निर्णय लेखन कोर्स – 19 जुलाई 2025 से प्रारंभ | अभी रजिस्टर करें










होम / एडिटोरियल

सांविधानिक विधि

न्यायालय द्वारा SC/ST उप-वर्गीकरण की अनुमति

    «    »
 05-Aug-2024

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

भारत के उच्चतम न्यायालय ने 6:1 बहुमत के ऐतिहासिक निर्णय में SC/ST आरक्षण के परिदृश्य को मौलिक रूप से परिवर्तित कर दिया। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात न्यायाधीशों की पीठ ने वर्ष 2004 के ई.वी. चिन्नैया निर्णय को पलट दिया, जिसमें पहले SC/ST समूहों को अविभाज्य माना गया था। यह नया निर्णय राज्यों को SC/ST श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का अधिकार देता है, जिससे सबसे वंचित समुदायों के लिये निश्चित उप-कोटा के माध्यम से लक्षित सुरक्षा की अनुमति मिलती है। यह निर्णय वर्ष 1950 में अपनी संवैधानिक स्थापना के बाद से आरक्षण नीति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है, जिस परिवर्तन के भारत में सकारात्मक कार्यवाही के लिये संभावित रूप से दूरगामी निहितार्थ हैं।

संवैधानिक ढाँचा SC समुदायों के उप-वर्गीकरण को कैसे संबोधित करता है और हाल के विधिक निर्णयों के क्या निहितार्थ हैं?

  • संवैधानिक ढाँचा:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से यह निर्दिष्ट करने का अधिकार देता है कि कौन-सी जातियाँ, नस्लें या जनजातियाँ अनुसूचित जाति (SC) के रूप में वर्गीकृत हैं।
    • इस सूची को केवल संसद के अधिनियम द्वारा ही संशोधित किया जा सकता है।
    • अनुसूचित जातियों को शिक्षा एवं सार्वजनिक रोज़गार में सामूहिक रूप से 15% आरक्षण दिया गया है।
  • SC समूहों के भीतर असमानता:
    • समय के साथ, यह स्पष्ट हो गया कि 15% कोटे के अंतर्गत कुछ अनुसूचित जाति समूहों का प्रतिनिधित्व अन्य की तुलना में काफी कम था।
    • इस असमानता के कारण विभिन्न राज्य सरकारों ने इन अधिक वंचित समूहों को अतिरिक्त सुरक्षा या प्राथमिकताएँ प्रदान करने का प्रयास किया।
  • पंजाब राज्य की वर्ष 1975 की अधिसूचना:
    • वर्ष 1975 में पंजाब सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर वाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों को अनुसूचित जाति आरक्षण में प्रथम वरीयता दी।
    • इन दोनों समुदायों को पंजाब में अनुसूचित जाति श्रेणी में सबसे पिछड़े समुदायों में से एक माना गया है।
  • ई.वी. चिन्नैया मामला (2004):
    • उच्चतम न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में आंध्र प्रदेश राज्य के इसी प्रकार के विधान को रद्द कर दिया था।
    • न्यायालय ने निर्णय दिया था कि:
      • अनुसूचित जातियाँ एक समरूप समूह हैं जिन्हें आगे विभाजित नहीं किया जा सकता।
      • अनुसूचित जाति सूची में कोई भी भेदभाव उत्पन्न करने का प्रयास, सूची के साथ छेड़छाड़ के समान है।
      • राज्यों के पास ऐसा वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है।
      • अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 14 के अधीन समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • पंजाब की नीति पर प्रभाव:
    • ई.वी. चिन्नैया के निर्णय के आधार पर, वर्ष 2006 में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने डॉ. किशन पाल बनाम पंजाब राज्य मामले में पंजाब राज्य की वर्ष 1975 की अधिसूचना को रद्द कर दिया।
  • पंजाब की विधायी प्रतिक्रिया:
    • उसी वर्ष (2006) पंजाब सरकार ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम पारित किया।
    • इस अधिनियम ने वाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के लिये आरक्षण में प्रथम वरीयता को पुनः लागू किया, जिससे उच्च न्यायालय द्वारा रद्द की गई नीति प्रभावी रूप से बहाल हो गई।
  • दविंदर सिंह मामला:
    • गैर-बाल्मीकि, गैर-मज़हबी सिख SC समुदाय के सदस्य दविंदर सिंह ने 2006 के अधिनियम को चुनौती दी।
    • वर्ष 2010 में उच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।
  • उच्चतम न्यायालय रेफरल (2014):
    • वर्ष 2014 में यह मामला पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंप दिया गया।
    • मुख्य प्रश्न यह था कि क्या ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्यकता है?
  • दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020):
    • न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि 2004 के ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
  • प्रमुख टिप्पणियाँ: 
    • न्यायालय और राज्य, कठोर वास्तविकताओं के प्रति मूक दर्शक नहीं बने रह सकते।
    • अनुसूचित जातियाँ एक समरूप समूह नहीं हैं; सूची में "असमान लोग भी हैं।"
    • यही सिद्धांत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों पर भी लागू होता है।
  • सात न्यायाधीशों की पीठ (फरवरी 2024):
    • चूँकि ई.वी. चिन्नैया और दविंदर सिंह दोनों मामलों का निर्णय पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा किया गया था, इसलिये विवाद को सुलझाने के लिये सात न्यायाधीशों की एक वृहद् पीठ का गठन किया गया।
    • इस पीठ ने फरवरी 2024 में दलीलें सुनीं, जिसमें इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया कि क्या राज्य अधिक लक्षित सकारात्मक कार्यवाही के लिये SC समूहों को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।

