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सांविधानिक विधि

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(1)

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 16-May-2024

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

उच्चतम न्यायालय ने प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (2024) मामले में दिये गए अपने महत्त्वपूर्ण निर्णय में न्यूज़क्लिक के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की एक आतंकवाद से संबंधित मामले में हुई गिरफ्तारी को अमान्य कर दिया। न्यायालय ने पुरकायस्थ को अभिरक्षा में लेने से पहले उनकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित करने में दिल्ली पुलिस की विफलता का हवाला देते हुए उनकी रिहाई का आदेश दिया।

प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • पुरकायस्थ को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सुबह करीब 6:30 बजे गिरफ्तार किया। यह आरोप लगाते हुए कि न्यूज़क्लिक को चीन का समर्थन करने वाले प्रचार के लिये धन मिला, दिल्ली पुलिस ने विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 के अंतर्गत कार्यवाही किया।
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में UAPA और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के अधीन गंभीर आरोप सूचीबद्ध हैं, जिनमें अविधिक गतिविधियाँ, आतंकवादी कृत्य, आतंकवादी गतिविधियों के लिये धन संग्रह, षड्यंत्र, विभिन्न समूहों के मध्य दुश्मनी को बढ़ावा देना तथा आपराधिक षड्यंत्र शामिल हैं।
  • पुरकायस्थ का तर्क है कि उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना के सुबह 6:30 बजे रिमांड सुनवाई के लिये ले जाया गया।
    • उनके आग्रह के बाद उनके अधिवक्ताओं को सुबह 7 बजे के बाद ही कार्यवाही के बारे में सूचित किया गया।
    • व्हाट्सएप के माध्यम से उनके अधिवक्ताओं को भेजा गया रिमांड आवेदन अहस्ताक्षरित था तथा इसमें गिरफ्तारी के समय एवं आधार जैसे विवरण का अभाव था।
    • सुबह 8 बजे से पहले दायर की गई आपत्तियों के बावजूद, पुरकायस्थ के अधिवक्ताओं को सूचित किया गया कि रिमांड का आदेश पहले ही दिया जा चुका है, जिससे सात दिनों की पुलिस अभिरक्षा की अनुमति मिल गई है।
      • विशेष रूप से, आधिकारिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि रिमांड के आदेश पर न्यायाधीश के सामने पुरकायस्थ की उपस्थिति या उनके अधिवक्ताओं को अधिसूचना से पहले सुबह 6 बजे हस्ताक्षर किये गए थे।
  • इसके अतिरिक्त, पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के कई दिनों बाद FIR सार्वजनिक की गई।
  • पुरकायस्थ का तर्क उचित प्रक्रिया के पालन की कमी के कारण उनकी गिरफ्तारी की अवैधता पर केंद्रित है।

पुरकायस्थ की गिरफ्तारी की वैधता प्रश्नों के घेरे में क्यों है?

  • पुरकायस्थ का मूल तर्क यह था कि उनकी गिरफ्तारी अवैध थी तथा भारतीय संविधान के अंतर्गत उचित प्रक्रिया के अनुसार नहीं थी।
  • संविधान का अनुच्छेद 22(1), जो गिरफ्तारी एवं अभिरक्षा में दी जाने वाली सुरक्षा के बारे में है।
  • “गिरफ्तार किये गए किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित किये बिना अभिरक्षा में नहीं रखा जाएगा तथा न ही उसे अपनी पसंद के विधिक व्यवसायी से परामर्श लेने एवं बचाव करने के अधिकार से वंचित किया जाएगा”।
  • पुरकायस्थ के मामले में, उन्हें बिना किसी अग्रिम सूचना के सुबह 6:30 बजे रिमांड सुनवाई के लिये लाया गया था।
  • उनके आग्रह के बाद ही उनके अधिवक्ताओं को सुबह 7 बजे के बाद कार्यवाही की जानकारी दी गई।
  • व्हाट्सएप के द्वारा उनके अधिवक्ताओं को भेजा गया रिमांड आवेदन अधूरा था, जिसमें गिरफ्तारी का समय एवं कारण जैसे आवश्यक विवरण नहीं थे।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 क्या है?

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या अभिरक्षा में लिये गए व्यक्तियों को कुछ सुरक्षा उपाय प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 22(1) में कहा गया है कि अनुच्छेद 22(2) में निर्दिष्ट कुछ परिस्थितियों को छोड़कर, किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी या अभिरक्षा के आधार के बारे में बताए बिना गिरफ्तार या अभिरक्षा में नहीं लिया जा सकता है।
  • गिरफ्तार किये गए किसी भी व्यक्ति को जितनी जल्दी हो सके, उनकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये तथा उन्हें अपनी पसंद के विधिक व्यवसायी से परामर्श करने एवं बचाव करने की अनुमति दी जानी चाहिये।
  • यदि किसी व्यक्ति को निवारक अभिरक्षा के प्रावधान वाले विधि के अधीन गिरफ्तार और अभिरक्षा में लिया जाता है, तो व्यक्ति को अभिरक्षा के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये तथा उन्हें उचित प्राधिकारी के समक्ष अभिरक्षा को चुनौती देने का अधिकार है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(1) क्या है?

  • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 22(1), एक मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जो गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किये जाने के अधिकार की गारंटी देता है।
  • इसमें कहा गया है कि गिरफ्तार और अभिरक्षा में लिये गए किसी भी व्यक्ति को उनकी गिरफ्तारी के आधार तथा उनकी पसंद के विधिक व्यवसायी द्वारा परामर्श एवं बचाव का अधिकार बताया जाना चाहिये।
  • यह प्रावधान गिरफ्तारी और अभिरक्षा में पारदर्शिता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित करता है, मनमानी या अविधिक अभिरक्षा को रोकता है।
  • हालिया मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "गिरफ्तारी के आधार की जानकारी देने का तरीका आवश्यक रूप से सार्थक होना चाहिये ताकि इच्छित उद्देश्य की पूर्ति हो सके”।
  • यह माना गया कि गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति को उसकी गिरफ़्तारी के कारणों के बारे में लिखित रूप में "निःसंदेह एवं बिना किसी अपवाद के" सूचित किया जाना चाहिये।

उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित अनुच्छेद 22(1) से संबंधित प्रभावी आवश्यकताएँ क्या हैं?

जोगिंदर कुमार बनाम यूपी राज्य (1994) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मौलिक अधिकारों के प्रभावी प्रवर्तन के लिये निम्नलिखित आवश्यकताएँ रखीं:

  • गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को अभिरक्षा में रखने का अधिकार है, यदि वह ऐसा अनुरोध करता है कि वह अपने किसी मित्र, रिश्तेदार या अन्य व्यक्ति को, जो उसे जानता हो या उसके कल्याण में रुचि लेने की संभावना रखता हो, जहाँ तक संभव हो, यह बताया जाए कि उसे गिरफ्तार किया गया है तथा कहाँ उसे अभिरक्षा में लिया जा रहा है।
  • गिरफ्तार व्यक्ति को थाने लाए जाने पर पुलिस अधिकारी इस प्रक्रिया की विधिवत जानकारी देगा।
  • डायरी में यह प्रविष्टि करनी होगी कि गिरफ्तारी की सूचना किसे दी गई।
    • सत्ता से इन सुरक्षाओं को अनुच्छेद 21 एवं 22(1) से प्रवाहित माना जाना चाहिये तथा सख्ती से लागू किया जाना चाहिये।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 से संबंधित प्रमुख निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • हालिया मामले में पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2023) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक एवं सांविधिक आदेशों को सही अर्थ देने के लिये, "अब से यह आवश्यक होगा कि गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधार की एक प्रति स्वाभाविक रूप से एवं बिना किसी अपवाद के गिरफ्तार व्यक्ति को दी जाए।
  • हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रत्येक आरोपी व्यक्ति के पास विधिक प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने के साधनों की कमी है, जिसके पास राज्य से मुफ्त विधिक सेवाएँ प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार है। यदि न्याय की मांग हो तो ऐसे व्यक्तियों को अधिवक्ता उपलब्ध कराना राज्य का संवैधानिक कर्त्तव्य है। निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने में विफलता के कारण अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करने के कारण मुकदमा रद्द किया जा सकता है।
  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि विधिक सलाह तक पहुँच एक मौलिक अधिकार है तथा सरकार उन लोगों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिये बाध्य है, जो इसे वहन नहीं कर सकते। यह निर्णय यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ कि वित्तीय संसाधनों की चिंता किये बिना हर कोई विधिक प्रतिनिधित्व का लाभ उठा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने डी.के. के मामले में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी एवं अभिरक्षा के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) जिसमें यह दिशा-निर्देश शामिल था कि गिरफ्तार करने वाले अधिकारी का कर्त्तव्य है कि व्यक्ति को उनके विधिक प्रतिनिधित्व के अधिकार के बारे में सूचित करना चाहिये तथा उन्हें किसी रिश्तेदार या मित्र द्वारा उनकी गिरफ्तारी के बारे में सूचित किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष:

उच्चतम न्यायालय का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के महत्त्व को बढ़ाता है, जो मनमानी गिरफ्तारी और अभिरक्षा के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (2024) मामला, गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में तुरंत सूचित करने की आवश्यकता पर बल देकर, मौलिक संवैधानिक सुरक्षा को स्थापित रखता है।