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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 438 और 422
« »26-Sep-2025
आर.ए.पी. बनाम ए.एम. "यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि अपनी माता/पत्नी के जीवनकाल में उनका भरण-पोषण करना पुरुष का विधिक और नैतिक कर्त्तव्य है। यह उत्तरदायित्त्व संतान के अपने माता-पिता की देखभाल करने के अंतर्निहित दायित्त्व से उपजा है। इसी प्रकार, पति और संतान का यह कर्त्तव्य है कि वे पत्नी और माता की वृद्धावस्था में देखभाल और भरण-पोषण सुनिश्चित करें।" न्यायमूर्ति शमीम अहमद |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति शमीम अहमद ने एक कुटुंब न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें एक पति और उसके दो पुत्रों को पत्नी/माता को 21,000 रुपए मासिक भरण-पोषण देने का निदेश दिया गया था, जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि अपनी पत्नी और माता का समर्थन करना, उनके बुढ़ापे में सम्मान और देखभाल सुनिश्चित करना एक पुरुष का विधिक और नैतिक कर्त्तव्य है।
- उच्चतम न्यायालय ने आर.ए.पी. बनाम ए.एम. (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
आर.ए.पी. बनाम ए.एम. (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण विवाद से उत्पन्न हुई है।
- प्रथम याचिकाकर्त्ता और प्रत्यर्थी के बीच विवाह 7 जनवरी, 1986 को संपन्न हुआ था। प्रत्यर्थी ने स्वेच्छया से वैवाहिक घर छोड़ दिया और वर्ष 2015 के दौरान याचिकाकर्त्ताओं को छोड़ दिया।
- परित्याग की तारीख से चार वर्ष की अवधि के बाद, प्रत्यर्थी ने 2019 M.C. No. 64 में कुटुंब न्यायालय, मदुरै के समक्ष कार्यवाही शुरू की, जिसमें कथित तौर पर विवाह के उपहार के रूप में दिये गए 290 सॉवरेन वजन के सोने के आभूषणों की वसूली के साथ-साथ 40,000 रुपए का मासिक भरण-पोषण और याचिकाकर्त्ताओं से 5,00,000 रुपए की वसूली की मांग की गई।
- मदुरै स्थित कुटुंब न्यायालय ने 18 मार्च, 2025 के अपने आदेश के अधीन प्रत्यर्थी को 21,000 रुपए प्रति माह भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया। इस आदेश से व्यथित होकर, याचिकाकर्त्ताओं ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 438 सहपठित धारा 442 के अंतर्गत वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि प्रथम याचिकाकर्त्ता, 60 वर्ष से अधिक आयु का होने के कारण, स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से ग्रस्त था और आय का कोई स्रोत नहीं था। दूसरे याचिकाकर्त्ता की आय कथित रूप से अल्प और अपर्याप्त थी जिससे वह अपने घरेलू खर्च, अपने पिता के चिकित्सा व्यय और अपनी पत्नी व संतान के भरण-पोषण का प्रबंध नहीं कर पाता था। तीसरे याचिकाकर्त्ता, जो बैंगलोर में कार्यरत थे, के बारे में कहा गया कि उनके पास अपने वैयक्तिक खर्चों को पूरा करने के लिये पर्याप्त आय नहीं थी और उन्हें अक्सर दूसरे याचिकाकर्त्ता से वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती थी।
- याचिकाकर्त्ताओं ने आगे दलील दी कि प्रत्यर्थी के पास पर्याप्त वित्तीय साधन हैं, जैसा कि उसके वैयक्तिक वाहन के रखरखाव और एक ड्राइवर की नियुक्ति से साबित होता है। उन्होंने अभिकथित किया कि कुटुंब न्यायालय ने इस बात पर विचार नहीं किया कि प्रत्यर्थी बिना किसी उचित या युक्तियुक्त कारण के पृथक् रह रही थी और इसलिये वह भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं थी। याचिकाकर्त्ताओं ने प्रत्यर्थी की क्रमशः पत्नी और माता के रूप में देखभाल करने की इच्छा व्यक्त की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि अपनी माता और पत्नी का भरण-पोषण करना एक विधिक और नैतिक दायित्त्व है। यह कर्त्तव्य संतान की माता-पिता की देखभाल करने और पतियों की वृद्धावस्था में पत्नियों का भरण-पोषण करने की अंतर्निहित उत्तरदायित्त्व से उपजा है। न्यायालय ने बल देते हुए कहा कि यह एक विधिक दायित्त्व है जिसे विभिन्न न्यायालयों में वृद्ध माता-पिता के लिये वित्तीय सहायता अनिवार्य करने वाले सांविधिक प्रावधानों के माध्यम से मान्यता प्राप्त है।
