यतः पक्षकारों के बीच समझौते के आधार पर ऐसे अपराधों से संबंधित कार्यवाही को रद्द करने को हतोत्साहित किया जाता है और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये।" 
  • न्यायालय ने कहा कि "न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्यायालय की शक्ति किसी कठोर सूत्र द्वारा बाधित नहीं है और इसका प्रयोग प्रत्येक मामले के तथ्यों के संदर्भ में किया जाना चाहिये।" 
  • न्यायालय ने कहा कि उसे "एक असामान्य स्थिति का सामना करना पड़ा, जहाँ भारतीय दण्ड संहिता कि धारा 376 सहित गंभीर आरोपों को सम्मिलित करते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), विरोधी पक्ष द्वारा पहले दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के तुरंत बाद दर्ज की गई। घटनाओं का यह क्रम आरोपों को एक निश्चित संदर्भ प्रदान करता है और सुझाव देता है कि द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) एक प्रतिक्रियात्मक कदम हो सकती है।"  
  • न्यायालय ने कहा कि " द्वितीय प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में परिवादकर्त्ता ने स्पष्ट रूप से मामले को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की है। उसने कहा है कि वह अब विवाहित है, अपने निजी जीवन में व्यवस्थित है, और आपराधिक कार्यवाही जारी रखने से उसकी शांति और स्थिरता भंग होगी। उसका रुख न तो अनिश्चित है और न ही अस्पष्ट, उसने निरंतर, अभिलेख में दर्ज शपथपत्र के माध्यम से भी, कहा है कि वह अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं करती है और चाहती है कि मामला समाप्त हो जाए।" 
  • न्यायालय ने कहा कि "विचारण को जारी रखने से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इससे सभी संबंधित पक्षकारों, विशेषकर परिवादकर्त्ता, के लिये संकट और बढ़ेगा और न्यायालय पर भार बढ़ेगा, जबकि परिणाम की कोई संभावना नहीं है।" 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि "इस मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने तथा परिवादकर्त्ता द्वारा अपनाए गए स्पष्ट रुख और समझौते की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, हमारा मत है कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा और यह केवल प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।" 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत अपराध गंभीर और जघन्य प्रकृति के होते हैं, तथा समझौते के आधार पर ऐसी कार्यवाही को निरस्त करने को सामान्यतः हतोत्साहित किया जाता है, परंतु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अंतर्निहित शक्ति आपवादिक परिस्थितियों में निरस्त करने की अनुमति देती है, जहाँ कार्यवाही जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा तथा यह प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, विशेषत: जब परिवादकर्त्ता ने स्पष्ट रूप से तथा निरतं अभियोजन को आगे न बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की हो। 

संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं? 

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376बलात्संग के अपराध से संबंधित है, जो एक अशमनीय और अजमानतीय अपराध है, जो कम से कम सात वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय है, जिसे आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड तक बढ़ाया जा सकता है। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति प्रदान करती है जो संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक हो सकते हैं। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अंतर्निहित अधिकारिताव्यापक है और इसका प्रयोग आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये किया जा सकता है, जहाँ कार्यवाही जारी रखने से विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा या जहाँ कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। 
    • भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अशमनीय अपराधों कोसामान्यतः पक्षकारों के बीच सुलझाया या समझौता नहीं किया जा सकता है, और न्यायालय सामान्यतः केवल समझौते या मौद्रिक प्रतिकर के आधार पर ऐसी कार्यवाही को रद्द करने की अनुमति नहीं देता हैं। 
    • यद्यपि, आपवादिक परिस्थितियों में, जहाँ परिवादकर्त्ता स्पष्ट रूप से मामले को आगे बढ़ाने की अनिच्छा व्यक्त करता है और मामले को जारी रखने से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होगा, तो न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये गंभीर अपराधों को भी रद्द करने के लिये अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग कर सकती हैं। 
    • स्थापित सिद्धांतयह है कि बलात्संग जैसे गंभीर अपराध सामान्यतः समझौते के आधार पर निरस्त नहीं किये जा सकते, किंतु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति आपवादिक  मामलों में निरस्त करने की अनुमति देती है, जहाँ जारी रखना निरर्थक होगा और सभी संबंधित पक्षकारों को अनावश्यक उत्पीड़न का कारण बनेगा।