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आपराधिक कानून
विधि की छात्रा की गिरफ़्तारी
«05-Jun-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
सोशल मीडिया पर टिप्पणी करने के कारण पुणे के 22 वर्षीय विधि छात्र की गिरफ्तारी भारत के डिजिटल परिदृश्य में स्वतंत्र अभिव्यक्ति और धार्मिक संवेदनशीलता के बीच चल रहे तनाव को प्रकटित करती है। यह मामला आनुपातिक विधिक प्रतिक्रिया और लोकतांत्रिक संवाद की सुरक्षा के विषय में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।
मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल में चौथे वर्ष की B.B.A LL.B ऑनर्स की छात्रा को सोशल मीडिया पर पोस्ट किये गए ऑपरेशन सिंदूर पर अपनी टिप्पणी के द्वारा धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के आरोप में शुक्रवार दोपहर को कोलकाता पुलिस ने गुड़गांव से गिरफ्तार किया।
- सार्वजनिक आक्रोश के बाद, उसने पहले ही आपत्तिजनक इंस्टाग्राम पोस्ट को हटा दिया था तथा X (ट्विटर) पर बिना शर्त माफी जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि उसकी टिप्पणी व्यक्तिगत भावनाएँ थीं, तथा उसका कभी किसी को ठेस पहुँचाने का आशय नहीं था।
- उसके सुधारात्मक कार्यों के बावजूद, 15 मई को गार्डन रीच पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी दर्ज की गई।
- पुलिस ने आरोप लगाया कि जब उन्होंने नोटिस देने का प्रयास किया, तो वह और उसका परिवार "फरार" हो गए, जिसके कारण गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। बाद में उसे गुड़गांव में गिरफ्तार कर लिया गया और कोलकाता में ट्रांजिट रिमांड के लिये स्थानीय न्यायालय में प्रस्तुत किया गया।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत संदर्भित विधिक प्रावधान क्या थे?
- धारा 196(1)(a): धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास, भाषा, जाति या समुदाय के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना।
- यह प्रावधान नफरत फैलाने वाले भाषणों को लक्षित करता है तथा इसके लिये 3 वर्ष तक की कैद, जुर्माना या दोनों की सज़ा का प्रावधान है। इसके लिये समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने और दुश्मनी पैदा करने की वास्तविक क्षमता के साशय किये गए कृत्य का साक्ष्य होना आवश्यक है।
- धारा 299: नागरिकों के किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिये विमर्शित एवं विद्वेषपूर्ण आशय से कार्य करना। इस अपराध के लिये 1 वर्ष तक की कैद, जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
- अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिये विमर्शित एवं विद्वेषपूर्ण आशय से कार्य करना, न कि केवल अनजाने में किया गया अपराध।
- धारा 352: शांति भंग करने के लिये विमर्शित एवं विद्वेषपूर्ण अपमान करना। यह प्रावधान उन कृत्यों को शामिल करता है, जो इस ज्ञान के साथ किये जाते हैं कि ऐसे कार्यों से शांति भंग होने की संभावना है। सज़ा में 2 वर्ष तक की कैद, ₹5000 तक का जुर्माना या दोनों शामिल हैं।
- धारा 353(1)(c): ऐसे अभिकथन जो मिथ्या सूचना के मध्यम से सार्वजनिक रिष्टि कारित करते हैं। यह मिथ्या या भ्रामक सूचना के प्रसार को संबोधित करता है, जिससे जनता में भय या चिंता उत्पन्न होने की संभावना हो। इस अपराध के लिये 1 वर्ष तक की कैद, जुर्माना या दोनों हो सकते हैं, अगर इससे सार्वजनिक व्यवस्था या राज्य की सुरक्षा प्रभावित होती है, तो सज़ा बढ़ा दी जाती है।
ये प्रावधान सामूहिक रूप से घृणास्पद भाषण, धार्मिक अपराध, सार्वजनिक व्यवस्था में व्यवधान और भ्रामक सूचना से निपटने के लिये एक व्यापक ढाँचा तैयार करते हैं, जिसमें एक ही घटना के लिये कई आरोपों की अनुमति देने वाले क्षेत्राधिकारों में अतिव्यापी प्रावधान हैं।
निष्कर्ष
यह मामला आधुनिक भारत में डिजिटल अभिव्यक्ति, धार्मिक संवेदनशीलता और विधिक प्रवर्तन के जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है। सांप्रदायिक सद्भाव की रक्षा करना महत्त्वपूर्ण है, लेकिन विधिक प्रतिक्रिया और लोकतांत्रिक संवाद की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, ताकि सामाजिक सामंजस्य एवं मौलिक अधिकारों को बनाए रखा जा सके।