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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
सिद्धार्थ मृदुल
« »15-Jan-2024
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल कौन हैं?
जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल को मणिपुर उच्च न्यायालय के 7वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है। उनका जन्म 22 नवंबर, 1962 को हुआ था। वे एक अधिवक्ता और दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में भी कार्यरत रहे हैं।
कैसी रही न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की कॅरियर यात्रा:
- उन्होंने वर्ष 1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से इतिहास में B.A. ऑनर्स के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
- उन्होंने वर्ष 1986 में कैंपस लॉ सेंटर, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून में स्नातक की डिग्री पूरी की।
- उन्होंने 24 जुलाई, 1986 को बार काउंसिल ऑफ दिल्ली में दाखिला लिया।
- उन्होंने निम्नलिखित विशेषज्ञता वाले एक अधिवक्ता के रूप में अभ्यास किया:
- याचिका एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार
- सिविल मूल एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार
- कंपनी के क्षेत्राधिकार
- दिल्ली उच्च न्यायालय में आपराधिक क्षेत्राधिकार।
- उन्होंने अपने वैध आचरण (legal practice) को निम्नलिखित तक बढ़ाया:
- बॉम्बे उच्च न्यायालय
- कर्नाटक उच्च न्यायालय
- राजस्थान उच्च न्यायालय
- आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण
- कंपनी लॉ बोर्ड
- औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण हेतु अपीलीय प्राधिकरण
- ऋण वसूली न्यायाधिकरण
- राष्ट्रीय और राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, दिल्ली।
- मई, 2006 में उन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया था।
- उन्हें दो कार्यकालों (1992-1998 और 1998-2003) के लिये दिल्ली बार काउंसिल के सदस्य के रूप में चुना गया था।
- उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न समितियों में सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था, जिनमें शामिल हैं:
- बाल श्रम उन्मूलन के बाद बच्चों के पुनर्वास के लिये।
- नगरपालिका उपनियमों का उल्लंघन कर अवैध निर्माण के लिये।
- सफदरजंग अस्पताल, दिल्ली के कुशल और स्वच्छ कार्यप्रणाली हेतु उपाय सुझाने, पर्यवेक्षण करने और लागू करने के लिये गठित समिति के सदस्य के लिये।
- उन्हें 13 मार्च, 2008 को दिल्ली उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।
- 26 मई, 2009 को उन्हें स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।
- उन्होंने 05 जुलाई, 2023 को मणिपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल के उल्लेखनीय निर्णय:
- पी. के. दाश बनाम बार काउंसिल ऑफ दिल्ली (वर्ष 2016):
- दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की खंडपीठ वन बार, वन कोर्ट मामले की सुनवाई कर रही थी।
- पीठ ने कहा कि "वन बार, वन वोट नियम जो हासिल करना चाहता है, वह इसके प्रत्येक सदस्य की प्रतिबद्धता है, कि यदि वह उन संगठनों में से किसी एक में मतदान करना चाहता है, जिसका वह सदस्य है, तो उसे किसका चयन करना चाहिये"।
- यह नियम यह सुनिश्चित करेगा, कि जिन लोगों की न्यायालयों तथा बार एसोसिएशनों के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, जहाँ वे वैध आचरण नहीं करते हैं, वे वोट नहीं देंगे और वास्तविक आचरणकर्त्ताओं के मतों के मूल्य को कम नहीं करेंगे।
- ये यह भी सुनिश्चित करता है कि किसी न्यायालय से कुछ संबंध रखने वालों को ही उस संघ के पदाधिकारी के रूप में चुना जाता है अथवा किसी अन्य को नहीं।
- वन बार वन वोट सिद्धांत संक्षेप में प्रत्येक बार एसोसिएशन के सदस्यों के मतदान अधिकारों में संतुलन बहाल करता है, जो अब तक अतीत में चुनाव प्रथाओं की तरह विवेकहीनता "सदस्यता में वृद्धि" के शिकार रहे हैं।
- शादाब खैरी बनाम राज्य (2018):
- दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की खंडपीठ ने कहा कि एक वरिष्ठ नागरिक अपने बेटे, बेटी या अन्य कानूनी उत्तराधिकारी को दुर्व्यवहार और गैर-भरण-पोषण के आधार पर अपनी स्व-अर्जित संपत्ति से बेदखल करने के लिये आवेदन दायर करने का हकदार है।”
- A बनाम राज्य (2021):
- यह मामला एक अवयस्क के पिता तथा उसके सहयोगी व्यक्ति द्वारा सामूहिक बलात्कार से संबंधित था।
- न्यायालय ने कहा कि “किसी भी मामले में, एक मासूम बच्चे का यौन उत्पीड़न करना एक घृणित कार्य है; लेकिन, जब ऐसा पिता-पुत्री के रिश्ते में होता है, जिसमें स्नेह की पवित्रता एक अनिवार्य शर्त है, तो यह कृत्य भ्रष्टता के एक अलग मार्ग की ओर चला जाता है।
- न्यायालय ने आगे कहा, “बाइबिल के अनुसार प्रतीत हुए बिना, समाज में अपराध महज़ एक बात है; लेकिन परिवार के निकटतम दायरे में अपराध, इसमें पाप का तत्त्व जोड़ देता है। ऐसे कृत्यों से अपेक्षित गंभीरता के स्तर से निपटा जाना चाहिये।”
- उमर खालिद बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य (वर्ष 2022):
- न्यायालय ने इस मामले में वर्ष 2020 में हुए दिल्ली दंगों के दोषी आरोपियों की ज़मानत याचिका खारिज़ कर दी।
- शराफत शेख बनाम यू.ओ.आई. (UOI)(2022):
- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि "यदि बंदी अंग्रेज़ी जानता या समझता है तो उसे अंग्रेज़ी में पावती देने से कोई नहीं रोक सकता, बशर्ते उसने पावती हिंदी में दी हो और हस्ताक्षर अंग्रेज़ी में किये हों।"
- अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करना और अंग्रेज़ी लिखना व समझना दो अलग-अलग चीज़ें हैं, जिसमें यह नहीं कहा जा सकता है कि अगर कोई अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करता है तो उसे भाषा की पूरी समझ है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि केवल अंग्रेज़ी में दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करने से यह नहीं हो जाता कि बंदी को अंग्रेज़ी का ज्ञान है, जिससे अनुच्छेद 22(5) के आदेश को पूरा होता है।
- संविधान का अनुच्छेद 22(5): जब किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन किये गए आदेश के अनुसरण में जब किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है तब आदेश करने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिये उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा।
- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि "यदि बंदी अंग्रेज़ी जानता या समझता है तो उसे अंग्रेज़ी में पावती देने से कोई नहीं रोक सकता, बशर्ते उसने पावती हिंदी में दी हो और हस्ताक्षर अंग्रेज़ी में किये हों।"