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आपराधिक कानून

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अभियोजन की मंजूरी

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 28-Nov-2025

मंजूनाथ बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य 

"विभागीय कार्यवाही में दोषमुक्तिआपराधिक आरोपों को वापस लेने का स्वतः आधार प्रदान नहीं करतीविशेष रूप से फँसाने वाले मामलों मेंजहाँ दोषसिद्धि फँसाने वाले अधिकारी के परिसाक्ष्य के आधार पर हो सकती है।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने टी. मंजूनाथ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025)के मामले मेंइस बात की जांच की कि क्या विभागीय कार्यवाही में दोषमुक्ति और अभियोजन मंजूरी की कथित अवैधता भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन भ्रष्टाचार के मामले में उन्मोचन का अधिकार है। 

टी. मंजूनाथ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • अपीलकर्त्ताटी. मंजूनाथ, R.T.O.कार्यालयके.आर.पुरमबेंगलुरु में मोटर वाहन के वरिष्ठ निरीक्षक के रूप में काम कर रहे थेजब लोकायुक्त द्वारा उनके विरुद्ध जाल बिछाया गया था। 
  • फँसाने की कार्यवाही में फँसाने से पूर्व की औपचारिकताएँ शामिल थींजिसके अधीन परिवादकर्त्ता को 15,000 रुपए सौंपे गए थेजिन्हें मांगने पर अभियुक्त को सौंप दिया जाना था। 
  • अभियुक्त को सह-अभियुक्त एच.बी. मस्तीगौड़ा के माध्यम से 15,000 रुपए की अवैध रिश्वत की मांग करने और स्वीकार करने के आरोप में पकड़ा गया। मस्तीगौड़ा एक निजी व्यक्ति था जिसने अभियुक्त के कहने पर यह राशि प्राप्त की थी। 
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन अपराध संख्या 48/2012 दर्ज किया गया तथापरिवहन आयुक्त द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के अधीनअभियोजन की मंजूरी प्रदान की गई । 
  • अभियुक्तों के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7, 8, 13(1)(घ) सहपठित धारा 13(2) के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये आरोप पत्र दायर किया गया। 
  • अभियुक्त ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 227 सहपठित धारा 239 के अंतर्गत एक आवेदन दायर कियाजिसमेंदो प्राथमिक आधारों पर उन्मोचन की मांग की गई: 
  • अभियोजन की मंजूरी परिवहन आयुक्त द्वारा दी गई थीजो कथित तौर पर सक्षम प्राधिकारी नहीं थेक्योंकि अभियुक्त को राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। 
  • विभागीय कार्यवाही में अभियुक्त को उन्हीं आरोपों और अभिकथनों से दोषमुक्त कर दिया गया था। 
  • विचारण न्यायालय नेउन्मोचन आवेदन को स्वीकार करते हुएकहा कि मंजूरी अवैध है क्योंकि यह सक्षम प्राधिकारी (राज्य सरकार) द्वारा प्रदान नहीं की गई थीयद्यपि उचित मंजूरी प्राप्त करने के बाद नए आरोप पत्र दायर करने की स्वतंत्रता दी गई थी। 
  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के आदेश को पलटते हुए कहा कि मंजूरी वैध थीक्योंकि यह 11 फरवरी, 2010 की अधिसूचना के अनुसार सक्षम प्राधिकारी द्वारा दी गई थी। 
  • अभियुक्तों ने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील की। 

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

विभागीय दोषमुक्ति बनाम आपराधिक कार्यवाही पर: 

  • न्यायालय ने विभागीय जांच रिपोर्ट की जांच कीजिसमें मुख्य रूप से अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गयाक्योंकि परिवादकर्त्ताशैडो विटनेस और सहकर्मी ने विभाग के मामले का समर्थन नहीं कियायद्यपि अन्वेषण अधिकारी ने इसका पूर्ण समर्थन किया था। 
  • न्यायालय नेनरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2001)औरनीरज दत्ता बनाम राज्य (2023)का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि फँसाने के मामलों में दोषसिद्धि केवल फँसाने वाले अधिकारी के परिसाक्ष्य के आधार पर हो सकती हैयदि वह विश्वसनीय हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि विभागीय कार्यवाही में पक्षद्रोही साक्षीअभियोजन पक्ष के दबाव के कारण आपराधिक विचारणों में भी वैसा ही व्यवहार नहीं कर सकते। 

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के अधीन मंजूरी की वैधता पर: 

