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सांविधानिक विधि
ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य एवं भारत संघ (1950)
«14-Jul-2025
परिचय
मुख्य न्यायाधीश कनिया द्वारा न्यायमूर्ति मुखर्जी, न्यायमूर्ति दास, न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री और न्यायमूर्ति फजल अली के साथ दिये गए इस आधारभूत उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के अधीन दैहिक स्वतंत्रता के दायरे के महत्त्वपूर्ण सांविधानिक प्रश्न को संबोधित किया। न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अनुच्छेद 21 में केवल "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" की आवश्यकता है, न कि "विधि की उचित प्रक्रिया" की, जिससे निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की वैधता बरकरार रही। इस निर्णय ने मौलिक अधिकारों के विभाजन सिद्धांत को स्थापित किया और स्वतंत्रता के बाद के भारत में सांविधानिक निर्वचन को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया, यद्यपि बाद में मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) में इसे खारिज कर दिया गया।
मामले के तथ्य
- ए.के. गोपालन एक प्रमुख कम्युनिस्ट नेता और संसद सदस्य थे, जो विभिन्न निवारक निरोध आदेशों के अधीन दिसंबर 1947 से निरंतर निरोध में थे।
- प्रारंभ में उन्हें मद्रास लोक व्यवस्था अनुरक्षण अधिनियम, 1947 के अधीन निरोध किया गया, बाद में उन्हें निवारक निरोध अधिनियम, 1950 के अधीन निरोध में रखा गया।
- 20 फरवरी 1950 को, मद्रास सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 3(1)(क)(झ) के अधीन एक नया निरोध आदेश जारी किया, जिसमें उन्हें एक वर्ष के लिये निरोध में रखने का निदेश दिया गया।
- 25 फरवरी 1950 को उन्हें निरोध के आधार बताये गए, जिसमें कहा गया कि उनकी गतिविधियाँ लोक व्यवस्था बनाये रखने के लिये हानिकारक थीं।
- निरोध में रहते हुए गोपालन को दोषसिद्ध ठहराया गया और सामान्य आपराधिक विधि के अधीन कारावास का दण्ड दिया गया, किंतु बाद में इन दण्डों को अपास्त कर दिया गया।
- 6 मार्च 1950 को, ए.के. गोपालन ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन एक रिट याचिका दायर की, जिसमें निरोध आदेश को चुनौती दी गई और बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की मांग की गई।
- उन्होंने तर्क दिया कि निवारक निरोध अधिनियम, 1950, संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 22 के अधीन उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि निरोध आदेश असद्भाव पूर्वक (दुर्भावनापूर्ण) आशय से जारी किया गया था और यह अधिनियम स्वयं असांविधानिक था।
- उन्होंने विशेष रूप से निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 7, 8, 11, 12 और 14 को सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी।
- इस मामले की सांविधानिक महत्ता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर इसके प्रभाव को देखते हुए, इसकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा की गई।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या अनुच्छेद 21 में "विधि की उचित प्रक्रिया" का सिद्धांत समाविष्ट है या केवल "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" की आवश्यकता है।
- क्या निवारक निरोध अधिनियम, 1950 ने संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 22 के अधीन प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।
- क्या अनुच्छेद 19 और 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों के बीच कोई अतिछादन या अंतर्संबंध विद्यमान है।
- क्या निवारक निरोध अधिनियम की धाराएं 7, 8, 11, 12 और 14 सांविधानिक थीं।
- क्या निवारक निरोध कार्यवाही में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया था।
- क्या अधिनियम ने अनुच्छेद 14 के अधीन विधि के समक्ष समानता के अधिकार का उल्लंघन किया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- मुख्य न्यायाधीश कनिया की टिप्पणियाँ और बहुमत का निर्णय:
