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अंतर्राष्ट्रीय कानून

न्यायसंगत संक्रमण का विस्तार: एम.के. रणजीतसिंह मामला

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 12-Aug-2024

स्रोत: द हिंदू  

परिचय:

अप्रैल 2024 में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने ऐतिहासिक मामले एम.के. रंजीतसिंह और अन्य बनाम भारत संघ में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध मानव अधिकार को मान्यता दी। इस निर्णय ने एक बड़ी बहस छेड़ दी है, कुछ लोगों ने इसे जलवायु कार्यवाही के लिये एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में देखा है, जबकि अन्य ने जैवविविधता संबंधी चिंताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं करने के लिये इसकी आलोचना की है। "न्यायसंगत संक्रमण" की अवधारणा के माध्यम से न्यायालय द्वारा अंतिम निर्णय देने के संभावित लाभ यह हैं कि इस प्रकार का दृष्टिकोण अधिक न्यायसंगत जलवायु कार्यवाही सुनिश्चित कर सकता है, एवं पर्यावरण को एक हितधारक के रूप में शामिल कर सकता है और भारत में न्यायसंगत संक्रमण वाद-प्रतिवाद को सुदृढ़ कर सकता है।

एम.के. रणजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि और न्यायालय की टिप्पणी क्या है?

पृष्ठभूमि:

  • यह मामला सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने और लुप्तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) के संरक्षण के बीच संघर्ष से संबंधित था।
  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) शुष्क क्षेत्रों, विशेषकर राजस्थान में पाया जाने वाला एक बड़ा पक्षी है जो ओवरहेड विद्युत ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने सहित विभिन्न कारकों के कारण गंभीर रूप से संकटग्रस्त है।
  • GIB के संरक्षण और पुनरुद्धार के लिये दिशा-निर्देश मांगने हेतु एक रिट याचिका दायर की गई थी, जिसमें पक्षी डायवर्टर की स्थापना तथा ओवरहेड विद्युत लाइनों पर प्रतिबंध लगाना शामिल था।
  • अप्रैल 2021 में एक अंतरिम आदेश ने लगभग 99,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइनों पर प्रतिबंध लगा दिया और कुछ विद्युत लाइनों को भूमिगत करना अनिवार्य कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को स्वीकार किया, जिसमें 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से 50% संचयी विद्युत शक्ति प्राप्त करने का लक्ष्य भी शामिल है।
  • न्यायालय ने पहली बार संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 से प्राप्त स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार तथा जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने के अधिकार को मान्यता दी।
  • न्यायालय ने वैश्विक स्तर पर स्वच्छ ईंधन की ओर बढ़ने की दिशा में सौर ऊर्जा के महत्त्व को एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया।
  • न्यायालय ने ग्रीनहाउस उत्सर्जन और बढ़ते समुद्री स्तर के संबंध में अन्य न्यायक्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन संबंधी वाद-प्रतिवाद पर विचार किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने 18 अप्रैल 2021 के अपने अंतरिम आदेश को वापस लेते हुए कहा कि निर्दिष्ट क्षेत्र में सौर ऊर्जा वितरण के लिये विद्युत ट्रांसमिशन लाइनों पर प्रतिबंध लगाने का कोई आधार नहीं था।
  • न्यायालय ने माना कि सभी विद्युत लाइनों को भूमिगत करने से GIB संरक्षण का उद्देश्य पूरा नहीं होगा तथा इस तरह के प्रयास में तकनीकी बाधाएँ भी होंगी।
  • भूमिगत विद्युत लाइनों की व्यवहार्यता, पक्षी डायवर्टरों की प्रभावकारिता का आकलन करने तथा संरक्षण प्रयासों के लिये आवश्यक पक्षी डायवर्टरों की संख्या की पहचान करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का निर्देश दिया गया।
  • न्यायालय ने समिति से 31 जुलाई 2024 तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अनुरोध किया।
  • न्यायालय ने लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया तथा पर्यावरण संरक्षण तथा स्वच्छ ऊर्जा विकास दोनों की आवश्यकता को मान्यता दी।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