विभिन्न राज्यों द्वारा स्थापित समितियों और आयोगों के सुझाव/अनुशंसाएँ क्या हैं?

1961

     डॉ. आर. नागन्ना गौड़ा समिति, कर्नाटक

इसमें तकनीकी एवं व्यावसायिक संस्थानों में 50% तथा सरकारी सेवाओं में 45% आरक्षण का सुझाव दिया गया।

1963

वी.के. विश्वनाथन आयोग, केरल

इसने तकनीकी और व्यावसायिक कॉलेजों में OBC छात्रों के लिये 40% और SC/ST छात्रों के लिये 10% सीटें आरक्षित करने की अनुशंसा की।

1964

बी.डी. देशमुख समिति, महाराष्ट्र

इसने पिछड़े वर्गों को चार श्रेणियों में बाँटने तथा राज्य में उनके प्रतिशत के अनुपात में सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की अनुशंसा की।

1969

ए.एन. सत्तनाथन आयोग, तमिलनाडु

इसने वर्ष 1970 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और राज्य सरकार की नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में 33% आरक्षण की अनुशंसा की।

1970

मनोहर प्रसाद आयोग, आंध्र प्रदेश

 इसने OBC की चार विभिन्न श्रेणियों की पहचान की तथा उनके पक्ष में व्यावसायिक कॉलेजों और सरकारी सेवाओं में आरक्षण की अनुशंसा की।

1970

जे.एन. वजीर समिति, जम्मू और कश्मीर

इस समिति की अनुशंसाओं के आधार पर राज्य सरकार द्वारा “जम्मू और कश्मीर अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (आरक्षण) नियम, 1970” तैयार किये गए।

1973

ढेबर आयोग जनजातीय कार्य मंत्रालय

इस आयोग की स्थापना कमज़ोर आदिवासी समूहों का अध्ययन करने के लिये की गई थी। इसने आदिवासी समूहों में कम विकसित लोगों के लिये अलग श्रेणियाँ बनाने का सुझाव दिया। वर्ष 1975 में भारत सरकार ने सबसे कमज़ोर आदिवासी समूहों को एक अलग श्रेणी के रूप में पहचानने के लिये एक अभ्यास किया और उनमें से 52 को ऐसे समूह में घोषित किया, जबकि वर्ष 1993 में 23 नए समूह जोड़े गए, जिससे कुल 705 अनुसूचित जनजातियों में से 75 हो गए।

1975

एल.जी. हवानूर आयोग, कर्नाटक 

इसने सरकारी रिक्तियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े समुदायों के लिये 16%, पिछड़ी जातियों के लिये 10% तथा पिछड़ी जनजातियों के लिये 6% आरक्षण की अनुशंसा की।

1976

मुंगेरी लाल आयोग, बिहार

इसने 128 समुदायों को पिछड़ा और 94 को सबसे पिछड़ा बताया। इसने सरकारी सेवाओं में 20% और व्यावसायिक संस्थानों में 24% आरक्षण की अनुशंसा की।

1976

ए.आर.बक्शी आयोग, गुजरात

इसमें 82 जातियों और समुदायों को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा बताया गया तथा सरकारी सेवाओं व व्यावसायिक संस्थानों में 10% आरक्षण की अनुशंसा की गई।

1977

छेदी लाल साथी आयोग, उत्तर प्रदेश

यह अति पिछड़े वर्गों पर सबसे चर्चित आयोगों में से एक है।

इसने पिछड़े वर्गों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करने की अनुशंसा की तथा अलग कोटे के तहत सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का सुझाव दिया।

1990

न्यायमूर्ति गुरनाम सिंह आयोग, हरियाणा

आयोग ने पाया कि आरक्षण का लाभ मुख्य रूप से एक विशेष अनुसूचित जाति द्वारा उठाया गया है और समग्र लाभ शेष 36 अनुसूचित जातियों तक नहीं पहुँचा है। परिणामस्वरूप, हरियाणा में आरक्षण के प्रयोजनों के लिये अनुसूचित जातियों की सूची को ब्लॉक ‘A’ और ब्लॉक ‘B’ में विभाजित किया गया, जिसमें 36 अनुसूचित जातियों को ब्लॉक ‘A’ में तथा वह 31 जिसने सबसे अधिक लाभ उठाया है उसे ब्लॉक ‘B’ में रखा गया।