- यह स्थापित किया गया कि अनुच्छेद 21 केवल "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" की अपेक्षा करता है और "विधि की उचित प्रक्रिया" की अमेरिकी अवधारणा को समाहित नहीं करता। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि कोई प्रक्रिया निर्धारित करने वाली विधि विद्यमान है, तो अनुच्छेद 21 संतुष्ट है, चाहे वह प्रक्रिया निष्पक्ष या न्यायसंगत हो या नहीं।
- यह निर्णय दिया गया कि विभिन्न अनुच्छेदों के अधीन मौलिक अधिकार परस्पर अनन्य हैं और एक-दूसरे का अतिछादन नहीं करते है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 19 और 21 पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में काम करते हैं और इन्हें एक साथ नहीं पढ़ा जा सकता।
- अनुच्छेद 21 में "दैहिक स्वतंत्रता" का संकीर्ण निर्वचन किया गया है, जिसमें केवल शारीरिक स्वतंत्रता का उल्लेख है तथा अनुच्छेद 19 के अंतर्गत शामिल व्यापक स्वतंत्रताएं इसमें सम्मिलित नहीं हैं।
- निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की सांविधानिक वैधता को बरकरार रखा गया, तथा कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 22(3) से 22(7) के अधीन निवारक निरोध स्वीकार्य है।
- निवारक निरोध अधिनियम की धारा 14 को असांविधानिक घोषित किया गया क्योंकि यह बंदी को न्यायालय के समक्ष निरोध के आधार का प्रकटीकरण करने से रोककर अनुच्छेद 22(5) का उल्लंघन करती है।
- न्यायालय ने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत, जिनमें सुनवाई का अधिकार भी सम्मिलित है, निवारक निरोध कार्यवाही पर लागू नहीं होते, क्योंकि वे न्यायिक कार्यवाही नहीं हैं।
- न्यायमूर्ति फजल अली की असहमतिपूर्ण टिप्पणियाँ:
- बहुमत के दृष्टिकोण से असहमति जताते हुए, अनुच्छेद 21 के व्यापक निर्वचन की वकालत की गई जिसमें प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष प्रक्रिया के सिद्धांत शामिल होंगे।
- तर्क दिया गया कि मौलिक अधिकारों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जाना चाहिये और अनुच्छेद 21 का निर्वचन अन्य मौलिक अधिकारों के संदर्भ में किया जाना चाहिये।
- इस बात पर बल दिया गया कि संविधान का निर्वचन वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रभावी सुरक्षा के लिये किया जाना चाहिये, न कि केवल राज्य की कार्रवाई को वैध बनाने के लिये।
- निरोध के मामलों में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के महत्त्व पर बल दिया गया तथा बहुमत के संकीर्ण निर्वचन की आलोचना की गई।
- अतिरिक्त टिप्पणियाँ:
- न्यायालय ने सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 3 और सूची III की प्रविष्टि 3 के अंतर्गत निवारक निरोध विधि बनाने की संसद की क्षमता को मान्यता दी।
- इस बात को स्वीकार किया गया कि नवजात भारतीय राज्य में लोक व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखने के लिये निवारक निरोध एक आवश्यक साधन था।
- सांविधानिक निर्वचन के लिये महत्त्वपूर्ण पूर्ण निर्णय स्थापित किये, विस्तृत न्यायिक निर्वचन की तुलना में पाठ्य व्याख्या पर बल दिया।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से ए.के. गोपालन की रिट याचिका खारिज कर दी और अनुच्छेद 14 को छोड़कर, जिसे असांविधानिक घोषित कर दिया गया था, निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की वैधता बरकरार रखी। इस ऐतिहासिक निर्णय ने यह स्थापित किया कि अनुच्छेद 21 में "विधि की उचित प्रक्रिया" के बजाय केवल "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" की आवश्यकता है, और विभिन्न अनुच्छेदों के अधीन मौलिक अधिकार परस्पर अनन्य हैं। दैहिक स्वतंत्रता और निवारक निरोध की वैधता की न्यायालय के संकीर्ण निर्वचन ने सांविधानिक न्यायशास्त्र को तब तक मह्ह्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया जब तक कि मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) में इसे खारिज नहीं कर दिया गया।