  • परिचय:
    • राजस्थान का राज्य पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (अर्डियोटिस नाइग्रिसेप्स) भारत का सबसे अधिक संकटग्रस्त पक्षी माना जाता है।
    • इसे प्रमुख घासभूमि प्रजाति माना जाता है, जो घासभूमि पारिस्थितिकी के स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करती है।
    • इसकी संख्या मुख्यतः राजस्थान और गुजरात तक ही सीमित है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी इसकी अपेक्षाकृत कम संख्या पाई जाती है।
  • भेद्यता:
    • यह पक्षी विद्युत लाइनों से टकराने/करंट लगने, शिकार (जो अभी भी पाकिस्तान में प्रचलित है), व्यापक कृषि विस्तार के परिणामस्वरूप आवास की हानि और परिवर्तन आदि के कारण लगातार संकटग्रस्त रहता है।
    • GIB धीमी गति से प्रजनन करने वाली प्रजाति है। वे कम संख्या में अंडे देते हैं और लगभग एक वर्ष तक चूजों की देखरेख करते हैं। GIB लगभग 3-4 वर्ष में परिपक्वता प्राप्त करता है।
  • संरक्षण स्थिति:
    • IUCN लाल सूची: गंभीर रूप से संकटग्रस्त
    • वन्य जीव एवं वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES): परिशिष्ट 1
    • प्रवासी प्रजातियों पर कन्वेंशन (CMS): परिशिष्ट I
    • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: अनुसूची I

 न्यायसंगत संक्रमण अवधारणा क्या है?

  • न्यायसंगत संक्रमण एक अवधारणा है जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन शमन कार्यों को निष्पक्ष और समावेशी बनाना है।
  • इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्बन-गहन प्रथाओं (डिकार्बोनाइजेशन) को कम करने के भार एवं लाभ सभी प्रभावित पक्षों के बीच समान रूप से वितरित किये जाएँ।
  • यह अवधारणा 1970 के दशक में उन श्रमिकों की सुरक्षा के लिये प्रारंभ की गई थी जिनकी नौकरियाँ बढ़ते पर्यावरणीय नियमों के कारण संकट में थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनों ने बाद में जलवायु परिवर्तन संबंधी बहस में न्यायसंगत संक्रमण को शामिल किया तथा कार्बन-प्रधान उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों पर डिकार्बोनाइजेशन के प्रभाव को मान्यता दी।
  • वर्ष 2015 में, न्यायसंगत संक्रमण को जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय संधि, पेरिस समझौते में शामिल किया गया।
  • न्यायसंगत संक्रमण में अब न केवल श्रमिक बल्कि अन्य सुभेद्य समूह जैसे स्वदेशी समुदाय, महिलाएँ, बच्चे एवं अल्पसंख्यक भी शामिल हैं।
  • इन सुभेद्य समूहों पर निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का अधिक जोखिम माना जाता है।
  • वर्तमान में, यह अवधारणा मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन शमन प्रयासों से प्रभावित मानव समुदायों पर केंद्रित है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता के बावजूद, पर्यावरण (प्रकृति) को अभी तक न्यायसंगत संक्रमण के विषय के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
  • पर्यावरणीय वादों में न्यायसंगत संक्रमण सिद्धांतों को लागू करने से अधिक न्यायसंगत और समावेशी जलवायु कार्यवाही को बढ़ावा मिल सकता है।
  • न्यायालयी निर्णयों में इस अवधारणा का उपयोग करने से, मौजूदा मामलों को प्रकट करके, भारत में न्यायोचित संक्रमण वाद-प्रतिवाद पर शोध को बढ़ावा मिल सकता है।

न्यायसंगत संक्रमण अवधारणा के उपयोग के क्या लाभ हैं?