1997

न्यायमूर्ति पी. रामचंद्र राजू आयोग, आंध्र प्रदेश

इस आयोग की स्थापना आंध्र प्रदेश राज्य की अनुसूचित जातियों में अत्यंत पिछड़ी जातियों की मांग पर की गई थी। रिपोर्ट में कहा गया कि आरक्षण का लाभ मुख्य रूप से अनुसूचित जातियों में से एक विशेष जाति को मिला है और इसलिये अनुसूचित जातियों को समूह A, B, C तथा D में वर्गीकृत करने की अनुशंसा की गई। इस आयोग की अनुशंसा के आधार पर ही आंध्र प्रदेश में अनुसूचित जातियों को समूह A, B, C और D में वर्गीकृत किया गया था, जिसके अधिनियमन के कारण ई.वी. चिन्नैया मामले में इस न्यायालय ने इस तरह के वर्गीकरण को असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा कि अनुसूचित जातियाँ/अनुसूचित जनजातियाँ एक समरूप वर्ग हैं एवं आरक्षण के उद्देश्य से उन्हें उपवर्गीकृत नहीं किया जा सकता।

2001

हुकम सिंह समिति, उत्तर प्रदेश

सामाजिक अध्ययन के उपरांत समिति ने पाया कि आरक्षण का लाभ सबसे अधिक वंचित वर्ग तक नहीं पहुँच रहा है, बल्कि नौकरियों में सबसे अधिक भाग यादवों का है। इसलिये, इसने अनुसूचित जातियों/OBC की सूची के उप-वर्गीकरण की अनुशंसा की।

2003 

लाहुजी साल्वे आयोग, महाराष्ट्र

इस आयोग की नियुक्ति अनुसूचित जातियों की सूची में ‘मांग’ जाति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिये की गई थी। आयोग ने अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण की अनुशंसा की थी क्योंकि जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में मांग सबसे निचले पायदान पर थे और उन्हें पर्याप्त लाभ नहीं मिल रहा था।

2005

न्यायमूर्ति ए.जे. सदाशिव आयोग, कर्नाटक

इस आयोग की नियुक्ति राज्य में अनुसूचित जातियों की उन जातियों, नस्लों और जनजातियों की पहचान करने के लिये की गई थी, जिन्हें आरक्षण का लाभ पर्याप्त रूप से नहीं दिया जा रहा था। आयोग ने राष्ट्रपति सूची में निर्दिष्ट 101 जातियों को चार श्रेणियों में विभाजित करने की अनुशंसा की, जिसमें प्रत्येक श्रेणी को अनुसूचित जातियों के कुल आरक्षण का 15% दिया जाना था।

2007

महादलित आयोग, बिहार

आयोग का उद्देश्य अनुसूचित जातियों में पिछड़ी जातियों की पहचान करना था। आयोग ने अनुसूचित जातियों की सूची में से 18 जातियों को अत्यंत कमज़ोर जातियों में शामिल करने की अनुशंसा की।

2007

जस्टिस जसराज चोपड़ा समिति, राजस्थान

समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गुर्जर दूर-दराज़, पृथक और निर्जन क्षेत्रों में रहते हैं तथा अत्यंत पिछड़े हैं, इसलिये अनुशंसा की गई कि उन्हें अन्य पिछड़े वर्गों को उपलब्ध सुविधाओं से बेहतर सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।

2008

न्यायमूर्ति थिरु एम.एस. जनार्थनम समिति, तमिलनाडु

समिति ने अनुशंसा की कि अरुंथथियार को आरक्षण में विभेदकारी व्यवहार मिलना चाहिये।

2017

के. रत्न प्रभा समिति, कर्नाटक

इस समिति की अनुशंसा के आधार पर, आरक्षण के आधार पर पदोन्नत सरकारी कर्मचारियों के लिये परिणामी वरिष्ठता का कर्नाटक विस्तार (राज्य की सिविल सेवाओं में पदों के लिये) अधिनियम, 2018 अधिनियमित किया गया और मामला उच्चतम न्यायालय में आया, जिसमें अधिनियम की वैधता को यथावत् रखा गया और यह राय दी गई कि आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थी न केवल त्वरित पदोन्नति के अधिकारी हैं, बल्कि परिणामी वरिष्ठता के भी अधिकारी हैं।

2018

न्यायमूर्ति राघवेंद्र कुमार समिति, उत्तर प्रदेश।

 रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में OBC श्रेणी के अंतर्गत 79 जातियाँ हैं, जिनमें से 9 पिछड़ी, 37 अधिक पिछड़ी और 33 सबसे पिछड़ी जातियाँ हैं। इसलिये, इसने राज्य में OBC के 27% कोटे को विभाजित करने की अनुशंसा की: पिछड़े वर्गों के लिये 7%, अधिक पिछड़े वर्गों के लिये 11% और सबसे पिछड़े वर्गों के लिये 9% आरक्षण मांगा गया।

 विभिन्न भारतीय राज्यों में विभिन्न अनुसूचित जाति समुदाय कौन-से हैं?