  • न्यायालय ने कहा कि धारा 19(1) में उपबंध है कि जहाँ नियुक्ति प्राधिकारी राज्य सरकार हैवहाँ मंजूरी केवल राज्य सरकार द्वारा ही दी जानी चाहिये 
  • न्यायालय ने राज्य द्वारा अपनाए गए पूर्व निर्णयों को अलग करते हुए कहा कि सक्षमता के संबंध में धारा 19(4) का स्पष्टीकरण केवल अपीलीय या पुनरीक्षण मंचों में ही सुसंगत होता हैमूल कार्यवाहियों में नहींजहाँ विचारण न्यायालय ने मंजूरी को अवैध ठहराया था। 

विवादित नियुक्ति प्राधिकारी और अंतिम निदेशों पर: 

  • न्यायालय ने नियुक्ति प्राधिकारी के संबंध में परस्पर विरोधी दावे देखे - राज्य ने तर्क दिया कि वह आयुक्त थाजबकि अभियुक्त ने दावा किया कि वह राज्य सरकार थी। 
  • इस विवादित परिदृश्य के कारणन्यायालय ने मामले को वास्तविक नियुक्ति प्राधिकारी के सीमित विवाद्यक और मंजूरी की वैधता पर इसके प्रभाव पर नए सिरे से निर्णय के लिये विचारण न्यायालय को भेज दिया।  
  • विचारण न्यायालय को मूल नियुक्ति रिकॉर्ड तलब करने और तदनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गई - यदि मंजूरी वैध हैतो विचारण आगे बढ़ेगाअन्यथाउचित प्राधिकारी से नई मंजूरी प्राप्त करने के लिये आरोप पत्र वापस कर दिया जाएगा। 

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 क्या है? 

बारे में: 

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम भारत में भ्रष्टाचार के निवारण और उससे जुड़े मामलों से संबंधित विधि को समेकित और संशोधित करने के लिये एक अधिनियम है। 

महत्वपूर्ण धाराएँ: 

  • धारा 3: "विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्ति" 
    • केंद्र/राज्य सरकार को भ्रष्टाचार के मामलों के विचारण के लिये विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की अनुमति देता है 
  • धारा 7: "लोक सेवक को रिश्वत दिये जाने से संबंधित अपराध" 
    • यह अधिनियम लोक सेवकों द्वारा पदीय कर्त्तव्य को प्रभावित करने के लिये अनुचित लाभ प्राप्त करने से संबंधित है। 
    • दण्ड: 3-7 वर्ष का कारावास और जुर्माना। 
  • धारा 8: "लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध" 
    • इसमें लोक सेवकों को अनुचित लाभ देना शामिल है। 
    • सजा: वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों। 
  • धारा 9: "किसी वाणिज्यिक संगठन द्वारा लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध" 
    • वाणिज्यिक संगठनों से जुड़े भ्रष्टाचार को संबोधित करता है। 
    • इसमें कॉर्पोरेट दायित्त्व के लिये उपबंध सम्मिलित हैं। 
  • धारा 13: "लोक सेवक द्वारा आपराधिक अवचार" 
    • लोक सेवकों द्वारा आपराधिक अवचार को परिभाषित करता है। 
    • इसमें दुर्विनियोग और अवैध संवर्धन सम्मिलित है। 
    • दण्ड: 4-10 वर्ष का कारावास और जुर्माना। 
  • धारा 17: "अन्वेषण के लिये अधिकृत व्यक्ति" 
    • अन्वेषण के लिये अधिकृत पुलिस अधिकारियों की न्यूनतम रैंक निर्दिष्ट करता है। 
    • निर्दिष्ट प्राधिकारियों से अनुमोदन की आवश्यकता है। 
  • धारा 19: "अभियोजन के लिये पूर्व मंजूरी आवश्यक" 
    • लोक सेवकों पर अभियोजन चलाने के लिये पूर्व मंजूरी अनिवार्य कर दी गई है। 
    • मंजूरी प्रदान करने के लिये सक्षम प्राधिकारियों का विवरण। 
  • धारा 20: "जहाँ लोक सेवक कोई अनुचित लाभ स्वीकार करता है वहाँ उपधारणा" 
    • जब अनुचित लाभ साबित हो जाता है तो भ्रष्टाचार की विधिक उपधारणा बनती है। 
  • धारा 23: "धारा 13(1)(क) के अधीन अपराध के संबंध में आरोप में विवरण" 
    • भ्रष्टाचार के मामलों में आरोप विरचित करने की आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है।