  • एम.के. रंजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ (एम.के. रंजीतसिंह मामला) में भारत के उच्चतम न्यायालय का आगामी अंतिम निर्णय, पर्यावरणीय वाद-प्रतिवाद में न्यायोचित संक्रमण की अवधारणा को लागू करने का अवसर प्रस्तुत करता है।
  • इस मामले का मुख्य मुद्दा लुप्तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं के प्रतिकूल प्रभावों से बचाना है।
  • इस मुद्दे को न्यायसंगत संक्रमण परिवर्तन के नज़रिये से देखने पर तीन प्रमुख लाभ मिलते हैं:
    • न्यायसंगत और समावेशी जलवायु कार्यवाही को सुविधाजनक बनाना
    • न्यायोचित संक्रमण की अवधारणा का विस्तार करके इसमें गैर-मानवीय संस्थाओं को भी शामिल करना
    • भारत में मौजूदा न्यायोचित परिवर्तन वाद-प्रतिवाद को सामने लाना
  • न्यायालय की वर्तमान व्यवस्था डिकार्बोनाइजेशन और जैवविविधता संरक्षण को एक साथ रखकर, उन्हें प्रतिकूल विकल्पों के रूप में प्रस्तुत करती है।
  • यह दृष्टिकोण नवीकरणीय ऊर्जा मामलों में न्यायपालिका के मौजूदा रुख को प्रतिध्वनित करता है, जिसमें प्रायः प्रभावित वादी के हितों की तुलना में व्यापक सार्वजनिक हित के रूप में डिकार्बोनाइजेशन को प्राथमिकता दी जाती है।
  • एक न्यायोचित संक्रमण ढाँचा इस तरह के असमान और बहिष्कारकारी जलवायु कार्यवाही को रोक देगा, जिससे न्यायालयों को प्रभावित समुदायों तथा संस्थाओं के हितों की रक्षा करते हुए डिकार्बोनाइजेशन प्रयासों को सुदृढ़ करने की अनुमति मिलेगी।
  • यह दृष्टिकोण प्रतिक्रियाशील शमन कार्यवाही को सुगम बनाता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि डिकार्बोनाइजेशन का भार असमान रूप से वितरित न हो।
  • क्या एम.के. रणजीतसिंह मामला गैर-मानवीय संस्थाओं (प्रकृति) को प्रभावित के रूप में मान्यता देकर न्यायसंगत संक्रमण का विस्तार कर सकता है?
  • एम.के. रंजीतसिंह मामला गैर-मानव पर्यावरण (प्रकृति) को एक प्रभावित इकाई के रूप में प्रस्तुत करके न्यायपूर्ण संक्रमण की अवधारणा का विस्तार करने का अवसर प्रदान करता है।
  • परंपरागत रूप से, न्यायसंगत संक्रमण में 'प्रभावित समुदायों' की धारणा केवल मानव तक ही सीमित है।
  • किसी लुप्तप्राय पक्षी की रक्षा के लिये इस अवधारणा को लागू करके, न्यायालय गैर-मानव पर्यावरण (प्रकृति) को न्यायोचित संक्रमण में एक अलग इकाई के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
  • न्यायालय इस विस्तार का समर्थन करने के लिये प्रकृति के अधिकारों पर अपने स्वयं के पर्यावरण-केंद्रित न्यायशास्त्र का सहारा ले सकता है।
  • वर्तमान न्यायशास्त्र, जिसमें संवेदनशील अथवा संकटग्रस्त पशुओं के अधिकारों को मान्यता देने के लिये न्यायालय का वर्ष 2023 का सुझाव भी शामिल है, जो इस दृष्टिकोण के लिये आधार प्रदान करता है।
  • अधीनस्थ न्यायालयों ने पहले ही संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के संवैधानिक अधिकारों को मान्यता दे दी है, जिससे इस विस्तार को और अधिक समर्थन मिलता है।

भविष्य में जलवायु कार्यवाही और वाद-प्रतिवाद पर इसके क्या प्रभाव होंगे?

  • जैसे-जैसे देश, शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की ओर बढ़ रहे हैं, न्यायसंगत संक्रमण वाद-प्रतिवाद बढ़ने की संभावना है।
  • लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच संस्था ने भारत में नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं से संबंधित 20 विवादों की रिपोर्ट दी है।
  • डिकार्बोनाइजेशन से उत्पन्न होने वाले भार एवं लाभों का न्यायसंगत विभाजन इनमें से अधिकांश विवादों का केंद्र है।
  • एम.के. रंजीतसिंह मामला भारतीय न्यायशास्त्र में न्यायसंगत संक्रमण की अवधारणा को प्रस्तुत करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण क्षण का प्रतिनिधित्व करता है।
  • यदि न्यायालय न्यायसंगत संक्रमण की अवधारणा को लागू करने का निर्णय लेता है, तो यह विधान एवं वाद-प्रतिवाद दोनों में न्यायोचित जलवायु कार्यवाही के लिये एक उदहारण स्थापित करेगा।
  • यह दृष्टिकोण अनिवार्यतः 'ऊर्जा-परिवर्तन विरोधी' या 'जलवायु-विरोधी' नहीं होगा, बल्कि यह नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के उत्तरदायी और सूचित संचालन को बढ़ावा देगा।
  • इस मामले में वैश्विक स्तर पर उभर रहे जलवायु वाद-प्रतिवाद की एक नई श्रेणी से जुड़ने की क्षमता है, जो न्यायपूर्ण जलवायु कार्यवाही को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।

निष्कर्ष:

एम.के. रंजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र में न्यायसंगत परिवर्तन की अवधारणा को आगे बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करता है। न्यायसंगत संक्रमण के दृष्टिकोण से मुख्य मुद्दे को प्रस्तुत करके, न्यायालय न्यायसंगत और समावेशी जलवायु कार्यवाही को सुगम बना सकता है, गैर-मानवीय संस्थाओं को शामिल करने के लिये इस अवधारणा का विस्तार कर सकता है और भारत में मौजूदा न्यायसंगत संक्रमण वाद-प्रतिवाद को आगे बढ़ा सकता है।