  • महाराष्ट्र:
    • महार और मातंग सबसे प्रमुख अनुसूचित जाति समुदाय हैं।
    • महार समुदाय उच्च साक्षरता दर के साथ सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय है।
    • गोंड और भील सबसे बड़े जनजातीय समुदाय हैं, जो विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित हैं।
  • राजस्थान:
    • मेघवाल मुख्यतः सीमावर्ती ज़िलों में रहने वाला सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समुदाय है।
    • मीणा सबसे प्रभावशाली जनजाति है, जो कई विधानसभा सीटों पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है।
    • भील जनजाति बाँसवाड़ा और डूंगरपुर ज़िलों में प्रमुख है।
  • ओडिशा:
    • राज्य की जनसंख्या में जनजातीय लोगों की भागीदारी 22.85% है।
    • खोंड सबसे बड़ा जनजातीय समूह है, उसके बाद संथाल और गोंड आते हैं।
    • पैन प्रमुख SC समुदाय है, उसके बाद डोम का स्थान है।
  • छत्तीसगढ़:
    • राज्य की जनसंख्या में आदिवासियों की हिस्सेदारी 30% से अधिक है।
    • गोंड सबसे प्रभावशाली जनजातीय समुदाय है, जो जनजातीय जनसंख्या का 55% है।
    • सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह, दलित जनसंख्या का 70% से अधिक भाग है।
  • मध्य प्रदेश:
    • राज्य की जनसंख्या में अनुसूचित जातियों की भागीदारी लगभग 15.6% है।
    • सबसे बड़ा दलित समूह, जो परंपरागत रूप से चमड़े का काम करता है, अनुसूचित जाति समुदाय का 47% भाग बनाता है।
    • भील और गोंड सबसे बड़े आदिवासी समुदाय हैं।
  • पश्चिम बंगाल:
    • राजवंशी सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह है, जो उत्तर बंगाल की 20 विधानसभा सीटों को प्रभावित करता है।
    • मतुआ दूसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह है, जो विशिष्ट ज़िलों में केंद्रित है।
    • बागड़ी तीसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समुदाय है।
  • गुजरात:
    • वानकर सबसे बड़ा दलित समुदाय है, जो अनुसूचित जाति की जनसंख्या का 35-40% भाग है।
    • भील जनजाति की जनसंख्या लगभग 43% है।
  • आसाम:
    • जनजातीय जनसंख्या कुल जनसंख्या का 12.4% है।
    • बोडो सबसे बड़ी और राजनीतिक रूप से सबसे शक्तिशाली जनजाति है।
    • कार्बी सबसे बड़ी पहाड़ी जनजाति है।
  • त्रिपुरा:
    • 19 मान्यता प्राप्त जनजातीय समुदाय राज्य की जनसंख्या का 30% से अधिक भाग बनाते हैं।
    • देबबर्मा समुदाय के साथ-साथ त्रिपुरी कबीला भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
    • अनुसूचित जातियों की जनसंख्या लगभग 18% है।
  • उत्तराखंड:
    • ठाकुर और ब्राह्मण समुदाय की जनसंख्या लगभग 55% है।
    • हरिजन और वाल्मीकि सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह हैं।
    • जौनसारी और थारू दो सबसे बड़े अनुसूचित जनजाति समूह हैं।

निष्कर्ष:

यह ऐतिहासिक निर्णय भारत की आरक्षण नीति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है, जो संभवतः SC/ST समूहों के भीतर सबसे वंचित समुदायों के लिये अधिक सूक्ष्म और लक्षित सकारात्मक कार्यवाही की ओर ले जाएगा। यह निर्णय राज्यों को अंतर-समूह असमानताओं को दूर करने का अधिकार देता है, जिससे आरक्षण लाभों का अधिक न्यायसंगत वितरण हो सकता है। हालाँकि इस निर्णय के कार्यान्वयन के लिये सावधानीपूर्वक विचार एवं निगरानी की आवश्यकता होगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह आरक्षण प्रणाली में नए प्रकार के भेदभाव या जटिलता उत्पन्न किये बिना सबसे हाशिये पर पड़े वर्गों के उत्थान के अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करे।