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पारिवारिक कानून
रेवनासिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन और अन्य (2023)
«20-Jul-2025
परिचय
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए इस ऐतिहासिक उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर को संबोधित किया। न्यायालय ने मिताक्षरा विधि द्वारा शासित हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति में अमान्य विवाहों से उत्पन्न बच्चों के संपत्ति अधिकारों के संबंध में परस्पर विरोधी निर्वचनों का समाधान किया। इस निर्णय में यह स्थापित किया गया है कि ऐसे बच्चे काल्पनिक विभाजन के माध्यम से अपने माता-पिता के अंश के उत्तराधिकारी तो हैं, किंतु उन्हें हिंदू अविभाजित परिवार में जन्म से सह-उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता।
मामले के तथ्य
- यह मामला रेवनसिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2011) में दो न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय के विरुद्ध एक संदर्भ से उत्पन्न हुआ था, जिसमें कहा गया था कि शून्य/ शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न हुए बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी होने के हकदार हैं, चाहे वह स्व-अर्जित हो या पैतृक।
- यह संदर्भ तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 1 सितंबर, 2023 को दिया गया था।
- प्राथमिक विवाद हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 के निर्वचन पर केंद्रित था, जो अमान्य विवाहों से पैदा हुए बच्चों को धर्मजता प्रदान करता है।
- धारा 16(3) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऐसे बालक केवल अपने माता-पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी होंगे तथा अन्य सहदायिक अंशों पर उनका कोई अधिकार नहीं होगा।
- इस मामले में भारता मठ एवं अन्य बनाम आर. विजया रेंगनाथन एवं अन्य (2010) और जिनिया केओटिन बनाम कुमार सीताराम (2003) में उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णयों से विरोधाभासी विचार सम्मिलित थे।
- इन पूर्व निर्णयों में यह दृष्टिकोण अपनाया गया था कि शून्य विवाहों से उत्पन्न बालक पैतृक सहदायिक संपत्ति के उत्तराधिकार का दावा करने के हकदार नहीं हैं तथा वे केवल अपने पिता की स्व-अर्जित संपत्ति के ही हकदार हैं।
- रेवनसिद्दप्पा (2011) निर्णय इस दृष्टिकोण से भिन्न था, जिसके कारण मामले को बड़ी पीठ को सौंपना आवश्यक हो गया।
- यह मामला विशेष रूप से हिंदू मिताक्षरा विधि द्वारा शासित हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्तियों से संबंधित था।
- इस विवाद्यक पर हिंदू विवाह अधिनियम और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों में सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता थी।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या शून्य/शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न बच्चे पैतृक सहदायिक संपत्ति में अधिकार का दावा कर सकते हैं या केवल माता-पिता की स्व-अर्जित संपत्ति में।
- हिंदू मिताक्षरा विधि के संदर्भ में, हिंदू अविभाजित परिवार में संपत्ति कब माता-पिता की मानी जा सकती है?
- क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अधीन प्रदत्त धर्मजता ऐसे बालकों को हिंदू संयुक्त परिवार में जन्म से सहदायिक बनाती है।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अधीन उत्तराधिकार के प्रयोजनों के लिये मृतक सहदायिक के अंश का निर्धारण कैसे किया जाए।
- संपत्ति के अधिकार के संबंध में हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के साथ कैसे समन्वित किया जाए।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अधीन धर्मजता प्रदान करने से स्वतः ही सहदायिक अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते, क्योंकि सहदायिक संपत्ति 'उत्तराधिकार' पर नहीं अपितु 'जीवित' रहने पर निर्भर करती है।
- न्यायालय ने स्थापित किया कि मृतक हिंदू मिताक्षरा सहदायिक के हित का पता लगाने के लिये, विधि में मृतक और अन्य सहदायिकों के बीच मृत्यु से तुरंत पहले विभाजन की धारणा को अनिवार्य बनाया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि अवैध विवाह से उत्पन्न हुए बच्चे उस अंश के उत्तराधिकारी होने के हकदार हैं जो काल्पनिक विभाजन पर उनके माता-पिता को आवंटित किया गया होता, किंतु वे अन्य सहदायिकों की संपत्ति में अधिकार का दावा नहीं कर सकते।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16(3) के अनुरूप होना चाहिये, जो बालकों के अधिकारों को केवल माता-पिता की संपत्ति तक सीमित करता है।
- न्यायालय ने माना कि इस विधि का उद्देश्य संयुक्त परिवार में अन्य सहदायिकों के अधिकारों को बनाए रखते हुए निर्दोष बालकों की रक्षा करना है।
- न्यायालय ने चार भाइयों को सम्मिलित करते हुए एक विस्तृत दृष्टांत प्रस्तुत किया, जिसमें यह दर्शाया गया कि काल्पनिक विभाजन व्यवहार में किस प्रकार काम करेगा।
- यह स्वीकार किया गया कि हिंदू विवाह अधिनियम एक लाभकारी विधि है जिसका उद्देश्य उन बालकों को धर्मजता का सामाजिक दर्जा प्रदान करना है जिन्हें अन्यथा अधर्मज माना जाएगा।
- शुन्य्ब विवाह से उत्पन्न हुए बालकों के अधिकारों को अन्य निर्दोष सहदायिकों के अधिकारों के साथ संतुलित करने की आवश्यकता को मान्यता दी गई।
- इस बात को स्वीकार किया गया कि संपत्ति के अधिकारों के संबंध में वैध और अवैध विवाहों से उत्पन्न हुए बालकों के बीच उचित वर्गीकरण विद्यमन है।
- इस बात पर बल दिया गया कि विधि के उद्देश्य की रक्षा के लिये धारा 16 का स्पष्ट और शाब्दिक निर्वचन अपनाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
यह ऐतिहासिक निर्णय हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति में अवैध विवाहों से उत्पन्न संतानों के संपत्ति अधिकारों पर अत्यंत आवश्यक स्पष्टता प्रदान करता है। उच्चतम न्यायालय ने एक संतुलित दृष्टिकोण स्थापित किया है जो ऐसे बालकों की धर्मजता को मान्यता देते हुए परिवार के अन्य सदस्यों के सहदायिक अधिकारों की रक्षा करता है। यह स्पष्ट करके कि ये बालक काल्पनिक विभाजन के माध्यम से अपने माता-पिता के अंश के हकदार हैं, किंतु सहदायिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकते, न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुरूप बनाया है। इस निर्णय का व्यावहारिक दृष्टांत और स्पष्ट दिशानिर्देश हिंदू संयुक्त परिवारों में संपत्ति विवादों से संबंधित भविष्य के मामलों के लिये एक मूल्यवान पूर्व निर्णय के रूप में कार्य करेंगे। सहदायिक प्रणाली की अखंडता को बनाए रखते हुए विधि के सुरक्षात्मक उद्देश्य पर न्यायालय का जोर हिंदू वैयक्तिक विधि (Hindu Personal Law) के शब्दार्थ और भावार्थ दोनों की सूक्ष्म समझ को दर्शाता है।