- न्यायालय ने कहा कि पति और पुत्र क्रमशः अपनी पत्नियों और माताओं का भरण-पोषण करने के सामाजिक उत्तरदायित्त्व लेते हैं। एक माता द्वारा प्रदान की गई अमूल्य देखभाल की भरपाई आर्थिक रूप से नहीं की जा सकती, और प्रसव और संतान के पालन-पोषण के दौरान सहे गए कष्ट और त्याग की भरपाई कोई भी भुगतान नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता न्यायिक हस्तक्षेप की मांग करने वाली कोई भी अवैधता, अनौचित्य या त्रुटिपूर्णता प्रदर्शित करने में असफल रहे। बढ़ती कीमतों और जीवन-यापन की उच्च लागत को देखते हुए, 21,000 रुपए की भरण-पोषण राशि को उचित माना गया।
- न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को बेसहारा पत्नियों और माताओं की आवारागर्दी रोकने के लिये लागू किये गए लाभकारी विधि के रूप में मान्यता दी। पक्षकरीं (पति-पत्नी और माता-पुत्र) के बीच निर्विवाद संबंध पर ध्यान दिया गया।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विवादित आदेश में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। इसमें कोई अवैधता या प्रक्रिया का दुरुपयोग न पाते हुए, दाण्डिक पुनरीक्षण याचिका में कोई दम नहीं था। परिणामस्वरूप, याचिका खारिज कर दी गई और कुटुंब न्यायालय को विधि के अनुसार आगे बढ़ने का निदेश दिया गया।
(भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धाराएँ 438 और 422 क्या हैं?
- धारा 438: पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेख मंगाना
- उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश अपनी अधिकारिता में अवर दण्ड न्यायालयों के समक्ष किसी भी कार्यवाही के अभिलेख को मंगा सकते हैं और उनकी परीक्षा कर सकते हैं जिससे निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेशों की शुद्धता, वैधता या औचित्य की जांच की जा सके।
- इस धारा के अंतर्गत पुनरीक्षण प्रयोजनों के लिये सभी मजिस्ट्रेट (कार्यपालक या न्यायिक, मूल या अपीलीय) को सेशन न्यायाधीश से निम्न माना जाता है।
- दण्ड/आदेश के निष्पादन को निलंबित करके और अभिलेख की परीक्षा के दौरान अभियुक्त को जमानत पर रिहा करके अंतरिम अनुतोष प्रदान किया जा सकता है।
- अपील, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाहियों में अंतर्वर्ती आदेशों के लिये पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता ।
- कोई डुप्लिकेट आवेदन नहीं - यदि कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश के पास आवेदन करता है, तो उसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य न्यायालय में आवेदन करने की अनुमति नहीं है।
- धारा 442: उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियां
- उच्च न्यायालय को उन मामलों में पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है, जहाँ अभिलेख स्वयं द्वारा मांगे जाते हैं या अन्यथा उसके ज्ञान में आते हैं, तथा इसमें अपीलीय और सेशन न्यायालयों के समान शक्तियां हैं।
- प्राकृतिक न्याय सिद्धांत - अभियुक्त के विरुद्ध कोई भी पूर्वाग्रहपूर्ण आदेश उसे व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से सुनवाई का अवसर दिये बिना नहीं दिया जा सकता।
- मौलिक परिसीमा - उच्च न्यायालय पुनरीक्षण शक्तियों के अधीन दोषमुक्ति के निर्णय को दोषसिद्धि में परिवर्तित नहीं कर सकता।
- पुनरीक्षण पर रोक – जहाँ अपील की जा सकती है, किंतु कोई अपील नहीं की जाती है, वहाँ उस पक्षकार के कहने पर पुनरीक्षण पर विचार नहीं किया जा सकता, जो अपील कर सकता था।
- परिवर्तन उपबंध - उच्च न्यायालय पुनरीक्षण आवेदन को अपील याचिका के रूप में मान सकता है यदि यह गलत धारणा के अधीन किया गया हो कि कोई अपील नहीं है और न्याय के हित में ऐसा अपेक्षित है।
- समान विभाजन खण्ड - जब पुनरीक्षण न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो मामले का निपटान धारा 433 प्रक्रिया का पालन करता है।